सोमवार, 14 नवंबर 2011

...एक मेरा पक्ष नि:सन्देह




अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे।


तोडऩे ही होंगे मठ और गढ़ सब।


पहुंचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार।

हिन्दी कविता के विशिष्ट कवि गजानन माधव मुक्तिबोध (१३ नवम्बर १९१७-११ सितम्बर १९६४) की ये पंक्तियां इसलिए भी आज मौजूं हैं कि अभिव्यक्ति पर सवाल हैं और सवाल उठाने वाले संदिग्ध हो जाते हैं, करार दे दिये जाते हैं। उन पर दिग्विजयी प्रहार होता है । सवाल उठाते ही धरपकड़ की कार्रवाई -कार्यवाही शुरू हो जाती है । हर समय में अभिव्यक्ति के खतरे इन्हीं परिस्थितियों में मनीषियों और समाज शिल्पियों ने उठाया है। कबीर भी सैंकड़ों साल पहले पंडे-पुरोहितों की धार्मिक नगरी काशी (वाराणसी) में पाखंड, दोमुंहापन और सत्ता-संस्कृति के विरुद्घ अभिव्यक्ति के खतरे को सत्साहस के साथ उठा रहे थे। यहीं नहीं कबीर से भी हजारों साल पहले नहीं सुनने के बावजूद सुनाये जाने की बात महाभारतकार व्यास जी कर रहे थे। वह उस समय के हिसाब से अभिव्यक्ति के खतरे के समान ही था। सच को बयां करना था । महाभारतकार कहते हैं कि ‘मैं हाथ उठा-उठा के कहता हूं किन्तु मेरी कोई सुनता नहीं। धर्म के रास्ते पर चलकर अर्थ और काम का निपटारा क्यों नहीं किया जाता।’ सनद रहे उस समय भी जब समय काफी (आज की तुलना में) सात्विक और सकारात्मक था। उस समय भी एक कवि मनीषी की चिन्ता के केन्द्र में यह था कि अर्थ और काम का निपटारा धर्म के रास्ते पर चलकर नहीं किया जा रहा है!

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि धर्म सिर्फ धार्मिक अर्थों से सिक्त नहीं है। नैतिकता, ईमानदारी, सद्मार्ग, उत्तरदायित्वबोध वह मूल्य हैं जिनके रास्ते ही व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का कल्याण हो सकता है। आज के संदर्भ में देखें तो हम समाज, संस्कृति और राष्ट्र के लिए अपनी प्रतिभा का कितना सदुपयोग कर रहे हैं इसे लिया जा सकता है। तिहाड़ की शोभा बढ़ा रहे तमाम माननीय हों या समर्थ और शक्तिशाली लोग हों उनकी वर्तमान दशा का सबसे बड़ा कारण तो यही है न कि उन्होंने धर्म और नैतिकता तथा मानवीय मूल्यों का ध्यान नहीं रखा। इसका परिणाम यह है कि वह जिस चीज के लिए अधर्म यानी भ्रष्टाचार, अनैतिकता या उत्तरदायित्वहीनता का सुख ले रहे थे, वह भी उन्हें नहीं मिला!

तो चाहे व्यास हों, ऋग्वैदिक ऋषि हों या फिर कबीर, रैदास, तुलसी.....भारतेन्दु, प्रेमचन्द.. सभी अपने-अपने समय में अभिव्यक्ति के खतरे उठाकर जनमूल्यों को, समय के यथार्थ को सचेत अभिव्यक्ति दे रहे थे। वह एक प्रतिरोध भी था और एक हस्तक्षेप भी। कहन अलग-अलग शैली-शिल्प में थे। हम जिन मुक्तिबोध की बात कर रहे थे वह भी अपनी कविताओं के माध्यम से अपने समय की बेचैनी को ही जीवन और अर्थ दे रहे थे। दो सौ से अधिक रची उनकी कविताएं कवि -आलोचक और मुक्तिबोध को नजदीक से बांचने वाले अशोक वाजपेयी के शब्दों में- ‘हमें खबरदार करती हैं जिससे हम अपनी भागीदारी को ठीक से समझ-बूझ सकें।’ आधुनिक हिन्दी साहित्य और काव्यालोचना को गहरे अर्थों में प्रभावित करने वाले मुक्तिबोध का जीवन और रचना एक-दूसरे में पूरी तरह समाहित हो गया है। अनेक संकटों और दुरभिसंधियों से जूझने-टकराने के बावजूद वह अभिव्यक्ति के खतरे उठाते हैं। प्रसिद्घि, पुरस्कार और बौद्घिक छद्म से दूर मुक्तिबोध हमें इसलिए प्रेरित करते हैं कि वह ‘भूल-गलती’ को भी जीवन के सरोकारों से सिक्त करते हैं। एक प्रखर बुद्घीजीवी और दार्शनिक दृंिष्टï वाले सर्जक के रूप में वे चाहे ‘ब्रह्मïराक्षस’ लिख रहे हों या ‘अंधेरे में’ , ‘भूल गलती ’ या फिर ‘मुझे पुकारती हुई पुकार’ ...वह गहरे नैतिक बोध से ही हमें अनुप्राणित करते हैं। अपने समय की बेचैनी को, यथार्थ को जो उन्होंने रचा आगे चलकर भारतीय सामाजिक प्रयोगशाला में समाज ने सच ठहराया। वह विश्वामित्र की तरह ‘नई सर्जना’ करते हैं। नये भारत की तलाश करते हैं। मनुष्यता की पहचान करने वाले मुक्तिबोध दरअसल स्वार्थी, फ्राड, अमानवीय, सुविधाजीवी-सुविधाभोगी सौन्दर्यबोधि व्यवस्था प्रतिमान को ध्वस्त करते हैं और जीवन की असल सुन्दरता का नया प्रतिमान रचते हैं। वे ‘असंख्यक इत्यादि-जनों’ (ईटीसी) की बात करते हैं, उनकी ओर से बात करते हैं तभी तो उनका भी एक पक्ष होता है-‘धरती के विकासी द्वन्द्व क्रम में, एक मेरा पक्ष नि:सन्देह’। सही भी है कि ऋग्वैदिक ऋषियों, व्यास, कबीर और अन्य अनेक मनीषियों की तरह हर कवि का, सर्जक का एक पक्ष होता है। वह निष्पक्ष इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि जीवन की पक्षधरता जरूरी है। ऐसे समय में जबकि झूठों पर एक बड़ी आबादी को पोसा जाता है। उन्हें नून-तेल-लकड़ी यानी जरूरी जीवन की जरूरतों से वंचित कर दिया जाता है ऐसे समय में निष्पक्षता अमूर्त नहीं हो सकती। एक ईमानदार बुद्घिजीवी, लेखक, पत्रकार, संस्कृति कर्मी, सामाजिक कार्यकर्ता ‘चुनी हुई चुप्पियों’ का हिस्सदार नहीं हो सकता।
विचार आते हैं’ शीर्षक कविता की पंक्तियां हैं- विचार आते हैं-/ लिखते समय नहीं/ बोझ ढोते वक्त पीठ पर/...विचार आते हैं/ लिखते समय नहीं /...पत्थर ढोते वक्त... / पीठ पर उठाते वक्त बोझ... पीठ कच्छप बन जाते हैं/समय पृथ्वी बन जाता है।

एक जोड़ी पहाड़ी आंखों के लाल डोरे

                                                    08-09-1926---05-11-2011
 एक जोड़ी पहाड़ी आंखों के लाल डोरे और दो हाथों की थपकियों का सम्मोहन हमें खींच-सा लेता है। कहते हैं कि असम का जादू कभी खाली नहीं जाता! भूपेन दा की आवाज में ऐसी ही जादुई कशिश थी। उनके सुरों संग हमेशा ही कोई वाद्य बजता-सा लगता तुरही या कि बांसुरी या कि कोई धीमा शंखनाद का स्वर हमारे दिलों की हूक बन जाता था। एक कली दो पत्तियों का प्रदेश अपनी गरम सुगंध से छा जाता है। दादा का संगीत चाय की प्यालियों-सा घर-घर पहुंच जाता है। एकसफल जीवन कईयों को जीवट कर जाता है। उनके गीत जीवन के गीत हैं असमिया माटी के सौंदर्य से परिपूर्ण।

भूपेन दा नहीं हैं। वे अनन्त आकाश में विलीन हो गये। ‘दिल हूम-हूम करे’, गंगा और बिहू के गीतों में जो चिरजीवी-कालजयी दिलों को छू जाने वाली आवाज है, वह अब हमसे जुदा हो गई। हजारिका की मद्धिम-खनकती सम्मोहक आवाज तमाम आवाजों में हमेशा विलक्षणता का एहसास कराती रही हंै। उन्होंने आजीवन संगीत को जन-जन तक पहुंचाया वह भारतीय सांस्कृतिक पर्यावरण की एक बड़ी उपलब्धि है। उनके जैसे संगीत साधक की अनुपस्थिति ने हमें बेजार कर दिया है।

असम के सादिया में जन्मे हजारिका पर ‘होनहार विरवान के होत चीकने पात’ की उक्ति पूर्णत: चरितार्थ होती है। बचपन में ही अपना पहला गीत रचा और दस वर्ष की आयु में उसे गाया। यही नहीं १९३९ में १२ वर्ष की आयु में असमिया फिल्म ‘इंद्रमालती’ में अपनी विलक्षण प्रतिभा को दर्शाया। महामना पं. मदन मोहन मालवीय के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से १९४६ में राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर (एम.ए.) की उपाधि प्राप्त की। न्यूयार्क स्थित कोलम्बिया विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। अब जब वे नहीं हैं तो संगीत के रूप में उनकी दिल और दिमाग को जोश, जिन्दगी और सोच देती अनमोल स्वर कृतियां हैं जो हमें हमेशा जिन्दा रखेंगी। उनकी उपस्थिति संगीत की वह विलक्षण गौरवशाली उपस्थिति थी, जो जिन्दगी को नए-नए अर्थ देती है। संस्कृति पुरुष के जाने से लगता है हमारा मन और लगातार उनकी विलक्षणता से संपन्न धरती विरान हो गई। वह एक ऐसे अनमोल सर्जक जो रचना को ईश्वरीय मानते थे। वह खुद गीत लिखते थे, संगीतबद्ध करते थे और गाते थे। कविता, पत्रकारिता, गायन, फिल्म निर्माण आदि अनेक क्षेत्रों में हजारिका का अनूठा रचाव हमें सांस्कृतिक-बौद्धिक मजबूती प्रदान करता है। उन्हें सिर्फ असमिया ही नहीं बल्कि भारतीय मन-प्राण का विलक्षण दूत कहा जा सकता है।

‘गांधी टू हिटलर’ फिल्म में बापू के प्रिय भजन ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ में आवाज देने वाले हजारिका की शख्सियत जहां असमिया लोगों के दिलों में रची बसी थी वहीं उन्हें दक्षिण एशिया के सांस्कृतिक दूतों में से एक माना जाता है। जो उन्होंने संगीत के सुरों को एक विस्तृत आकाश दिया। वह हमारे सांस्कृतिक गौरव थे। जिनको देखने के लिए आम लोग उमड़ पड़ते थे। अखिल असम छात्र संघ ने उनकी प्रतिमा का उन्हीं से उद्घाटन कराया था। असम साहित्य सभा के भी अध्यक्ष रहे। यह सर्वविदित हैं असमिया जनता भूपेन हजारिका सहित साहित्य-कला के महान मनीषियों पर जान छिडक़ती है। भूपेन दा ऐसे ही रचनाकार थे जो असम और असम के पार पूरी दुनिया के संगीत प्रेमियों के लिए प्रिय थे। यह अलग बात है कि उन्हें बेतहासा चाहते हुए भी उनकी राजनीतिक आकांक्षा-महत्वाकांक्षा को जनता ने समर्थन नहीं दिया। राजनीति के विचलन और फिसलन के दौर में शायद जनता अपने प्रिय संगीतकार को किसी ‘धारा’ में नहीं बहने देना चाहती थी। वह सबके थे। वैचारिक साम्राज्यवाद के प्रवक्ताओं ने उन पर कड़े प्रहार किये। भूपेन दा ने भी जनता के फैसले को सम्वेदनशीलता से लेते हुए अपने को राजनीति से अलग कर लिया।

भूपेन हजारिका के न होने का एहसास हमें अब होगा जबकि वह हमसे भौतिक रूप से काफी दूर हो गये हैं। उनके शब्द, उनकी अनुगूंज बरकरार है। वह हमेशा-हमेशा हमें गौरवान्वित और अनुप्राणित करते रहेंगे। उनकी सृजनधर्मिता के आकाश में गौरव के क्षण भारतीयता को भी जीवन देते रहेंगे। भूपेन दा हमारी संस्कृति के अनमोल रतन के रूप में याद आते रहेंगे क्योंकि किसी भी देश, समाज और सभ्यता की सर्वोच्च तत्व है संस्कृति। उन्हें हमारी विनम्र श्रद्धांजलि। उनको प्रणाम।

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

रंगमंच, सिनेमा, पृथ्वीराज




३ नवम्बर जन्म दिवस पर


 भारतीय सिनेमा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर पृथ्वीराज कपूर ने भारतीय सिनेमा या कहें मंच कला को बहुत बड़ा योगदान दिया। विधिवत रूप से भारत की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा (१९३१)’ से अभिनय की शुरुआत करने वाले पृथ्वीराज कपूर ने अपना पूरा जीवन रंगमंच और सिनेमा को समर्पित कर दिया। रंगमंच और सिनेमा के क्षेत्र में उनके महान अवदान हैं। कला को जीवन मानकर जीनेवाले पृथ्वीराज के महत्व को जानने के लिए उनकी संघर्ष- साधना और ललक को देखना होगा । आज हम उन्हें क्यों याद करें यह जानने के लिए उस ललक को , जीवन के लय और समर्पण को समझना होगा ।

                                     हिंदी फिल्म इण्डस्ट्री में लगातार पाँच पीढी तक काम करने वाला अकेला परिवार । हिंदी सिनेमा के साथ इस परिवार का जुड़ाव बिशेश्वर नाथ कपूर के साथ होता है,जो पृथ्वीराज कपूर के पिता थे,उन्होंने अपना नाम बिशेश्वर मल से बदल कर बिशेश्वर नाथ रखा था। इसी तरह पृथ्वी ने इसकी जगह राज का प्रयोग किया। यह राज अगले जेनेरेशन तक चला बलबीर राय बाद में राज कपूर और शमशेर राज बाद में शम्मी कपूर। बिशेश्वर नाथ ने ‘आवारा’ फिल्म में एक छोटी सी भूमिका निभाई थी। पृथ्वीराज कपूर से लेकर अब करिश्मा और करीना तक इस खानदान का काम जारी है। आज कपूर परिवार की पांचवी पीढ़ी हिन्दी सिनेमा की दुनिया में सक्रिय है।

उसकी आँखों में ढेर सारे सपने थे। अभिनय के जीवंत सपने। कला के प्रति अगाध आकर्षण समेटे पेशावर के एक पुलिस सब इंस्पेक्टर दीवान बशेश्वरनाथ कपूर का बेटा अपनी कला को मायने देने बंबई आया। पिता चाहते थे कि बेटा कानून की पढ़ाई करे। मगर लाहौर के लॉ कॉलेज में दाखिला लेने वाले कलाकार की नियति को कुछ और ही मंजूर था। वे पहले वर्ष में ही फेल हो गये। मातृ स्वरूपा बुआ से ७५ रुपये लेकर बंबई की धरती पर कदम रखा। संघर्ष से जूझते कलाकार ने जानी-मानी फिल्म पत्रिका ‘फिल्म इंडिया’ के संपादक की टिप्पणी पढ़ी- ‘उन पठानों के लिये यहां कोई जगह नहीं जो यह समझते हैं कि वे यहां अभिनेता बन जायेंगे’। तब पठानों के सशक्त व्यक्तित्व को कला-क्षेत्र में संजीदगी से नहीं लिया जाता था। ३ नवंबर, १९०६ को पेशावर में जन्में पृथ्वीराज कपूर को यह बात गवारा नहीं हुई। असली पठान ने जवाब दिया - ‘‘बाबूराव, इस पठान को चुनौती मत दो। यदि मेरे लिये भारतीय फिल्मों में कोई जगह नहीं है तो मैं सात समंदर पार करके हॉलीवुड जाऊंगा और वहां जाकर अभिनेता बनूंगा।’’ ग्रीक नायकों की सी कद-काठी वाले इस अभिनेता ने पीछे मुडक़र नहीं देखा और भारतीय सिनेमा के इतिहास में दर्ज नाम बन गया। रोबीली अवाजा, बेजोड़ संवाद अदायगी और अद्भुत अभिनय के दम पर पृथ्वीराज कपूर ने कला को नई ऊंचाईयाँ दीं। पृथ्वीराजकपूर के लिए कला का एक बड़ा अर्थ है। जो जीवन से घुलमिल गया है- ‘‘मेरे लिए कला एक तड़प है, स्पन्दन है, जीवन है। मैं चाहता हूँ कि कला जनजीवन का दर्पण बने, जिसमें लोग खुद को देख सकें, सँवार सकें, सुन्दर बन सकें, उन्नति कर सकें। सच्ची कला वह है, जो जीवन को सही मायने में चित्रित करे।’’ पृथ्वीराज कपूर की ये पंक्तियां उनकी कला प्रतिबद्धता की एक बानगी है। अमिट जिजीविषा की बानगी है ।

अभिनय उनका जीवन था। कॉलेज के दिनों से ही नाटकों में हिस्सा लेते रहे। ‘राइडर्स टू दी सी’ नामक नाटक में नोरा नामक लडक़ी का इतना प्रभावी अभिनय की कि लोग दंग रहे गये। स्त्री ओर पुरूष दोनों ही किरदारों में ढल जाते पृथ्वीराज ने कालेज के दिनों में ही अभिनय का तकनीकी बारीकियों सीख लीं। सब कुछ ऊपर वाले बंबई आकर पर छोड़ते हुए इम्पीरियल स्टूडियों में बतौर ‘एक्सट्रा’ कलाकार के रूप में काम शुरू किया। ‘चैलेंच वेडिंग नाइट’ और ‘दाँवपेंच’ सरीखी कई मूक फिल्मों में छोटी-छोटी भूमिकायें कीं। सधी आवाज और रंगमंच से जुड़े अनुभवों ने लोगों में उनके प्रति आकर्षण भरा। उन्होंने कई मूक फिल्मों में काम किया। एक्सट्रा से हीरों बनने का मौका अचानक और औचक ही आ गया। ‘सिनेमा गर्ल’ का हीरो निर्देशक बीपी मिश्र की कसौटी पर खरा नहीं उतर पा रहा था। उस दिन सेट पर बैठे एक्सट्रा कलाकारों की ओर इशारा कर नायिका अर्मेलिन से कहा-‘इन लडक़ों में से जिसे पसंद करेगी उसे ही हीरो बना देंगे।’ अर्मेलिन ने पृथ्वीराज की ओर इशारा कर दिया और पृथ्वी हीरो बन गये। बीपी मिश्रा को इनकी अदायगी पसंद आयी। फिल्म भी चल निकली और पृथ्वीराज कपूर की किस्मत का सितारा चमक उठा। उन्हें फिल्में मिलने लगीं। पारिश्रमिक की रकम भी बढ़ती गई। १९३१ में भारत की पहली सवाक फिल्म ‘आलम आरा’ में इन्होंने नायिका के पिता का रोल निभाया। ‘राजरानी मीरा’ (१९३३) ‘सीता’ (१९३४), ‘जोशेवतन’ (१९३५),‘मंजिल’ (१९३८), ‘विद्यापति’ (१९३८), जैसी कई महत्वपूर्ण फिल्मों में दिखे। इन फिल्मों ने उनकी अलग पहचान की गढ़ डाली। ‘मुगल-ए-आजम’ तो उनके लिए मील का पत्थर साबित हुईं। फिल्मों में बढ़ती शोहरत और शान के बावजूद भी रंगमंच के प्रति पृथ्वीराज की ललक बनी रही । नाटकों के प्रति उनकी प्यास कभी बुझी नहीं । सिनेमा में बढ़ती लोकप्रियता के साथ ही रंगमंच की दुनिया से अलग नहीं हुए । रंगमंच के प्रति लगाव और बंचैनी की तुष्टिï के लिए उन्होंने १५ जनवरी १९४४ को पृथ्वी थिएटर की स्थापना की । ९ मार्च १९४५ को बंबई के रॉयल ऑपेरा में मंचित शकुंतला नाटक की खूब चर्चा हुई । इस नाटक में नायिका का संवाद ‘‘ जब देश जागते हैं तो उन्हें तलवारों की लोरियों से नहीं सुलाया जा सकता । कौमों के बलबले तलवारों की धारें भी कुंद नहीं कर सकती । ताकत की चक्की में सचाई नहीं पीसी जा सकती ’’ सहित इसी सरीखे संवादों ने विदेशी शासन को छलनी कर दिया। प्रदर्शन रोके जाने लगे । धमकियां दी जाने लगी । मगर पृथ्वी नहीं माने । पांच दशकों के भीतर की सर्वक्षेष्ठ नाटï्य कृति को देख सरदार वल्लभ भाई पटेल की आखों से आंसू बह निकले। इसे बेटे राजकपूर ने पिता को दिखाया और कहा ‘देखिये पापा पत्थर रो रहा है। ’ सिकंदर (१९४१), शालीमार(१९४२), आंख की शर्म (१९४३) जैसी फिल्में और दीवार, पठान, गन्धार जैसे नाटक सामानान्तर चल रहे थे। सोहराब मोदी की फिल्म सिंकदर (1941) में उन्होंने महत्वपूर्ण अदाकारी की। ‘मुगल-ए-आजम’ के शहंशाह के रूप में उनका अभिनय कितना जीवंत था। पृथ्वी थियेटर (1944) की स्थापना कर उन्होंने रंगमंच को महान योगदान दिया। उन्हें १९५४ में संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप, १९६९ में पद्मभूषण और १९७१ में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। आठ वर्षों तक वे राज्य सभा के सदस्य रहे। 29 मई 1972 को वे इस दुनिया से विदा हो गये। वह हमारे लिए प्रेरक बने रहेंगे ।
                                                                              --- सविता पांडेय

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

जन-स्वास्थ्य के संदर्भ में स्वास्थ्य प्रोन्नति और रोगों की रोकथाम में आयुष की भूमिका


पिछले २०-30 वर्षों में योग , आयुर्वेद , प्राकृतिक चिकित्सा को लेकर बहस- मुबाहिसे होते रहे हैं . प्रासंगिकता और महत्व पर शक -सुबहा भी होता रहा है . लेकिन बिना पर्याप्त शोध किये खारिज करने की प्रवृति कहा तक सही है ! लेकिन शोध -अनुसन्धान बताते हैं कि इन चीजों का अत्यंत महत्व है .
आयुर्वेद विश्व का प्राचीनतम जीवन-स्वास्थ्य एवं चिकित्सा शास्त्र है। इसकी उत्पत्ति वेदों से है। आयुर्वेद आयु का विज्ञान है। जीवन का विज्ञान । जीवन की रचना और आयुष का विज्ञान । शरीर-इन्द्रिय-सत्त्व-आत्मा के संयोग को आयु कहते हैं- शरीरेन्द्रिय सत्वात्म संयोगो धरि जीवितम्। आयुर्वेद नित्य एवं शाश्वत है -शाश्वतोअयं आयुर्वेद:। कतिपय आचार्यों ने आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद कहा है। कई आचार्य आयुर्वेद को पंचम वेद मानते हैं। आयुर्वेदीय संहिताओं में वैदिक विचार से सर्वथा भिन्न अनेक विचार तथा सिद्धान्त हैं। आयुर्वेद के मूलभूत त्रिदोष सिद्धान्त अर्थात् वात-पित्त-कफ की अवधारणा मौलिक अवधारणा है जिसका वैदिक वांग्मय में उल्लेख नहीं मिलता। आयुर्वेदीय संहिता काल तक तथा तदनन्तर आयुर्वेद क्रमश: विकसित होता एक संपूर्ण स्वास्थ्य व चिकित्सा विज्ञाान का स्वरूप धारण करता गया। आयुर्वेद, योग, प्राकृतिक चिकित्सा सहित वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों की गुणवत्ता व समृद्ध परंपरा पर प्रस्तुत है दो दिवसीय कांफ्रेंस की डॉ. सरताज अहमद की एक रिपोर्ट -

डॉ.सरताज अहमद

                                             इंडियन एसोसिएशन ऑफ प्रिवेन्टिव सोशल एंड मेडिसिन की उ.प्र-उत्तराखंड स्टेट चैप्टर की १४ वीं वार्षिक कांफे्रंस का दो दिवसीय आयोजन बीते १४-१५ अक्टूबर स्वामी विवेकानंद सुभारती विश्वविद्यालय के मेडिकल कॉलिज के कम्युनिटी मेडिसिन विभाग के तत्वावधान में संपन्न हुआ।
जन-स्वास्थ्य के संदर्भ में स्वास्थ्य प्रोन्नति और रोगों की रोकथाम में आयुष की भूमिका विषयक कंाफे्रंस का उद्देश्य आधुनिक एवं परंपरागत चिकित्सा प्रणाली पर हुए शोध कार्यों का ज्ञान अर्जन करने की सतत प्रक्रिया को सुदृढ़ बनाने तथा योग-आयुर्वेद का आधुनिक चिकित्सा पद्धति में परस्पर सामंजस्य होने की जानकारी प्राप्त करना था। कांफे्रंस में राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विशेषज्ञों एवं विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों के चिकित्सकों ने स्वास्थ्य लाभ पाने के महत्वपूर्ण तथ्यों पर सुचिंतित विमर्श किया।



उद्घाटन वक्तव्य में मुख्य अतिथि एसवीवाईएएसए विश्वविद्यालय बंगलुरू के कुलपति डॉ. एच. आर. नगेन्द्रा ने कहा कि बीमारियों के बढऩे का कारण ग्लोबल वार्मिंग, सामाजिक परिस्थितियां और जीवन-शैली में हो रहे परिवर्तन हैं। फलस्वरूप श्वसन रोग, हृदय रोग, कैंसर, उच्च रक्तचाप, मोटापा और मधुमेह जैसे रोग तेजी से बढ़ रहे हैं। ऐसी स्थिति में केवल एलौपैथी पर निर्भर रहना उचित नहीं। जरूरत है लोगों को निरोगी बनाने के लिए उपलब्ध सभी मान्यता प्राप्त चिकित्सा प्रणालियों का सहयोग लिया जाए। विदेशों में भी भारतीय चिकित्सा पद्धतियों का प्रचलन और महत्व बढ़ा है।

विशिष्ट अतिथि मणिपाल विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रसिद्ध विद्वान डॉ. बी. एम. हेगड़े ने अपने रोचक और सुचिंतित व्याख्यान में कहा कि विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों द्वारा रोगों का निवारण करने हेतु सभी चिकित्सा प्रणालियों को एक मंच पर लाने की जरूरत है। उनका कहना था कि हालांकि मेडिकल पाठयक्रमों में व्यापक परिवर्तन हो रहे हैं किन्तु रोगियों को संपूर्ण चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने के लिए आयुर्वेद, योग, युनानी और होम्योपैथी को साथ लेकर चलना होगा। नेशनल इंस्टिट्यूट हैल्थ एंड फैमली वेलफेयर, नई दिल्ली के डॉ. देवकी नंदन का कहना था कि मन के अंदर जो शत्रु हैं उस पर काबू करना है . उसको प्रार्थना करें कि हम सकारत्मक सोच से आगे बढें , आरोग्य की ओर बढें . इस ओर गुणात्मक शोध की जरुरत पर उन्होंने बल दिया . कुपोषण, संक्रमण, प्रदूषण और उन्मुक्त जीवन शैली से सामाजिक विकास में अवरोध उत्पन्न होता है, जिसके फलस्वरूप स्वस्थ जनजीवन के लिए चिकित्सा दिए जाने के क्षेत्र में जटिल समस्याएं आती हैं। उन्होंने रोगों के निदान के लिए दवाओं से अधिक जीवन शैली में परिवर्तन लाने, संतुलित आहार लेने, व्यायाम करने, स्वच्छता द्वारा संक्रामक रोगों की रोकथाम करने और प्रदूषण रहित जीवन को अपनाने पर जोर दिया। सुभारती विश्वविद्यालय मेडिकल कॉलिज के प्राचार्य डॉ. ए .के. अस्थाना ने कहा कि आयुर्वेद संपूर्ण चिकित्सा पद्धति है जिसमें मन-मस्तिष्क और आत्मा के संबंधों पर बल दिया गया है ।
सुभारती इंस्टीट्यूशन की संस्थापक एवं मेडिसिन की वरिष्ठ प्रोफेसर डॉ. मुक्ति भटनागर ने उद्घाटन समारोह में शिरकत करते हुए कहा कि मेरे जैसे मेडिसिन के अध्येता के लिए यह सुकूनदायक है कि पारंपरिक और वैकल्पिक चिकित्सा विज्ञान से जुड़े प्रख्यात विद्वानों के चिकित्सकीय हस्तक्ष्ेाप वाले विचारों को सुनने को मिल रहा है । यह सही है परस्पर अंतर्संवाद से चिकित्सा क्षेत्र में उन्नति होगी ।
पतंजलि योगपीठ, हरिद्वार के शोध निर्देशक डॉ. शेरली टेलिस का कहना था कि योग भारत की परम्परा में है। वैज्ञानिक रूप से हुए शोध कार्यों से स्पष्ट हुआ है कि योग का अपना विशेष महत्व है। इसके द्वारा सरल और जटिल रोगों को पूरी तरह से मिटाया जा सकता है। योग के प्रति सामाजिक जागरूकता और इसके प्रामाणिक सिद्धांतों को वर्णित करते हुए उनका मानना था कि प्रचलित चिकित्सा व्यवस्था में योग को शामिल किया जाना चाहिए।
पतंजलि योगपीठ के डॉ. नगेन्द्र नीरज ने कहा कि योग और आयुष द्वारा रोगों के निदान करने पर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सहमति की मोहर लग चुकी है। योगासन शरीर को स्वस्थ, लचीला, निरोग और चुस्त-दुरुस्त रखने वाली वैज्ञानिक पद्धति है। जिसका हितकारी प्रभाव शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। कांफे्रंस के अध्यक्ष प्रो.डॉ. राहुल बंसल ने आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा के महत्व और उपयोगिता को सविस्तार रेखांकित करते हुए कहा कि हमारा शरीर मन, मस्तिष्क और आत्मा के सामजंस्य और शुद्धि के सिद्धान्त पर आधारित है। योग विद्या सकारात्मक सोच और आरोग्य जीवन का मार्ग प्रशस्त करती है। आयुर्वेद ज्ञान का महासागर है जिसमें दैविक, भौतिक और अध्यात्मिक विषयों से सम्बंधित मानव जीवन के अनेक पहलुओं पर दार्शनिक, सैद्धान्तिक, नैतिक और पूर्ण स्वास्थ्य दिए जाने का विवरण है।
कांफ्रेंस के विभिन्न वैज्ञानिक सत्रों में आयुर्वेद एवं पब्लिक हैल्थ विषय पर विशेषज्ञों ने विचार व्यक्त किए।
के.जी.एम.यू. लखनऊ के प्रो. डॉ. वी.के. श्रीवास्तव, इंस्टीट्यूट ऑफ आयुर्वेद एंड इंटिग्रेटेड मेडिसिन के स्वास्थ्य निदेशक डॉ. जी.सी. गंगाधर, आयुर्वेद कॉलिज ऑफ हाडिया, इलाहाबाद के प्राचार्य डॉ. जी सी तोमर, के.एच.एच.सी. नई दिल्ली की डॉ. कटोच ने आयुर्वेद की उपयोगिता को विस्तार से बताया। विशेषज्ञों ने गंभीर रोगों के निदान के लिए आयुर्वेद अपनाने की अपील की। देहरादून की प्रो. डॉ. सुरेखा किशोर, सी.सी. आर.वाई.एन. नई दिल्ली के उपनिदेशक डॉ. राजीव रस्तोगी, शोध अधिकारी डॉ. एच. एस. वेदराज, डॉ. वी.पी. वेकेटेश्वर राव ने जन-स्वास्थ्य के लिए नैचरोपैथी के सकारात्मक प्रभाव पर अपने विचार प्रस्तुत किए। वक्ताओं का कहना था कि आयुष की भूमिका को जनस्वास्थ्य से जोडऩे और रोगों को मिटाने में नैचरोपैथी का महत्व है।
इनके अतिरिक्त अन्य अनेक महत्वपूर्ण बिंदुओं पर भी विशेषज्ञों ने अपनी राय दी। नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हैल्थ एंड फैमली वेलफेयर, नई दिल्ली की प्रो. डॉ. मधुलेखा भट्टाचार्य, मौलाना आजाद मेडिकल कालिज, नई दिल्ली की डॉ. एस. अनुराधा, लाला लाजपत राय मेडिकल कॅालिज, मेरठ के डॉ. हरवंश चोपड़ा ने एच.आई.वी. एड्स पर अपना व्याख्यान दिया। मुजफ्फरनगर मेडिकल कॉलिज के प्रो. डॉ. जी.वी.सिंह, एम.बी.आई. किट चेन्नई के निदेशक डॉ. डी. चन्द्रशेखर, एम्स नई दिल्ली के डॉ. उमेश कपिल ने कुपोषण की कमी के कारणों एवं निवारणों पर प्रकाश डाला। कॉलिज मैनेजमेंट हैल्थ ऑफ अरबन के निदेशक डॉ. सुब्रत माडल ने शहरी स्वास्थ्य पर विचार रखे तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन के डॉ. अरविंद माथुर ने प्रसव के दौरान होने वाली मौतों के कारणों एवं उससे बचाव पर व्यापक चर्चा की। कांफें्रस के सचिव डॉ .पवन पाराशर का कहना था कि पर्यावरण और स्वास्थ्य का परस्पर संबंध है। दूषित पर्यावरण का स्वास्थ्य पर असर पड़ता है। डॉ. भोलानाथ द्वारा आयोजित शोध-पत्र प्रस्तुति सत्र में डॉ. राहुल बंसल, डॉ. भावना पंत के निर्देशन में डॉ. कपिल गोयल, डॉ. अंकुर श्रीवास्तव, डॉ. पारूल शर्मा, डॉ. रंजिता, डॉ. अनुराधा, डॉ. सरताज अहमद(अध्येता मेडिकल सोसियोलोजी), डॉ. रश्मि, डॉ. धीरज, डॉ. मोनिका, डॉ. अनुज, डॉ. सौरभ, डॉ. गगन, डॉ. गुरमीत, डॉ. प्राची, डॉ. सुमोजित सहित देश के कई राज्यों के चिकित्सकों व परास्नातक छात्र-छात्राओं ने ओरल शोध व पोस्टर शोध-पत्र प्रस्तुतीकरण के माध्यम से स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर अपने शोध प्रस्तुत किए।
अलीगढ़ की प्रो. डॉ. जुल्फिया खान के कर - कमलों द्वारा स्मारिका का विमोचन किया गया। डॉ. मुक्ति भटनागर और कुलपति (लेफ्टिनेंट जनरल) डॉ. बी.एस. राठौर ने डॉ. अंकुर श्रीवास्तव व डॉ. भास्कर द्वारा तैयार की गई योग पर आधारित सी.डी. भी लांच की। कार्यक्रम की समाप्ति पर निदेशक जनरल चिकित्सा शिक्षा प्रो. सोदान सिंह ने कहा कि भारत में योग और आयुर्वेद का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। तमाम वैज्ञानिक शोधों और प्रामाणिक सिद्धान्तों के आधार पर आयुष के महत्व को स्वीकार किया जाने लगा है। इसमें योग और आयुर्वेद सबसे मजबूत पैथी के रूप में उभरा है। इसके लिए सरकारी और गैर सरकारी व अन्य चिकित्सा संस्थानों से सहयोग मिल रहा है। सुभारती मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य डॉ. ए.के अस्थाना ने कान्फ्रेंस में महत्वपूर्ण भागीदारी करते हुए इस तरह के विमर्श की जरूरतों पर बल दिया एवं इसके लिए हर संभव कोशिश को प्रोत्साहित किया।
देश भर से जुटे सभी विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों के विशेषज्ञों, विद्वानों ने योग-आयुर्वेद और आधुनिक चिकित्सा प्रणाली के सभी महत्वपूर्ण तथ्यों पर गहन विचार विमर्श के बाद एक मत हुए कि रोगों के निदान के लिए आधुनिक चिकित्सा पद्धति में योग-आयुर्वेद और नैचरोपैथी का समावेश आज की जरूरत है। बेहतर होगा की परम्परागत चिकित्सा पद्धतियों को आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था में सामंजस्य बनाकर सरल व जटिल रोगों की चुनौतियों से निपटा जाएं।


...तो समाज भी इन्हें नकार देगा




कालजयी लोकप्रिय कृति रागदरबारी (उपन्यास) के रचनाकार श्रीलाल शुक्ल के निधन के बाद मीडिया माध्यमों में भी थोड़ी-बहुत हलचल हुई। पत्र-पत्रिकाओं और खबरिया चैनलों आदि में रागदरबारी के अंश प्रस्तुत किए गए। कुछ हिन्दी समाचार पत्रों (अंगे्रजी अखबार हिन्दी वाले को क्यों छापेगा!) ने पूरी पैकेजिंग की। उन पर पूरे पृष्ठ दिए। हिन्दी समाज के राजनीतिकों को भी लगा कि जरूर यह व्यक्ति कोई बड़ा आदमी था सो लगे हाथ श्रद्धांजलि दी गई । चैनलों-अखबारों में शोक संवेदना दी गई ।

साहित्य समाज का दर्पण है यह कोई मुहावरा, सूक्ति या स्कूली निबन्ध का विषय नहीं है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों से जुड़े मीडिया संस्थानों, शैक्षिक संस्थानों, प्रशासकों, राजनीतिकों, इंजीनियर-डाक्टरों, व्यवसायियों आदि की अगर हम बात करें तो साहित्य-विचार के प्रति एक बहुत ही निराशाजनक (कारुणिक)परिदृश्य उभर कर सामने आता है। और जब अभिभावकों यानी बड़े -बुजुर्ग लोगों की बौद्धिक स्थिति सोचनीय हो तो फिर नई पीढ़ी और बच्चों की क्या बात की जाए! क्योंकि हमारे बच्चे हमीं से संस्कार-सरोकार ग्रहण करते हैं। (मोबाइल,इंटरनेट,फेशबुक ...दे सकते हैं तो संस्कार ने क्या बिगाड़ा है जी!)

हमारे जन माध्यमों यानी मीडिया माध्यमों का धर्म माना जाता है कि वह सूचना, शिक्षा और मनोरंजन (स्वस्थ) का प्रसार करे। लेकिन मीडिया भी बाजार और विज्ञापन कम्पनियों पर आश्रित होकर साहित्य सरोकार को फालतू मानने का काम करती है। यह एक भ्रम फैला दिया गया है कि जनसंचार के माध्यम लोगों की रुचियों के अनुसार ही प्रकाशन-प्रसारण करते हैं . और लोग मिशन, सरोकार में रुचि नहीं रखते! मानों जनता फिल्मकारों, सम्पादकों, मीडिया मालिकों के सामने धरना देकर कन्टेंट की मांग करती है। (काश! ऐसा होता) सिनेमा जैसे प्रभावशाली माध्यम को भी मनोरंजन तक सिमटाने का प्रयास किया जाता है. यह कहकर कि सिनेमा में पैसा बहुत लगता है इसलिए सरोकार जैसी बातों को लेकर ज्यादा आग्रह नहीं किया जा सकता। लेकिन अनेक ऐसी फिल्मों को लें तारे जमीं पर, आरक्षण, अपहरण, गंगाजल आदि (और भी अनेक भारतीय और विदेशी फिल्मों को लिया जा सकता है) जिसे जनता ने पसंद (बाजार के मानक पर) किया। मुनाफा दिया । सिनेमा जैसे ताकतवर माध्यम को सिर्फ मनोरंजन के हवाले नहीं किया जा सकता। यही बात पत्रकारिता, कला, सिनेमा और परंपरा सब पर लागू होती है। बाल गंगाधर तिलक ने तो गणपति उत्सव के अवसर पर लगने वाली मेले की भीड़ को स्वतन्त्रता आंदोलन से जोड़ लिया था।





अच्छी पत्रकारिता भी बिक सकती है यह कई बार साबित हुआ है। लेकिन बिना किसी वैज्ञानिक शोध-सर्वेक्षण के पूंजी संस्कृति में इस बात को जोर-शोर से दोहराया जाता है कि साहित्य-फाहित्य या सामाजिक सरोकार को कौन पढ़ता है जी! हिन्दी समाज के (डा. रामविलास शर्मा के शब्दों में हिन्दी जाति) पत्रकार, बुद्धिजीवी अपनी सांस्कृतिक जातीयता के मामले में या तो निरक्षर हैं या फिर वे उसे पेश करने में लजाते हैं! दिलीप पडगांवकर जब टाईम्स ऑफ इण्डिया जैसे प्रतिष्ठित (बाजार के पैमाने पर भी!) अखबार में बतौर संपादक मराठी के महान नाटककार पु.ल.देशपांडे पर सम्पादकीय दे सकते हैं तो हिन्दी का सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला दैनिक डा . शर्मा को संक्षिप्त में क्यों सिमट देता है। आखिर हिन्दी समाज के एंकर, रिपोर्टर, संपादक चाहे वह किसी भी भाषा और माध्यम के मीडिया में काम कर रहे हों वे अपने मनीषियों को क्यों नहीं खबरों में स्पेस देते। और यह बात हिन्दी समाज, संस्कृति और पत्रकारिता में कहीं ज्यादा घर कर गयी है। हिंदी अखबारों की रविवारी (संडे मैगजीन) सिनेमा -मनोरंजन के नाम पर बौधिक दरिद्रता परोस रहे हैं . कही झंकार -टंकार है तो कही मनोरंजन के नाम पर देह -दर्शन . इन्हें पता नहीं किसने बता दिया की हिंदी पट्टी के लोग जो गरीबी -बेकारी सहित अनेक समस्याओं से ग्रसित हैं वे साहित्य और अपने ही सरोकारों की नहीं पढ़ते –सुनते ?

अन्ना हजारे के जनवादी-गांधीवादी आन्दोलन को जिस तरह से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने कवरेज़ दिया वह कोई मीडिया की उदारवादी नीति , एहसान या सरोकारों के प्रति एकाएक फिसलन या दायित्वबोध के कारण नहीं सम्भव हुआ बल्कि उनके पूंजी बाजार के मानक पर भी अन्ना फिट और हिट थे। जनता ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना को यानी अपने को जगाया! विदेश की धरती की बात करें तो विलियम शेक्सपीयर की जन्म भूमि इंग्लैण्ड के सर्वाधिक दर्शनीय स्थलों में है। उनकी यादों को शानदार धरोहर बनाकर संजोया गया है। शब्दशिल्पी के किये को लेकर अभिमान है वही की जनता और सरकार को . लेकिन कालिदास, तुलसी और कबीर के साथ हमारा बर्ताव कैसा है यह सभी जानते हैं? वर्ष २००७ में जादुई यथार्थ (मैजिक रियलिज्म) के जादूगर यानी प्रसिद्ध लेखक गैब्रिएल गार्सिया मार्केज़ कोलंबिया में अपने गृहनगर (एराकटाका) लौटे तो लोगों ने उनका शानदार स्वागत किया था। यहां तक कि सैकड़ों लोग उनकी गाड़ी के साथ भागते हुए स्टेशन तक गए। वहां की सरकार उनके घर का जीर्णोद्धार कर रही है और एक संग्रहालय बनवा रही है । लेकिन देवकीनंदन खत्री (जिनकी चंद्रकान्ता को पढऩे के लिए हजारों लोगों ने हिन्दी सीखी), भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रेमचंद, प्रसाद, आचार्य शुक्ल सहित तमाम जाने -अनजाने मनीषियों से जुड़ी स्मृतियों के क्या हाल हैं यह किससे पूछा जाए? प्रेमचंद के बनाए घर को बचाया नहीं जा सका। अब वहां महल खड़ी कर दी जाए तो क्या? इसलिए जब तक समाज चेतना दुरुस्त नहीं हो जाती और लोग सर्जकों के किए-धरे का सांस्कृतिक गौरव मान कर सम्मान करना नहीं सीख जाते । मीडिया का इसमें अहम भूमिका है । अच्छी पत्रकारिता बिकती है। मुनाफा बटोर सकती है। टीआरपी बढ़ा सकती है। सरोकारी सिनेमा भी करोड़ों का मुनाफा कमा सकता है। और यदि जनता की रुचियों की आड़ में समाज, संस्कृति, सरोकार को हाशिए पर रखा जाता रहेगा तो समाज भी इन्हें नकार देगा। समर्थन नहीं देगा । मीडिया का एक काम रुचियों का परिष्कार करना भी है। हिन्दी समाज को अगर सभ्यता की कसौटी पर उन्नत करना है तो संास्कृतिक विकास जरूरी है। जाति-धर्म-क्षेत्र विमर्श की जगह जातीय विमर्श की ओर रुख करना होगा। जनमाध्यमों को यह दायित्व निभाना चाहिए। मॉल, बाजार और फार्मूला-वन, २०-२० पर इतराने-इठलाने के बावजूद भूख, गरीबी, बेकारी, राजनीति की फिसलन, भ्रष्टïाचार, अपराध जातीय अहंकार को अगर हम जारी रखे हुए हैं तो यह शोक का समय है न कि ब्रेकिंग-एक्सक्लूसिव के उल्लास का। आखिर बाजार के चोंचले पर गौरवान्वित होने के बजाय उन सांस्कृतिक संदेशों को फैलाने का आप काम क्यों नहीं करते जो कबीर, रैदास, तुलसी, जायसी, मीरा... से लेकर भारतेन्दु, आचार्य शुक्ल और तमाम शब्द शिल्पियों के सरोकारों से होकर गुजरता है। एक हस्तक्षेप और सभ्यता विमर्श बनकर।





अद्भुत साहित्य शिल्पी

                                                 श्रीलाल शुक्ल

जीवन को हंसी-ठिठोली में उड़ा देने का माद्दा पाठकों को भी जिंदा कर जाता है। उनके जीवनानुभवों को अपनी दिनचर्यायों में आसानी से खोज निकाल सकते हैं। राग दरबारी, गोदान और मैला आंचल की तरह ही कालजयी कृति है। उनकी लेखनी से झरता विनोद-व्यंग्य आम जन - जीवन का ही हिस्सा है। हंसी-ठिठोली और चुटीलापन उनके जीवन और साहित्य दोनों में घुला-मिला सा था। कुछ भी थोपा हुआ सा नहीं लगता। घटनाएं हमारे बीच से ही उठा ली गई लगती हैं। सहज भाषा और हल्की-फुल्की घटनाएं वर्षों तक घुमड़-घुमडक़र हमें गुदगुदाती हैं। जीवन की विडम्बनाएं, विद्रुपताएं समय के यथार्थ को ही चित्रित करता है। और साहित्य समाज का दर्पण बनकर उभर जाता है। आजादी के बाद ग्रामीण जीवन के यथार्थ को जिस तरह से उन्होंने दर्ज किया है वह आज बेहद प्रासंगिक है। श्रीलाल शुक्ल को कई-कई बार पढक़र हम बार-बार जी सकते हैं।







श्रीलाल शुक्ल (३१ दिसम्बर, १९२५ २८ अक्टूबर, २०११) सृजन-संसार का एक बड़ा नाम थे। एक अनमोल रतन। अब हमारे बीच वे नहीं हैं तो साहित्य जगत में एक स्तब्धता है। सन्नाटा है . लगता है औचक वे चले गए हैं! उनके जाने से साहित्याकाश में जो खालीपन नजर आ रहा है वह आसानी से नहीं भरा जा सकता। और जब यह बात कही जा रही है तो यह कोई रस्मी बात नहीं है! श्रीलाल शुक्ल हमारे गौरव और स्वाभिमान थे। प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु के बाद भारतीय आंचलिक परिवेश-गांव-गिरान की व्यथा-कथा और विडंबनाबोध को उन्होंने यथार्थवादी संवेदना दी। अद्भुत कथाभाषा, शिल्प के मार्फत उन्होंने अवध के जीवन का यथार्थ चित्रण किया। व्यंग्य-विनोद के कुशल शिल्पी शुक्लजी ने अपनी रचनाओं में जीवन को जिस तरह से रचा है वह बिना तलवे को कष्टï दिये, जीवन की बारीकियों को समझे संभव नहीं है। राग दरबारी में आजादी के बाद भारतीय समाज-संस्कृति में व्याप्त भ्रष्टïाचार, पाखंड, चापलूसी, विसंगतियों पर जो प्रहार किया गया है वह कथ्य और शिल्प दोनों स्तर पर साहित्य के आकाश में मील का पत्थर है। १९६९-७० में इस अनुपम कृति को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। वहीं श्रीलाल शुक्ल की रचनाधर्मिता को सिर्फ हिंदी जगत में ही नहीं बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं एवं विश्व साहित्य में भी विशिष्टï दर्जा मिला। अनेक देशी-विदेशी भाषाओं में अनुदित यह कृति हिंदी साहित्य की श्रेष्ठ कृतियों में शुमार है। बार-बार पढ़ी जाने वाली कृति। साहित्य अकादमी, व्यास सम्मान और जीवन के अंतिम दिनों में अस्पताल के बिस्तर पर सर्वोच्च साहित्य पुरस्कार ज्ञानपीठ सहित उन्हें जीवन में अनेक सम्मान-पुरस्कार मिले। हर उम्र और पीढ़ी के पाठकों में राग दरबारी की लोकप्रियता रही। श्रीलाल शुक्ल की तमाम रंग की कृतियों में जो विद्रूप उभरता है वह दरअसल हमारे समाज का एक ऐसा कटु यथार्थ हैं जिससे आम जीवन का संघर्ष उभर कर आता है। आज के संदर्भ में जबकि भ्रष्टïाचार और व्यवस्था के रोग आम आदमी को दाल-रोटी और उनके हक-हकूक से महरूम कर रहे हैं श्रीलाल जी का वह विनोद, मीठे-तीखे व्यंग्य से सिक्त सटीक प्रहार प्रासंगिक है। जिस तरह से उन्होंने ग्रामीण जीवन की विसंगतियों को सहजता के साथ उद्घाटित किया है वह सूक्ष्म अवलोकन के विनियोग शक्ति का ही परिणाम है। ग्रामीण जीवन के यथार्थ को जिस तरह से शैली-शिल्प, कथ्य और भाषा के मार्फत वह रचते हैं वह अद्भुत है। उनकी रचना गुदगुदाती हैं, चिकोटी काटती है और अपनी सहजता में ही समय में हस्तक्षेप करती है।

वह एक विरले सर्जक थे। उनकी कृतियां हमारे साथ हैं और जब तक शब्द हैं तब तक वे कभी नहीं मरेंगे। वह हमारे बीच भौतिक रूप में नहीं हैं लेकिन कृतियों में जिंदा रहेंगे हमेशा-हमेशा। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि!

प्रमुख रचनाएं

सूनी घाटी का सूरज, अज्ञातवास, राग दरबारी, सीमाएं टूटती हैं, मकान, आदमी का जहर, पहला पड़ाव, विश्रामपुर का संत (उपन्यास), अंगद का पांव, यहां से वहां, उमरावनगर में कुछ दिन (व्यंग्य)।






गुरुवार, 28 जुलाई 2011

हमारे समय की बौद्विक उपस्थिति : नामवर सिंह





 बरिष्ठ समालोचक डॉ. नामवर सिंह का हिन्दी आलोचना के विकास-विस्तार में महत्वपूर्ण योगदान है। वे हमारे समय की बौद्धिक उपस्थिति हैं। उन्हीं के शब्दों में—‘जिसमें सारा हिन्दी समाज शामिल मार्क्सवाद से शुरू करके अब तक की जीवन यात्रा में वे कई उपलब्धियों से लैस आलोचक हैं। वाराणसी से तीस मील दूर चंदौली जिले के छोटा-से गांव जीअनपुर में २८ जुलाई, १९२७ को उनका जन्म हुआ। हालांकि नामवर सिंह की पुस्तकों में १ मई (श्रम दिवस), १९२७ दर्ज है। हिंदी क्षेत्र में पुनर्जागरण के नायक के रूप में उन पर आयेजित ‘ नामवर के निमित’ (अमृतवर्ष-२००२) में असली जन्म दिन का लोगों को पता चला। पिता सागर सिंह किसान और शिक्षक थे। मां बागेशवरी देवी थीं। उनकी शिक्षा-दीक्षा वाराणसी में सम्पन्न हुई। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिंदी में एम. ए. (१९५१) और पी-एच.डी. की उपाधि (१९५६ में) प्राप्त की। पृथ्वीराज रासो:भाषा और साहित्य पर उनका शोध ग्रंथ काफी चर्चित रहा । आज भी इस पुस्तक की मौलिक दृष्टि की विशिष्ट पहचान है ।‘ हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग’ की भूमिका प्रो. पी.एल.वैद्य जैसे विद्वान ने लिखी थी। इसी दौरान 1९५३ से १९५९ तक उन्होंने विश्वविद्यालय में अध्यापन किया। वे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के प्रिय शिष्य रहे। द्विवेदी हिन्दी साहित्य के उस समय के सर्वाधिक यशस्वी प्रोफेसर थे। जोधपुर विश्वविद्यालय, सागर, कन्हैयालाल माणिक मुंशी हिंदी विद्यापीठ (आगरा), जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय तक के अकादमिक सफर में अनेक पड़ावों से गुजरते हुए उन्होंने कई जीवन उपलब्धियां अर्जित की। वे बेहद लोकप्रिय अध्यापक रहे। ‘अध्यापक हो तो नामवर जैसा’ उनके शिष्य आज भी कहते हैं। मध्यकालीन और आधुनिक साहित्य के बहुपठित विद्वान हैं। उनकी वक्तृता उन्हें कक्षाओं, सभागारोंं में हिट करती है। उनके शिष्यगण बताते हैं कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से जे.एन. यू. तक जहां भी रहे उनकी कक्षाएं खचाखच भरी रहती थीं। दूसरे विषयों के छात्र भी उनकी कक्षाओं के गेट-खिड़कियों पर खड़े होकर उन्हें सुनते थे । हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग,पृथ्वीराज रासो की भाषा, इतिहास और आलोचना, छायावाद, आधुनिक साहित्य की प्रवितियां, बकलम खुद, कविता के नये प्रतिमान, दूसरी परम्परा की खोज, वाद-विवाद संवाद आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। ‘दूसरी परंपरा की खोज’ उनकी अपनी लिखी प्रिय आलोचना पुस्तक है। उनका कहना है कि ‘दूसरी परंपरा का मतलब द्वितीय परंपरा नहीं बल्कि एक और परंपरा है। वह गणना के क्रम में दूसरी नहीं थी।’ इसके अलावा उन्होंने ‘जनयुग’ साप्ताहिक (१९६५-६७), ‘आलोचना ’ १९६७ - ९१ का संपादन किया। पुनर्प्रकाशित ‘आलोचना’ (२००० से) के भी वे प्रधान संपादक हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल संचयन चिंतामणि: भाग-३, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबन्ध संकलन, आधुनिक रूसी कविताएं, आज की हिन्दी कहानी,नवजागरण के अग्रदूत बालकृष्ण भट्ट आदि का भी उन्होंने संपादन किया है। समकालीन साहित्य की प्रवृतियों को लेेकर उन्होनें अनेक ‘विमर्श’ खड़े किये हैं। उनकी स्थापनाएं जितनी जीवंत और मौलिक होती हैं, उतनी ही विवादास्पद! वे चांैकाऊ स्थापनाओं ने लिए विख्यात रहे हैं। विचारों में वे अत्यंत प्रगतिशील रहे हैं। इसीलिए वे अपने साहित्य-चिंतन के प्रतिमानों को बार-बार रचते रहते हैं। अब यदि उनके ‘भक्तगण ’ उन्हें विचार और इतिहास के अंत की तरह आखिरी आलोचक साबित कर चुके हों या कर रहे हों तो इसमें नामवरजी क्या कर सकते हैं? लेकिन नामवरजी भी अपनी एक चौकाउं स्थापना में ‘आचार्य शुक्ल को ही एकमात्र आचार्य घोषित कर चुके हैं , अपने गुरु द्विवेदी जी को भी नहीं’ तो इसमें नामवरजी न आचार्य शुक्ल की प्रतिष्ठा बढ़ा रहे हैं और न ही उनको आखिरी आलोचक बताने वाले उनकी प्रतिष्ठा । ‘हंस’ संपादक राजेंद्र यादव के शब्दों में कहू तो ‘वचिक ही मौलिक है’ का धर्म निवाह रहे नामवर जी ‘दूसरी परंपरा की खोज’ करके भी यदि सिर्फ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को ही आचार्य मानते हांे, अपने गुरु को भी नही ंतो यह विड़म्बना ही है। ठीक वैसे ही जैसे कुछ उत्तर आधुनिक विमर्शियों ने उन्हें अतिंम आलोचक घोषित कर दिया था। अगर ऐसा है तो इसमे शुक्ल जी और नामवर जी ही कटधरे में खड़े होते हैं कि उनके बाद उनकी परंपरा ही टूट गई। तो यह हुई दूसरी खोज जहाँ एक बार आचार्य और आलोचक पैदा होने के बाद साहित्य की धरती ही बंजर हो गयी !

आचार्य केशवप्रसाद मिश्र, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र जैसे अनेक मनीषियों से प्राप्त वैदुष्य-संस्कार तथा आधुनिक भाषाओं के साहित्य का गंभीर अध्ययन उनकी आस्वाद-क्षमता को विशिष्टï बनाता है। उनकी पारंपरिक और आधुनिक दृष्टिï उन्हें दूसरों से अलग करती हैं । पंडित रामअवतार शर्मा और आचार्य चंद्रधर शर्मा गुलेरी जैसे आधुनिक बोध वाले आचार्यों से भी वे खासा प्रभावित हैं। संस्कृत के इन परंपरावादी विद्वानों के आधुनिकता बोध , आचार्यत्व को नामवर सिंह सेमीनारों और लिखंत में उल्लेखित करते रहे हैं ।
नामवर जी ने अपनी क्षमता,मेधा की तुलना में कम लिखा है। वे ‘ वाचिक ही मौलिक है’ में अपार विश्वास करते हैं, यहां तक कि वह कहते हैं ‘ वे धन्य हैं जो अमर होने के लिए बोलते हैं पर मैं तो मर-मर के बोलना चाहता हूं। मेरे शुभचिंतक शिकायत करते हैं कि मैं आजकल लिखता नहीं, बोलता हूँ। उन्हंे शायद यह मालूम नहीं कि मैं बोलता ही नहीं, लोकार्पण भी करता रहता हूँ – (स्वयं को ग्रंथमोचक बताते हुए) . काशी (बनारस) उनको कचोटती रही है। वे अक्सर कहते हैं -(बाबा नागार्जुन के) उस बैल की तरह जो बेच दिया गया, अपने बथान तक बार-बार दौड़ता है। इसीलिए वे यहां आने का बहाना तलाशते रहते हैं। ‘तुम्हारी याद के जख्म भरने लगते हैं तो किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं।’ बनारस छूटने के बाद वे दिल्ली में स्टार-सुपर स्टार आलोचक बनकर साहित्य संसार में छा गए । बनारस छूटने का कारण वह ‘भैरवजी का सोटा’ (मान्यता है कि काशी के कोतवाल भगवान काल भैरव के आदेश के बिना काशी में वास संभव नहीं है । ) मानते हैं । वह कहते हैं ‘काशी बार-बार मुझे दुत्कारती है फिर भी मैं काशी का हूं।’ काशी को वे ब्राह्मïण और श्रमण संस्कृति और बहुलतावादी परम्परा का केन्द्र मानते हैं। इस्लाम, बौद्घ , जैन तथा सिख परंपरा को इस विरासत से काटना संभव नहीं है। नामवर की दुत्कार वाली शिकायत की उनकी वजहें रही है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से उनकी निकासी और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे समर्थ गुरु के स्नेह-आशीर्वाद के बावजूद हिन्दी विभाग में चयन न होना उनके दु:ख का कारण रहा है। १९५९ में वे चकिया चंदौली लोकसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिष्टï पार्टी के उम्मीदवार भी रहे जिसमें उन्हें असफलता मिली । बीएचयू से निकासी के कारणों में यह चुनाव माना जाता है । अभाव और बेकारी में शुरुआत का जीवन -( गर्वीली गरीबी वह) बिता चुके नामवर अब साहित्यिक जीवन उपलब्धियों की आलोचकीय समृद्घि से सम्पन्न हैं। ’हक अदा न हुआ’ नामवर जी की षष्टिपूर्ति पर लिखे भावनात्मक और महत्पूर्ण लेख मेें विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने लिखा है - मुझे याद है एक बार तो नामवर जी आदरणीय विजय शंकर मल्ल जी जैसा लम्बा कोट पहनकर इंटरव्यू देने गये। हम लोग आश्वस्त थे। केदारनाथ सिंह का विचार था कि जब ऐसा लम्बा कोट पहन कर गये हैं तब चयन होना निश्चित है। पर चयन श्री भोलाशंकर व्यास का हुआ। वहां तो द्विवेदी जी कुछ कर-धर नही पाये। मिलने पर नामवर जी को काफी ड़ांटा - अपनी किताबे क्यों नही ले गये। वहां पूछा गया, कौनसी किताबे लिखी हैं तो दिखाने को एक भी नहीं। ऐसे इंटरव्यू दिया जाता है ? क्या इससे यह ध्वनि नहीं निकलती है कि कम योग्य अभ्यर्थी का जुगाड़ या अन्य कारणों से चयन हो गया? आप ही बताइए विश्वनाथ जी, व्यासजी भी प्रतिभा, उपलब्धि -स्तर, शिक्षा के स्तर पर कहां कम थे? हालांकि व्यासजी हमेशा कहा करते थे कि काश , एक और सीट होती और नामवर भी यहां होते।
नामवर जी की मेधा, साफगोई और दृष्टि के व्यास जी कायल थे । लेकिन यह कहा जाना कि नामवर जी से कमतर का चयन हुआ सही नहीं है विश्वनाथ जी ने लिखा हैं वे दिन बहुत खराब थे। लगभग सात वर्षाे तक एम.ए., पी-एच.डी. छायावाद, हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, इतिहास और आलोचना, आधुनिक साहित्य की प्रवृतियां के लेखक डा. नामवर सिंह बेकार रहे।
साहित्य अकादमी (१९७१ में कविता के नए प्रतिमान),शलाका सम्मान(हिंदी अकादमी दिल्ली) सहित उन्हें अनेक पुरस्कार-सम्मान मिल चुके हैं। राजेन्द्र यादव के शब्दों में-‘‘सत्ता उनकी कमजोरी है। ... अनेक ऐसे उदाहरण हैं जब उन्होंने सत्ता में बैठे लोगों की आरतियां उतारी हैं।’’
नामवरजी ने जितना कुछ लिखा-पढ़ा है; आलोचना को समृद्धि दी है- वह हमारे लिए गौरवपूर्ण है। यह अलग बात है कि उनकी हर आलोचना को समालोचना की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता । कहीं -कहीं ज्यादा आशीर्वादी और पीठ ठोकी भूमिका में रहे हैं तो कहीं काफी आक्रामक और पूर्वाग्रही । यह हम नहीं कह रहे हैं बल्कि नामवर का आलोचना के कुशल पारखियों का कहना रहा है । बनारस में कई-कई बार उन्हें सुनने का मौका मिला । खचाखच भीड़-भाड़ में खड़े होकर, जमीन पर बैठकर भी या जगह के अभाव में खिड़कियों -दरवाजे पर खड़े होकर भी उन्हें सुनते हुए लोगों को देखा है । उनमें साहित्य-फाहित्य से दूर-दूर तक नाता न रखने वाले भी होते हैं। बस एक बार प्रेमचंद की १२५ वीं जयंती पर वाराणसी में आयोजित संगोष्ठी में लंका से यूपी कालेज तक सरकारी लक्जरी बस के इंतजाम यानी यातायात की बेहतरीन सुविधा के और नामवर, राजेंद्र यादव जैसे स्टार वक्ताओं को पता नहीं लोग उम्मीद के मुताबिक सुनने क्यों नहीं गए जितना अकेले नामवर जी को ही सुनने जाते थे । ‘वाद-विवाद-संवाद’ में रमने वाले नामवर सिंह शतायु हों।




नामवर के बोल
 भाषा की असली ताकत उसकी भद्रता,शिष्टïता और महानता का अहंकार नहीं बल्कि उसको बोलने वाली जनता होती है । -नामवर के निमित, कोलकाता , दिसम्बर, २००१

 वास्तविक आलोचक किसी एक कृति का मूल्यांकन करते समय परोक्ष रूप से साहित्य की समस्त कृतियों का मूल्यांकन करता है, यदि वह ऐसा नही करता तो वह मूल्यांकन ही नहीं है, और उसके अंतनिर्हित प्रतिमान में कही न कही असंगति है। - नामवर सिंह , इतिहास और आलोचना

 “मैं मार्क्सवादी हूँ पर कई प्रश्नों पर बार-बार सोचता हूँ। आज बदले हुए दौर में कई ऐसे प्रश्न हैं जिनका जबाब हमें मार्क्सवाद में नही मिलता।“
 उपन्यास अगर पाठ ही है, तो मर जायेगा। गोदान में गुठली है। ‘रस’ न हो तो कालजयी कृति हो ही नहीं सकता। युगों-युगों तक गोदान पढ़ा जाता रहेगा तो ‘रस’ के कारण, कलाकृति के कारण। क्योंकि वो वर्णन इतिहास, समाजशास्त्र में भी मिल जाएगा। बंधी-बंधायी विचारधारा के आधार पर न मूल्यांकन किया जाए। रचनाकार की कृति में जो राग बना है, उसको देखें। गोदान का यही बड़प्पन है। सीपीआई, सीपीएम,सीपीआई एमएल वाले अपनी-अपनी विचारधारा ढूंढ़े? गोदान विचारधारा को अतिक्रमित करता है। उसके मर्म को जानने के लिए विचारधाराओं के चक्कर में नहीं पडऩा चाहिए।
 ‘गोदान’ विशाल वाद्य वृंद्य है। सबने अपना-अपना सुर मिलाया है। जो लोग ‘गोदान’ में केवल दलित विमर्श देखते हैं, स्त्री विमर्श देखते हैं, यह देखना गोदान के टुकड़ों को देखना है। संपूर्ण की उपेक्षा करना है। गाय ‘गोदान’ में यदि रूपक है, प्रतीक है, अनेक आदर्शों का प्रतीक बन जाती है। होरी खुद गाय है। गाय की इच्छा रखने वाला खुद गाय है। गाय जानवर या संपत्ति नहीं है। उसके मरजाद, आत्मसम्मान का भी सूचक है। गाय के साथ जमीन भी जुड़ा, है, उसके समूचे मनुष्यत्व का प्रतीक है। उस दौर में प्रेमचंद का वह ‘स्वराज्य’ है। उसके सपने का अर्थ हमें खोजना चाहिए। प्रश्न कर रहा हूं...क्या गोदान प्रेमचंद के लिए वही है जो कैपिटल में माक्र्स के लिए ‘मनी’ थी। किस गांधी का उन्होंने अतिक्रमण नहीं किया? ‘गांधीवाद’ नहीं छौड़ा था इसकी और व्याख्या करनी चाहिए। प्रेमचंद को विचारधाराओं के फंडे में न बांधों। प्रगतिशीलों को और सावधानी बरतनी चाहिए।
                                   सीनेट हॉल , स्वतंत्रता भवन, बीएचयू, ६-११-२००५
 मेरी जानकारी में राजा शिव प्रसाद ’सितारे हिन्द’ को लेकर हिन्दी की यह पहली गोष्ठी है और खुशी की बात है कि काशी मे हो रही है। 1995 में उनके निर्वाण काल की शताब्दी मानायी जा सकती थी लेकिन उनको काशी भी भूल गयी और बाहर वाले भी भूल गये। इसे भूल सुधार के रूप में दर्ज किया जाना चाहिये तथा इस प्रयास के लिए समस्त हिन्दी जगत को वीरभारत का कृतज्ञ होना चाहिये।
 भारतेन्दू जैसा साहित्यकार 19वी सदी में कोई नही हुआ। राजा साहब का क्षेत्र अलग था। वे दूरदर्शी शिक्षा शास्त्री थे जिन्हंे साहित्य और संस्कृति से गहरा लगाव था। वीरभारत तलवार को सावधानी बरतनी चाहिये नही ंतो भूल सुधार के चक्कर में एक और गम्भीर भूल हो जायेगी। हिन्दू और मुस्लिम जैसे विषयों पर वीरभारत फिर से विचार करें नही तो भूल को दूरुस्त करने में एक और भूल होगी। वीरभारत को हजार फटकार लगाईए लेकिन अगर यह किताब नही आयी होती तो यह चर्चा भी नही होती। वीरभारत ने बनारसी रंग देख लिया। साहित्य का पानीपत बनारस है, वीरभारत को लड़ाई यहां जितनी पडेगी। जो सवाल खासतौर पर अवधेष प्रधान और बलराज पाण्डेय ने उठाए उसका जबाब दिया जाना चहिये था। तलवार ने पहले ही लिखा है कि राजा साहब को हिन्दी वाले खलनायक मानते हैं और बस वे ही एक उन्हें नायक मानते हैं।----15-09-2004, वाराणसी, डायमण्ड होटल, राजा शिव प्रसाद ’सितारे हिन्द’ और 19 सदी का हिन्दी गद्य




गुरुवार, 21 जुलाई 2011

नसीरुद्दीन शाह -- अभिनय की कसौटी

नसीरुद्दीन शाह  (जन्म: २० जुलाई-१९५०) -एक ऐसा अभिनेता जिसकी रग-रग में अभिनय बसता हो। बहुमुखी प्रतिभा के धनी शाह ने अपनी भूमिकाओं से सिनेमा- संसार को कलात्मक विस्तार दिया। सृजन विस्तार । चाहे वे स्टेज एक्टर हों या फिल्मी एक्टर... उन्होंने विभिन्न चरित्रों में अभिनय के नए-नए शेड्स दिए। तीन दशकसे अधिक के अपने क़लातमक़ करियर में हर तरह के किरदार में वे खूब जमे । ‘स्पर्श’ और ‘मासूम’ में उनके परफॉरमेंस को कैसे भुलाया जा सकता है।


बाराबंकी (उत्तर प्रदेश) में जन्मे नसीर ने जहां राष्टरीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) से थिएटर का प्रशिक्षण लिया, वहीं भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) से सिनेमा के गुर सीखे।

मशहूर फिल्मकार श्याम बेनेगल की फिल्म ‘निशान्त’, ‘मंथन’ और ‘भूमिका’ में नसीर ने अपने अभिनय द्वारा सहज ही ध्यान आकृष्ट किया। अपनी कलात्मकता को ऊंचाई दी। १९७० के दशक में समांतर सिनेमा आंदोलन के दौर में उनकी प्रतिभा को बड़ी सम्मानित पहचान मिली। साईं परांजपे के स्पर्श, सईद मिर्जा के अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है, गोविंद निहलानी के ‘आक्रोश’ और केतन महता के ‘मिर्च मसाले’ में नसीरुद्दीन शाह के चरित्र ने हिंदी सिनेमा को अभिनय की उल्लेखनीय छटा दी।

इसके अतिरिक्त व्यवसायिक फिल्मों ‘कर्मा’, ‘जलवा’ और ‘त्रिदेव’ आदि में भी अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया। मुख्य धारा की व्यवसायिक फिल्मों में हास्य से भिगी चारित्रिक और खल भूमिकाओं में भी वे अपने अभिनय को विस्तार और विविधता देते नजर आए। शाह ने हॉलीवुड में भी कुछ फिल्में की हैं। साथ ही मिर्जा गालिब और भारत एक खोज जैसे टीवी धारावाहिकों में भी काम किया है।

उन्हें सर्वश्रेष्टï अभिनय के लिए तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार मिले। १९८० में ‘आक्रोश’ १९८१ में ‘चक्र’ और १९८३ में ‘मासूम’ के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार विजेता बने। गौतम घोष के ‘पार’ में संजीदगीपूर्ण भावाभिनय के लिए उन्हें १९८४ वेनिस फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का वोल्पीकप मिला। इसी फिल्म पर वे १९८४ में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के रूप में राष्टï्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता भी बने।

नसीर का मन आज भी थिएटर में ही रमता है। वे अभिनय की तलाश में आज भी जिज्ञासु बने हुए हैं। नसीर ने कभी भी अपने कलाकार से समझौता नहीं किया। अच्छे चरित्र और बेहतरीन पटकथा की उनकी तलाश जारी है। वही किरदार चुनते हैं, जो उनहें छूते हैं कोई भी ऐसी फिल्म नहीं करते, जिसमें मजा न आए। नसीर का मानना है िक़ जब भी उन्होंने कोई भी फिल्म बेमन से की है, वह लोगों न॓ भी पसंद नहीं क़ी है। सृजन सरोकारों के समय वे हमेशा गतिशील बने रहें। जीवन की गति के साथ। तुम जियो हजारों साल...। जीवेत् शरद: शतम ।



फिल्मोग्राफी—

१९७५ : निशान्त

१९७६ : मंथन, भूमिका

१९७६ : मंथन, भूमिका

१९७७ : गोघूलि

१९७८ : जुनून

१९७९ : सुनयना, स्पर्श

१९८० : आक्रोश, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा

क्यों आता है, अंधेर नगरी, चक्र

१९८१ : सजा-ए-मौत, उमराव जान, आधारशिला

१९८२ : बेजुबान, बाजार, मासूम, स्वामी दादा

१९८३ : अद्र्ध सत्य, मंडी, वो सात दिन

१९८४ : पार्टी, पार

१९८५ : बहु की आवाज, गुलामी, मिर्च मसाला, त्रिकाल, खामोश

१९८६ : कर्मा, जलवा

१९८७ : इजाजत

१९८८ : जुल्म को जला दूंगा, हिरो हिरालाल

१९८९ : त्रिदेव, खोज

१९९० : चोर पे मोर

१९९१ : शिकारी, लिबास

१९९२ : विश्वात्मा, तहलका, चमत्कार

१९९३ : सर, कभी हां-कभी ना

१९९४ : मोहरा, द्रोहकाल

१९९५: नाजायज, टक्कर

१९९६ : चाहत, हिम्मत

१९९७ : लहू के दो रंग

१९९८ : सरफरोश

१९९९ : भोपाल एक्सप्रेस

२००० : गजगामिनी

२००१ : मोक्ष

१९७७ : गोघूलि

१९७८ : जुनून

१९७९ : सुनयना, स्पर्श

१९८० : आक्रोश, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा

क्यों आता है, अंधेर नगरी, चक्र

१९८१ : सजा-ए-मौत, उमराव जान, आधारशिला

१९८२ : बेजुबान, बाजार, मासूम, स्वामी दादा

१९८३ : अद्र्ध सत्य, मंडी, वो सात दिन

१९८४ : पार्टी, पार

१९८५ : बहु की आवाज, गुलामी, मिर्च मसाला, त्रिकाल, खामोश

१९८६ : कर्मा, जलवा

१९८७ : इजाजत

१९८८ : जुल्म को जला दूंगा, हिरो हिरालाल

१९८९ : त्रिदेव, खोज

१९९० : चोर पे मोर

१९९१ : शिकारी, लिबास

१९९२ : विश्वात्मा, तहलका, चमत्कार

१९९३ : सर, कभी हां-कभी ना

१९९४ : मोहरा, द्रोहकाल

१९९५: नाजायज, टक्कर

१९९६ : चाहत, हिम्मत

१९९७ : लहू के दो रंग

१९९८ : सरफरोश

१९९९ : भोपाल एक्सप्रेस

२००० : गजगामिनी

२००१ : मोक्ष



शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

मणि कौल : सिनेमा संसार की अप्रतिम उपलब्धि

25 DECEMBER 1944-6 JULY 2011
सिनेमा एक कला है। जीवन के विविध आयामों को पर्दे पर उकेरना निश्चित ही एक कठिन विधा है। जनमानस की कलात्मक अभिव्यक्ति सिनेमा को नया प्रारूप देती है। रंग देती है । जीवन देती है । कला के बहुरंगी रंगों में रंगकर अभिव्यक्तियां और भी मुखर हो उठती हैं। विविध सुरों-लयों-तालों में नाच-गाकर सिनेमाई छवियां तरंगित हो उठती हैं। पर्दे पर जीवन नये रूप में उभर आता है। कलात्मक फिल्में कला को सम्मान देने का नाम है। व्यवसायिक फिल्मों के समय में चमक-दमक और ग्लैमर से परे कला फिल्मों की सफलता एक चुनौती है। व्यवसायिक फिल्मों के साथ बदलती दर्शकों की पसंद के बीच जगह बनाना एक उपलब्धि है। ऐसी उपलब्धि और जगह महान निर्देशक ही बना पाते हैं। मणि कौल ऐसे ही महान निर्देशकों में थे जन्होंने कला और समानांतर फिल्मों की चुनौतियों को स्वीकारा ही नहीं जिया भी। विविध कला-प्रारूपों को सिनेमा में गूंथकर पर्दे पर ले आये। चित्रकला और मूर्तिकला के रंग भरे और गढ़े। संगीत, नृत्य, वाद्य-यंत्रों के साजो-सामान, सुर लहरियों, तालों-थपकियों को सिनेमा में नई जगह दिलाई। एकबहुआयामी सर्जकके रूप में मणि कौल ने जो कुछ दिया वह सिनेमा संसार की अप्रतिम उपलब्धि है।

भारतीय सिनेमा इतिहास के पुरोधाओं में शुमार ऋत्विक घटक के शिष्य और निर्देशक महेश कौल के भतीजे मणि कौल जटिल, वास्तविक और अद्वितीय सिनेमाई भाषा के विकास के लिए जाने गये। जोधपुर राजस्थान में जन्मे मणी कौल ने जयपुर युनिवर्सिटी तथा फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे से शिक्षा प्राप्त की। छोटी उम्र से ही सिनेमा की ओर रुझान रखने वाले मणि ने अपने करियर की शुरुआत छोटी-मोटी एक्टिंग असाइनमेंट्स और लघु फिल्मों के निर्देशन के साथ की। १९६९ में इन्होंने अपनी पहली फीचर फिल्म ‘उसकी रोटी’ बनाई, जिसे आज नये भारतीय सिनेमा आंदोलन के पथ-प्रदर्शक के तौर पर देखा जाता है। फिल्म की लघु वर्णनीय तथा प्रयोगात्मक शैली इसे भारतीय सिनेमा के स्थापित मूल्य से अलग करती है और इसने गम्भीर आलोचनात्मक समीक्षायें भी बटोरी। इस फिल्म को १९७० के सर्वश्रेष्ठ फिल्मफेयर क्रिटिक्स अवार्ड से सम्मानित किया गया।


कौल प्रयोगधर्मी निर्देशक थे और अपनी फिल्मों में हमेशा नई सम्भावनायें तथा उतकृष्टïतायें तलाशते रहते थे। ‘आषाढ़ का एक दिन’ (१९७१)तथा ‘दुविधा’(१९७३) इसी श्रेणी की फिल्में थी। ‘दुविधा’ ने मणी को १९७३ के सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी दिलाया। शास्त्रीय संगीत के राग ध्रुपद में मणी की गहरी अभिरुचि थी। इन्होंने डागर बंधुओं से इस राग की प्रेरणा भी ली। उनका वृत चित्र ‘ध्रुपद’ (१९८२) इस राग के स्पेसों और प्रकाश के विविध उपयोगों के संगीतमय आयाम को प्रदर्शित करता है। आगे चलकर नये निर्देशकों में भी मणी तथा ‘ध्रुपद’ के प्रति के विविध उपयोगों के संगीतमय आयाम को प्रदर्शित करता है। आगे चलकर नए निर्देशकों में भी मणी तथा ‘धु्रपद’ के प्रति विशेष अनुरक्ति देखी गई।

संगीत तथा कलाकारों के लिए लगाव कौल की फिल्मों में सहज ही नये निर्देशकों में भी मणी तथा ‘ध्रुपद’ के प्रति विशेष अनुशक्ति देखी गयी। लगाव कौल की फिल्मों में सहज ही दिख जाता है। सुप्रसिद्ध ठुमरी गायिका सिद्धेश्वरी देवी पर आघृत उनका फीचर ‘सिद्धेश्वरी’(१९८९) अपने तरह की अलग फिल्म है। फिल्म में सिद्धेश्वरी देवी के जीवन की विविध भाव भंगिमाओं, अवस्थाओं, पड़ावों तथा अलग फिल्म है। फिल्म में सिद्घेश्वरी देवी के जीवन की विविध भाव भंगमाओं, अवस्थाओं, पड़ावों तथा विशेषत: संगीत के माध्यमों द्वारा दर्शाया गया है। फिल्म देखकर ऐसा लगता है कि फिल्म ‘ठुमरी’ की ही संगीतमय लहरों की तरह सिद्धेश्वरी देवी की बानगी है। जिसमें संगीत तथा उनकी जीवनगाथा एकाकार-सी लगती है। इस फिल्म को (१९८९) का राष्ट्रीय कला फिल्म पुरस्कार मिला।

मणि की कला-मिमांसा संगीत तक ही सीमित नहीं रहती वरन् विभिन्न कला प्रारूपों को छूती हुई इनकी फिल्में में समाहित हैं। टेराकोटा मूर्तियों तथा परंपरा पर आघृत ‘मति मानस’ (१९८४) ने अपार प्रशंसा बटोरी। साथ ही मलिक मुहम्मद जायसी की एक कविता से अभिप्रेरित तथा संस्कृत साहित्य से ली गई एक प्रेम कहानी पर बनी फिल्म ‘द क्लाउड डोर’ ने भी विशिष्ट आलोचनात्मक समीक्षायें जुटाई। मणी कौल की आखिरी फीचर फिल्म विनोद कुमार शुक्ला लिखित ‘नौकर की कमीज’ (१९९८) रही। महान निर्देशक और कला प्रेमी मणी कौल की मृत्यु ६६ वर्ष की उम्र में ६ जुलाई, २०११ को हो गई। फीचर तथा डाक्यूमेंट्री दोनों ही तरह की फिल्में बनाने वाले मणि की फिल्मों में कला के विविध प्रारूप हमेशा मौजूद रहे। उनके वृत्तचित्रों तथा फीचरों की विभाजन रेखा भी काफी महीन होती थी। हमेशा उत्कृष्ट एवं कलात्मक फिल्में बनाने वाले कौल भारत में समानांतर फिल्मों के जनकों में शुमार नाम भर ही नहीं थे बल्कि एक महान सर्जक, गुरु, दोस्त और ईंसान भी थे। भारतीय सिनेमा को उनकी कमी हमेशा खलेगी। सचमुच कवि-कथाकार के उदय प्रकाश के शब्दों में- मणि कौल का जाना कला किरीÅ से एक मणि का कम हो जाना है।





गुरुवार, 9 जून 2011

जिंदगी की पुनर्रचना

                       चंद्रबली  सिंह
                            (20 अप्रैल,1924 -23 मई, 2011)



मोहक , निश्छल मुस्कान और सरलता। सहज और अच्छे इंसान। मार्क्सवादी आस्था। दृढ़। जड़ नहीं। माने चंद्रबली सिंह । चंद्रबली जी ने अपनी सहजता, सरलता और सादगी से कभी भी बड़प्पन या ऊँचाई का आभास नहीं होने दिया। वे अपने से छोटे को भी सम्मान देते थे . मित्रवत पेश आते थे. उनका होना सिर्फ बनारस , हिंदी और विचार की दुनिया के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं था , बल्कि मानवीय संवेदना के लिए भी आस्वस्तिदायक था. 
उन्हें गोष्ठियों में सुनना अद्भुत था. ज्ञान -विचार की अनगिनत बातें और बातों की सार्थकता हर किसी को सुख देती थी. उनसे बोलने -बतियाने में हिचक नहीं होती थी . दूरी नहीं लगाती थी.  उनके पास जाने के लिए बहुत सोचना -समझना नहीं पड़ता था . वे सचमुच सरल थे . चालक , शातिर और 'मुख में राम बगल में छुरी ' वाले नहीं थे. विचार उनके लिए 'पोलिटिकली करेक्ट' मुदा नहीं था.
समकालीन समाज, राजनीति, इतिहास, साहित्य और संस्कृति पर सचेत दृष्टि रखने वाले प्रगतिवादी समालोचक चंद्रबली सिंह अब हमारे बीच नहीं हैं। पिछले कई वर्षों से  वे मौत से जूझ रहे थे। लंबे समय से अस्वस्थ थे। बिस्तर पर थे। उनमे अद्भुत जिजीविषा शक्ति थी।  वाराणसी के विवेकानंद नगर स्थित अपने आवास में शारीरिक लाचारी के बावजूद साहित्य के व्यापक परिपेक्ष्य  से जुड़ी चर्चाओं में मशगूल रहते थे।
समाज से व्यक्ति का व व्यक्ति से समाज के परायेपन की भावना को कैसे खत्म किया जाये-कार्ल मार्क्स की चिंता को उन्होंने गहरे अर्थों में आत्मसात् किया। मार्क्सवादी दर्शन के प्रति अंत तक उनका विश्वास बना रहा। यहां तक विश्वास कि दुनिया से मार्क्सवाद खत्म हो जाए, तब भी कहंूगा कि मैं मार्क्सवादी हूँ। विचलन और विचार के अंत वाले उत्तर आधुनिक समय में वे संघर्षशील वैचारिकता के साथ अडिग खडे़ थे।  कहते थे तुलसीदास के जाके प्रिय न राम वैदेही  की तरह मेरी वैचारिक दृढ़ता और प्रबल होती जा रही है। 1982 में वे जनवादी लेखक संघ (जलेस) के महासचिव चुने गए। उसके बाद अध्यक्ष पद पर पन्द्रह साल तक अपनी भूमिका का बखूबी निर्वाह करते रहे। जनवादी लेखक  संघ के संस्थापक  महासचिव के रूप में लेखकों  को संगठित और जनता के पक्ष में गोलबंद करने की उनकी भूमिका थी। कलमपत्रिका के संपादक भी रहे। जीवनधर्मी विवेक और जनधर्मी आलोचकीय चेतना के लिए जाने -जाने वाले चंद्रबली जी मनुष्यता के मोर्चे पर भी महान थे। चंद्रबली जी जनपक्षधर आलोचक होने के साथ विश्व कविता के महत्वपूर्ण अनुवादक थे।
रामविलास शर्मा  के निधन के बाद उनकी बरसी पर याद करने के बहाने उनके पूरे अवदान को ही संदेह के घेरे में रखे जाने के आलोचना’- समय में उन्होंने कहा था - आज रामविलास जी पर चारों ओर से हमले हो रहे हैं। एक तरफ से दिखाया जा रहा है कि उनका सारा लेखन मार्क्सवाद विराधी रहा है । उनकी नियत में ही संदेह प्रकट किया गया है। तमाम लोग उन पर लिख रहे हैं और लोग सोच रहे हैं कि चंद्रबली चुप क्यों हैं । मैं जवाब दूंगा। काश! स्वास्थ्य उनका साथ देता।
 बाबरी विध्वंश पर उन्होंने कहा था कि स्वयं मनुष्यता ने ढ़ेर सारी हार-जीत देखी है। वह कहते थे कि वर्तमान के यथार्थ का अगर हमने सामना करना नहीं सीखा, तो हम भविष्य नहीं बना सकते।
वह कहते थे कि हमारा काम यह है कि कवियों में जो जनवादी तत्व देखें उसे हम विकसित करने की कोशिश करें और जो जनविरोधी हैं उनके खिलाफ आवाज उठायें। कुल्हे के ऑपरेशन तथा बीमारी के बावजूद उनकी जिजीविषा अशक्ता में भी बरकरार थी। मित्रवत पुत्र डा. प्रमोद कुमार सिंह बब्बू जी का बिछुड़ जाना  भी रचनात्मक सक्रियता और वैचारिक दृढ़ता से ही सह्य हो पाया। रामविलास जी ने चंद्रबली जी की पत्नी के निधन पर एक पत्र लिखा था कि तुमने निराशा और मृत्यु का मुंह देख लिया है। लेकिन पराजय तुम्हारे लिए नहीं हैं।’ (डा. शर्मा का पत्र)। उनकी सृजन क्षमता  व्यक्तिगत जीवन के तमाम झंझावतों के बावजूद उसी जीवन दृव्य  से सिंचित  थी जिसमें मानव जीवन की बहतरी की चिंता है। इसीलिए वह कहते थे कि लेखक  को जिंदगी की पुनर्रचना करनी चाहिए। उनकी जैसी सरलता-सहजता  अब दुर्लभ होती जा रही है। वे भौतिक रूप से हमारे बीच नहीं है लेकिन वे अपने किये-धरे में हमेशा जीवित रहेंगे। उनका जीवन और साहित्य हमारे लिए प्रकाश स्तंभ है। 



 

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

समालोचक चंद्रबली सिंह



हिन्दी के प्रगतिवादी समालोचक चंद्रबली सिंह 20 अप्रैल, 2011 को अपने जीवन-संघर्ष के 87 वर्ष पूरे


किये । उनके जैसे सहज-सरल सह्नद्य व्यक्तित्व की उपस्थिति सांस्कृतिक परिदृष्य के लिए भी विशेष महत्व की  है । समकालीन समाज, राजनीति, इतिहास, साहित्य और संस्कृति पर उनकी दृष्टि हमेशा सचेत, सक्रिय और संघर्षशील रही है। हिन्दी के प्रतिभाशाली समालोचक चंद्रबली सिंह मार्क्सवादी समाज-दर्शन की गहरी समझ रखने वाले बौद्विक अध्येता और व्याख्याकार हैं। समाज से व्यक्ति का व व्यक्ति से समाज के परायेपन की भावना को कैसे खत्म किया जाये - यह कार्ल मार्क्स की चिंता थी, इसे चंद्रबली जी ने गहरे अर्थो में आत्मसात किया है । चंद्रबली जी अपनी सहजता और सादगी से कभी भी बड़प्पन या ऊँचाई का अभास नहीं होने देते। 20 अप्रैल , 1924 को गाजीपुर के रानीपुर (ननिहाल) में जन्मे चंद्रबली सिंह की शिक्षा उदय प्रताप इण्टर कालेज तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में संपन्न हुई। सन् 1994 में अंग्रजी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने बलवन्त राजपूत कालिज (आगरा) और उदय प्रताप स्नातकोत्तर महाविद्यालय में चालीस वर्षो तक अध्यापन किया।



जीवनधर्मी विवेक और जनधर्मी आलोचकीय चेतना के लिए जाने-जाने वाले चंद्रबली जी की पहली पुस्तक 1956 में लोक दृष्टि और हिन्दी साहित्य (आलोचनात्मक निबंधों का संकलन ) प्रकाशित हुई। 46 साल बाद दूसरी पुस्तक आलोचना का जनपक्ष (2003) प्रकाशित हुई। नोबेल पुरस्कार विजता चिली के विश्वविख्यात कवि पाब्लो नेरुदा (1904-1974) के जन्मशती वर्ष में उनके द्वारा किया गया अनुवाद पाब्लो नेरुदा कविता संचयन साहित्य अकादमी से 2004 में छपकर आया। इस अनुवाद का व्यापक स्वागत हुआ। सिर्फ हिन्दी में ही नहीं , बल्कि भारतीय भाषाओं के प्रबुद्ध साहित्यिकों ने भी चंद्रबलीजी के इसे गंभीर प्रयास बताया। भारत में चीली के राजदूत जार्ज हेन ने भी हिन्दू में लिखे अपने पाब्लो नेरूदा विषयक लेख में चंद्रबलीजी की अनुवाद का जिक्र किया। चर्चित आलोचक डा. नामवर सिंह ने लिखा है कि ऐसे काव्यात्मक स्तबक के लिए हिन्दी जगत अपने व्रिष्ठ जनवादी समालोचक के प्रति कृतज्ञ रहेगा। पाब्लो नेरुदा के अलावे उन्होंने नाजिम हिकमत, वाल्ट ह्रिटमैन, एमिली डिकिन्सन, ब्रेख्त, मायकोव्सकी, राबर्ट फ्रास्ट जैसे विख्यात विशिष्ट कवियों का भी अनुवाद किया है। चर्चित कथाकार काशीनाथ सिंह कहते हैं आलोचना के समानांतर उनका अनुवाद कार्य अद्भुत है और जिनके अनुवाद किये हैं, वे एक तरह के कवि नहीं हैं। प्रायः मार्क्सवादी समीक्षक आपाठय, दुर्गम खूसट और सठियाये हुए गद्य लिखते हैं, इससे मास्टर साहब (चंद्रबली जी) की समीक्षा दूर है।


अपने शुरुआती लेखकीय जीवन से ही वे कवियों की कृतियों एवं विविध काव्य-धाराओं पर लिखते रहे हैं। चंद्रबली सिंह की आलोचकीय दृष्टि को प्रख्यात समालोचक (स्व.) रामविलास शर्मा बखूबी महत्व देते थे। डॉ शर्मा चाहते थे कि चंद्रबलीजी अपनी प्रतिभा का पर्याप्त लेखकीय- उपयोग करें। उन्होंने अपनी एक पुस्तक भी ...भूतपूर्व आलोचक चन्द्रबलीजी को समर्पित की... । इस आत्मीयता में अप्रतिम मेघा के रहते हुए चन्द्रबली द्वारा कम लिखने के प्रति एक शिकायती प्रोत्साहन छिपा है।
चन्द्रबली जी को भी यह पीड़ा तो है कि आलोचना की उनकी और किताबें होनी चाहिए थी .  ’भारत-भारती के सर्जक राष्ट़कवि मैथिलीशरण गुप्त (1886 - 1964) की रचऩाऒं एवं उनकी काव्य-दृष्टि तथा संवेदना को लेकर प्रगतिशील आलोचक अक्सरहां बेहद अनुदार रहे हैं। उन्हें पुनरुत्थनवादी और अंध हिन्दू राष्ट्रवादी के रूप में भी देखा जाता रहा है। चंद्रबली ही अपनी मौलिक दृष्टि से इसे नकारते हैं - गुप्त ही पुनरुत्थानवादी नहीं हैं - उनकी राष्ट्रीयता गांधी युग की राष्ट्रीयता है, जो धार्मिक पुट के बावजूद सांप्रदायिक वैमनस्य से मुक्त है, जिसमें वैष्णव उदारता है और जो देश के साथ-साथ सारी मानवता को प्यार कर सकती है। इस दृष्टि-संपन्त्रता के कारण ही उनका (चंद्रबली जी) समकालीन आलोचकों में एक अलग स्थान रहा है। रामविलास जी की तरह ही उन्होंने अपनी परंपरा का सावधान मुल्यांकन किया तथा पूरी जिम्मेदारी और दायित्व बोध से साहित्य समग्र में काम किया।
रामविलास शर्मा के निधन के बाद उनकी बरसी पर याद करने के बहाने उनके पूरे अवदान को ही संदेह के घेरे में रखे जाने के ’आलोचना’ समय में उन्हॉऩॆ कहा था - आज रामविलास जी पर चारों ओर से हमले हो रहे हैं। एक तरफ से दिखाया जा रहा है कि उनका सारा लेखन मार्क्सवाद विरोधी रहा है। ये कहने वाले ज्यादातर अपने को मार्क्सवादी कहते हैं। उनके नीयत में ही संदेह प्रकट किया गया। तमाम लोग उन पर लिख रहे हैं और लोग सोच रहे हैं कि चंद्रबली चुप क्यों हैं ? मै जवाब दूंग़ा।  उनका मानना है कि डा. शर्मा की बहुत सी मान्याताओं को मानें या न मानें लकिन व भारत में समाजवादी विचारो के लिए जीवन के अंतिम दिऩॊ तक संघर्ष कर रहे थे, इसके बारे में संदेह व्यक्त नहीं किया जा सकता। नवजागरण के नेताओं मे रामविलास जी का नाम सर्वप्रमुख रहेगा। ऐसा व्यक्ति ’रेनेसां’ काल में हुआ है कि एक ही व्यक्ति विविध क्षेत्रों में अपने व्यक्त्वि को फैलाया हुआ है। वे केवल (सीमित अर्थो में) साहित्यकार नहीं थे। ऐसा भी नहीं कि वह डा. शर्मा की सभी मान्यताओं से सहमत रहे हॉ ।

उन्होंने एक बेहद कड़ा असहमतिपरक-लेख रामविलास शर्मा पर लिखा है क्योंकि विचारो से कोई समझौता करना मैंने कभी नही सीखा। यह सही भी है क्योंकि अब तक का सर्वाधिक कडा सैद्वातिक असहमति वाला लेख चंद्रबली सिंह ने डॉ़ शर्मा पर ही लिखा है जो जनयुग (स़़. नामवर सिंह ) में तीन किस्तों में प्रकाशित हुआ था।

इस विचलन के दौर में वे संघर्षशील वैचारिकता के साथ अडिग खडे हैं। उनका मानना रहा है कि तुलसी दास के जाके प्रिय ना राम बैदेही की तरह मेरी वैचारिक दृढ़ता और प्रबल होती जा रही है। बाबरी विधवंश पर उन्होने कहा था स्वयं मनुष्यता ने सारी हार और जीत देखी है। वे कहते हैं कि वर्तमान के यथार्थ का अगर हमनें सामना करना नहीं सीखा तो हम भविष्य नही बना सकते। प्रगतिशील आलोचना के स्थापत्य मे उनके अवदान का जिक्र करते हुए वरिष्ठ समीक्षक मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने लिखा है कि - एक जमाना था जब रामविलास शर्मा के बाद उन्हीं का नाम लिया जाता था और उस जमाने के लोग आज भी यह बताते हैं कि सृजनात्मक साहित्य के मर्म को पकडने और कलात्मक संवेदना की व्याख्या का जैसा औजार उनके पास रहा है, वैसा उनके समकालीनों में किसी के पास नहीं रहा हैं। प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नकेनवाद, नयी कविता, मुक्तिबोध, नेमिच्रंद्र जैन, गिरिजा कुमार माथुर, अज्ञेय, नागार्जुन,त्रिलोचन आदि पर उनकी आलोचनात्मक टिप्पणियां, निबंध और संदर्भ इसकी पुष्टि करते हैं। उनकी राय है कि हमारा काम यह है कि कवियों में जो प्रगतिशील व जनवादी तत्व देखें उसे हम विकसित करने की कोशिश करें और जो जनविरोधी हैं उसके खिलाफ आवाज उठायें। उम्र के इस पडाव पर भी उनकी चिंताएं, उर्वर हैं। प्रेमचन्द की 125 वीं जयन्ती के निमित्त लमही (वाराणसी) में आयोजित मुख्य कार्यक्रम में उन्होंने संगोष्ठी की अध्यक्षता की थी । 6 नवम्बर, 2005 को गोदान को फिर से पढ़ते हुए..... अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी (वाराणसी में आयोजित) के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता की थी । कुल्हे के आपरेशन के तथा बीमारी के बावजूद उनकी जिजीविषा अभी अशक्तता में भी बरकरार है। मित्रवत पुत्र (स्व.) डा. प्रमोद कुमार सिंह (बब्बू जी) का एकाएक बिछुड़ जाना रचनात्मक सक्रियता से ही सहय हो पाया। रामविलास जी ने डेढ़ दशक पहले एक पत्र में लिखा भी था कि ’.... तुमने निराशा और मृत्यु का मुंह देख लिया है लेकिन पराजय तुम्हारे लिये नही है, धाराशाई होने पर भी नहीं है। .... (चंद्रबली जी की पत्नी के निधन पर डा. शर्मा का पत्र)। उनकी सृजन-क्षमता व्यक्तिगत जीवन के तमाम झंझावतों के बावजूद उसी जीवन द्रव्य से सिंचित है जिसमें मानव जीवन की बेहतरी की चिंता है । इसलिए वे कहते है लेखक को जिंदगी की पुनर्रचना करनी चाहिए। वाराणसी के विवेकानंद नगर स्थित अपने आवास में शारीरिक लाचारी के बावजूद साहित्य के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जुडी चर्चाऒं में मशगूल रहते हैं। साहित्य और विचार की चेतना और संवेदना में कोई कमी नहीं आयी है .  बिस्तर तक सिमटे रहने के बावजूद उनकी जिजीविषा में कमी नहीं आयी .  वॆ अपने समय के जीवित इतिहास हैं। उनके जैसी सरलता-सहजता अब दुर्लभ होती जा रही है । काश ! इस पुनर्रचना से सिक्त उनके अधूरे तथा अप्रकाशित काम पूरे हो जाते तो हिन्दी साहित्य की समृद्वि होती। उनका सहज-आत्मीय व्यक्तित्व और कृतित्व हमारे लिये प्रेरणास्रोत है।

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

प्रेम न बाड़ी उपजै

महारास की अद्भुत बेला है। राधा-कृष्ण के रमने की बेला। प्रेम बन जाने का लक्ष्य। प्रिया-प्रीतम दोनों लुटे हुये हैं। श्री कृष्ण राधा बन गये हैं। राधा श्रीकृष्ण हो गईं हैं। दोनों ही एक-दूसरे की प्रतिकृति हो गये हैं। चहुँ दिशा में बस राधा-कृष्ण हैं। कृष्ण राधा हैं। कृष्ण की बंसी और मोरपंख राधिका के काजल और केशपाश में गुंथी कली से एकाकार हो गये हैं। संपूर्ण सृष्टि एकाकार हो गई है। भारतीय परिवेश में प्रेम यही है। प्रेम राधाभाव है। कृष्णभाव है। महाभाव है। समष्टि चेतना है। लूट जाना है। वंचित हो जाना है। बेखुद हो जाना है। मिट जाना है। और अगर ज्ञानेन्द्रपति की कविता के भावो मंे कहे तो ’दुनिया की नजर में बर्बाद, पर दिल की दौलत से मालामाल’... हेा जाना है।




कबीर, तुलसी, सूरदास, मीराबाई और राधा-कृष्ण, रति-कामदेव, शकंुतला-दुष्यंत भारतीय प्रेम की परम अभिव्यक्ति हैं। पराकाष्ठा हैं। लैला-मजनंू, हीर-रांझा, शीरीं-फरहाद, सोहनी-महींवाल, सस्सी-पुन्नू, सारंगा-सदावृक्ष, नल-दमयन्ती...... जैसी लोकगाथाएँ आज भी प्रासंगिक हैं। प्रेम की गली संकरी गली है। प्रेम की राह नाजुक राह है।



सृष्टि के आरंभ से ही चली आ रही प्रेमभावना हर दिल में व्याप्त होती है। संपूर्ण जगत इस मधुर भाव से आसक्त है। देशों-विदेशों -महादेशों का इतिहास और साहित्य प्रेम-कथाओं से अटा पड़ा है। वैलेन्टाइंस डे ऐसी ही महान प्रेम अभिव्यक्ति को सम्मान देने का दिन है। वैलेंटाइंस डे अनछुए अहसासों, नाजुक पलों को सलाम करने का दिन है। प्रेम के पुरोधा संत वैलेंटाइन को याद करने का, उन्हें नमन करने का दिन है। संकरी गलियों और नाजुक राहों से गुजरता प्रेम आज ग्लोबलाइज्ड हो गया है। वैश्विक गांव में मॉडर्न हो गया है। आज प्यार मोबाइल फोनों में है, रेडियो में है, टेलिविजन में है। पोस्टरों, बैनरों, सिनेमा, इंटरनेट में है। ऑरकुट में है। फेसबुक मे है। बाजार में है। इसकी स्वीकृति और व्यापक हुई है। भारत में वैलेंटाइन डे प्रेम माह बसंत में आता है। हमारे समाजिक परिवेश में यह दिन घुलता जा रहा है। बसंतोत्सव हो गया है। प्यार मस्त हो गया है। बेबाक हो गया है। किसिंग, चैटिंग, डेटिंग हो गया है। वैलेंटाइन्स डे़ हो गया है। प्रेम माह का गुलाबी रंग लाल गुलाब की पंखुड़ियों में समाता है और इजहार-ए-मोहब्बत बन खिल जाता है। मौसम की चुहल टेडी-बियर के नटखटपने में घुल-मिल जाती है। प्रेम पगी फिजाओं की मिठास चॉकलेट-कैंडियों में समा गई है। ऋतुराज की खुमारी और नशा युवा दिलों को मदहोश किये देता है। कहना नहीं होगा कि प्रेम की- प्यार की वास्तविक मर्यादा ही मदहोश हो गई है। परिभाषा ही बदल गई है। उर्दू की तरह खुबसूरत प्यार नये सामयिक संस्करण के दौर से गुजर रहा है एकदम खुला। सबके सामने। कॉमन।लोकल। ग्लोबल। विरोधी लाख नाक-भौं सिकोडे़ं। मगर यह प्रेम की नई बानगी है। नाटक है। खेल है। आज के व्यस्त समय और जीवन के बेरंग और बेमानी हो जाने के बीच का स्पेस ही तो प्रेम नहीं बनता जा रहा ? कहीं प्रेम हमारी प्रगति और आजाद खयाली का पर्याय तो नहीं बन रहा ? क्या प्रेम एक अवसर है, आइडिया है, समारोह है ? नहीं! प्यार सिर्फ प्यार है। अलौकिक अनुभुति है। यह अनुभुति जीवन को जड़ता से उबारती है। प्राणीमात्र को देह की भौतिक सीमाओं से परे- पार ले जाती है। पं0 विद्यानिवास मिश्र के शब्दो में “यही मानुष जन्म की सार्थकता है कि पुरूष नारी के लिये या नारी पुरूष के लिये जब आकर्षण से खिंचकर आकांक्षा करें, यह केवल प्यार का प्रारंभ हो, यह स्नेह की वह पहली बूंद हो जो पानी से भरी थाली में गिरती है तो फैलते- फैलते थाली की बारी तक चली जाती है और थाली को कितना भी धोइए थाली को छोड़ने के लिये तैयार नहीं होती, कुछ न कुछ लगी ही रहती है उल्टे धोने वाले हाथ को स्नेहिल कर देती है“



वैलेंटाइन सप्ताह चल रहा है। प्रेम के नाम एक सप्ताह। एक सप्ताह जमीन से ऊपर चलने का। स्वयं को अनुभव करने का एक सप्ताह। गुलाबांे, चॉकलेटों, टेडी बियरों, लुभावने गिफ्ट्स, आकर्षक ऑफरों का महकता, गुनगुनाता, प्यार लुटाता, मिठास लुटाता सप्ताह। आकर्षण सहज मानवीय स्वभाव है। प्यार चिरस्थायी अनुभव। उत्साह और मौज की अभिव्यक्ति शीघ्रता, तत्परता और उत्तेजनाओं से बची रहे। जीवन की केसरी सुरभि पूर्ण विकसित हो जाए। मन की अभिव्यक्ति पवित्र अभिव्यक्ति बन जाए। मर्यादा का सीमोल्लंघन प्रेम का पतन है। प्रेम प्रतीकों का अपमान है। हुल्लड़बाजी, सस्ती-मस्ती, लंपटता प्रेम नहीं। प्रेम सुबास बिखेरे तो प्रेम है। प्रेम चाहना नहीं। न्योछावर हो जाना है। प्यार महज ऐन्द्रिक व्यापार न बन जाये। उपभोक्ता-संस्कृति की बलि न चढ़ जाये।



बसंत की शुरूआत है ठंढ की मारी, झुलसी, पीत पŸिायां झड़ रही हैं। पŸिायों के विरह से ठूंठ हुये पेड़ की तरह की हम आसक्त न हो जाएं। प्रेम पगी नयी पŸिायां हमारे प्यार को फिर से हरा कर देंगी। प्रेम को महसूसना जरूरी है। प्रेम परितृप्ति बनकर समस्त सृष्टि की प्यास बुझा रहा है। हमारे अंदर ऐसी परितृप्ति ऐसी प्यास उमड़े तो प्रेम है। वैलेंटाइन डे है। हर दिन है। हर पल है। हर क्षण है। प्रेम कलुषित न होने पाये। तभी संत वैलेंटाइन को सच्ची श्रच्दांजली है। यह सबका है, सबके लिए है और उल्लास से भरा है। इसे बदरंग और बाजारू बनने से बचाना है और बचना है।

                                                                       सविता पाण्डेय

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

हमारे ख्वाबों में खनकता घुँघरू :वैजयंती माला


भारतीय सिनेमा में वैजयंती माला नया इतिहास लेकर आती हैं। दक्षिण भारत का नमकीन पानी रग-रग में समाये वैजयंती माला नृत्य में थिरकते हुए पांव बंबई सिनेमा जगत में हौले-हौले रखती हैं और सिने-जगत उनके घुंघरुओं की आवाज से खनक उठता है। धीरे-धीरे यह खनक दर्शकों के बीच पहुंच जाती है। और दर्शक शास्त्रीय-नृत्य के मोहपाश में बंध-से जाते हैं। हमारे सामने और ख्‍वाबों में एक अकेला घुंघरू खनक उठता है। एक जोड़ी आँखों का नृत्यभरा अभिनय और दो थिरकते कदम हमारे अंदर नई ऊर्जा का संचार करने लगते हैं। यह नई ऊर्जा हमारा रोम-रोम कंपा देती है और हम नृत्य संग झूम उठते हैं। सिनेमा को लय-ताल संग पिरोकर चमकती आंखों से देखने लगते हैं। वैजयंतीमाला के नृत्य में सधे हुए पांव नई बानगी लिखते हैं। उनके नृत्य को ध्यान में रखकर स्क्रिप्‍ट लिखे जाने लगे और हम फिल्मों संग झूमने के आदी हो गए। इस तरह वैजयंती माला एक नई परंपरा रच डालती हैं।






कुशल अभिनेत्री और नृत्यांगना वैजयंती माला का जन्म मद्रास, तमिलनाडु में हुआ। दक्षिण से आकर बंबई फिल्म इंडस्ट्री में भाग्य चमकाने वाली पहली अभिनेत्रियों में ये एक हैं। वैजयंती माला ने अपने कॅरियर की शुरुआत निर्देशक एमवी रमन की तमिल फिल्म ‘वझकाई’ से की। हिंदी फिल्मों की शुरुआत 1951 में फिल्म ‘बहार’ से की। नंदलाल जसवंतलाल की फिल्म ‘नागिन’ ने उन्हें शीर्ष पर पहुंचा दिया। ‘मन डोले मेरा तन डोले...’ गाने में उनके सर्प-नृत्य ने जैसे एक इतिहास रच डाला। भरतनाट्यम की अपनी ट्रेनिंग का उपयोग वैजयंतीमाला ने अपनी लगभग सभी मुख्य फिल्मों में किया। जैसे-‘देवदास’, ‘न्यू देल्ही’ और ‘गंगा-जमुना’, जिनमें उनकी नृत्य प्रतिभा को ध्यान में रखकर ही स्क्रिप्‍ट लिखे गये। इस तरह फिल्मों में नृत्य को स्थान दिलाने की परंपरा हेमा मालिनी, जयाप्रदा और श्रीदेवी सरीखी अभिनेत्रियों ने आगे बढ़ाई और डांसर एक्ट्रेस में परिणत हो गईं।



दिलीप कुमार के साथ वैजयंती माला ने अद्भुत सफल ऑन-स्क्रीन जोड़ी बनाई और उनके साथ ‘नया दौर’, ‘गंगा-जमुना’ और ‘मधुमती’ जैसी हिट फिल्मों में दिखीं। इनकी अन्य सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में ‘ज्वेल थीफ’ और ‘संगम’ शामिल हैं। इन्होंने तीन बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार जीता। 1958 में ‘साधना’ के लिये 1961 में ‘गंगा-जमुना’ के लिये और 1964 में ‘संगम’ के लिये। बाद में वैजयंती माला राजनीति से जुड़ीं और 1984 में संसद सदस्य बनीं। 1995 में इन्हें लाइफटाइम अचिवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया गया। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘बॉन्डिंग-अ मेम्योर’ भी लिखी, जिसमें अपने बचपन से अब तक की तस्वीर उकेरी है। अभिनेत्री सह नृत्यांगना की निर्मित उनकी छवि अब नया कलेवर धारण कर चुकी है। यह छवि अब शास्त्रीय नृत्य से डिस्को थेक तक का सफर तय कर चुकी है।



आज अभिनेत्रियों का संगीत के सुरों में ताल मिलाना अवश्यंभावी सा है। वैजयंती माला नृत्य को इसी तरह सिनेमा की जान बना देती हैं। अभिनेत्रियां उनकी परंपरा को जीने लगती हैं। लेकिन, अप्सराओं के घुंघरुओं सी खनक हमारे ख्यालों में खनकती रहे और अभिनय आंखों के सामने नाचता रहे, ऐसा तो वैजयंती माला के नृत्य में सधे हुये पांव ही कर सकते हैं।



इनकी प्रमुख फिल्‍में 1951 में बहार, 1952 में अंजाम, 1953 में लड़की, 1954 में नागिन, 1955 में देवदास, 1956 में ताज, 1957 में नया दौर, 1958 में मधुमती, 1959 में पैगाम, 1961 में गंगा-यमुना, 1962 में रंगोली, 1964 में संगम, 1965 में नया कानून, 1966 में आम्रपाली, 1967 में ज्वेल थीफ, 1968 में साथी, 1969 में प्रिंस और 1970 में गंवार शामिल है.



शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

अभी तो वे जवान हैं .......

एक जनवरी काशीनाथ सिंह के जन्‍मदिन पर : काशीनाथ सिंह का लेखन गांव-जवार की बोली-वाणी से संचालित होता है। उनकी भाषा में जिंदगी और जिन्दादिली से भरे हुए भाव अनिवार्य रूप से मौजूद हैं। ग्लोबल दुनिया में उनकी भाषा ग्लोबल नहीं, गर्वीली है। वहां जीवन हू-ब-हू उसी रूप में मौजूद है जिसमें कि असल जीवन सांस लेता है। हंसी-मजाक, भदेसपन, व्यंग्य-विनोद, टिटकारी, चुहलपन, गाली-गलौज, खिलंदड़पन अंदाज से सराबोर भाषा को अगर असल रूप में न देखा जाए तो लगेगा कि अरे यह तो किशोरचित हरकतें हैं, जिसे बुढ़ापे में भी काशीनाथ अंजाम दे रहे हैं। पर यदि समय-समाज के बदलाव और अपने समय से जूझने और बूझने के उद्यम के रूप में देखेंगे तो लगेगा की अरे यही तो हम सोच रहे थे।





वह समय-संस्कृति को जीवन की आंख से आंकते हैं। उन्हें कबीर की तरह चिंता है कि ‘ठगवा नगरिया को लूट न ले जाए।’ ‘कौन ठगवा नगरिया लूटल हो’- में जो उन्होंने हमारी हंसी-खुशी को छीन लेने वाले, ईश्वर को गुलाम बनाने वाले, बाजार परोसने वालों को जीवन के नजरिये से चिन्हित किया है, वह अपने कथ्य और शिल्प में अद्भुत है। राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों ने इसका नाट्य मंचन भी किया है। जीवन की संस्कृति के रंग को वे बहुत ‘वैचारिकता की राजनीति’ में न जाकर उसी जीवन को उसके असल संदर्भ से देखते हैं। और तब लगने लगता है कि सिद्धांत में नहीं, बल्कि जनजीवन के व्यवहार में वे वैश्वीकरण, बाजार और बाजारूपन के खिलाफ हो-हल्ला बोलते हैं। अब यह भी कहा जाता है कि वैचारिकता उनके लिए बस किताबी मामला रह गया है। उनकी 60वीं वर्षगांठ पर प्रो. बलराज पांडे ने अपने गुरु को इस रूप में देखा था (उस कार्यक्रम में ‘प्रतिपक्ष’ नहीं था)- ‘जीयनपुर (काशीनाथ जी का गांव) की नागफनी के फल से निकला रसवाला लाल रंग अब सिर्फ पुस्तक तक ही सिमट कर रह गया है, व्यवहार जगत से उसका कोई रिश्ता शेष न रहा।’



काशीनाथ के लिए लिखना जीवन से अलग नहीं है (इसका मतलब यह नहीं कि दूसरों के लिए लिखना जीवन से अलग है)। गांव-गंवई और हमारे जीवन की आत्मा का अपहरण करने वाली डॉलर संस्कृति को वे ‘पूतना की गोद’ कहते हैं। ‘काशी का अस्सी’ के ‘संतों, असंतों और घोंघाबसंतों का अस्सी’ में ग्लोबलाइजेशन को जिस अंदाज में उनके पात्र ने समझाया है उसे सिर्फ बतकही या खाली दिमाग शैतान का समझना भारी भूल होगी। ...‘‘ है हमारी हैसियत एक बार भी अमेरिका जाने की? हमारा घर उनका घर है लेकिन उनका घर उन्हीं का घर है, हमारा-तुम्हारा नहीं। ... कल बनारस को चमकाएंगे, परसों दिल्ली को ठीक करेंगे, नरसों पूरे देश को ही गोद ले लेंगे और झुलाएंगे-खेलाएंगे अपनी गोदी में! यह बाद में पता चलेगा कि हम किसकी गोद में हैं- जसोदा मइया की कि पूतना की? ’’



चाहे वे लाई चना खा रहे हों या चूड़ा-मटर या चाय-पान पी-खा रहे हों, उनके लिए सबसे बड़ी बात है सहजता। उनसे बतियाने में ज्यादा ‘लहटम-पहटम’ नहीं करना पड़ता। हालांकि उनके वर्तमान और ‘भूत’ संगी-साथी के अनुभव इसके गवाही नहीं देते। काशी के जितने भी रंग और रूप हों, लेकिन उन्हें पढ़ते-सुनते हुए और थोड़ा बहुत बतियाते हुए यह लगा कि उनकी लेखनी की बतकही में जीवन से जूझना और बूझना अनिवार्य रूप से शामिल है। वहां बदलाव की ‘गदगदाहट’ और विकास की ‘खिलखिलाहट’ को जानने-बूझने की पहल है। उसे आम आदमी की जमीन पर उसकी मेहनत की कसौटी पर समझने की चाह है।



एक और बात जो उनमें खास है वह यह कि काशी के रंग चाहे जितना ‘पोलिटिकली करेक्ट’ हों, लेकिन वह काफी साफ है। वहां झोल-झाल नहीं है। (लेकिन उनके एक जीते-जागते पात्र की मानें तो वहां झोल-झाल के अलावा कुछ नहीं है!) अगर कहीं मुंहदेखी बात कर रहे हों, आशीर्वादी मुद्रा में हों या बचके निकल जाने वाले हों, सतर्की हों- काफी साफ और सचेत रंग हैं उनके! एक चीज जो इन सब के बावजूद खास है वह है उनका घनघोर साहस। उस साहस में कहीं से कटुता या उपद्रव नजर नहीं आता। बहुत शान्त, विनम्र और विचारणीय तथा स्पष्ट नजरिये के साथ वे बात रखते हैं।



याद है स्व. विद्यानिवास मिश्र की जयंती (14 जनवरी) पर उनके भाषण की। बहुत खुलकर पंडित जी से नामवर जी के दोस्ताना और परिवार की निकटता और पंडित जी के ‘जातिवाद’ (पंडित जी पर जातिवादी आरोप निराधार हैं ) को उन्होंने रखा और कहा कि पंडित जी का जो विचलन रहा उस पर बहस होनी चाहिए। उनके वैचारिक-रचनात्मक विकास क्रम को देखा जाना चाहिए। पंडित जी के आकाश को और ज्यादा खुला बहसतलब और गर्म रखनी चाहिए। काशी नाथ जी ‘परिस्पंद’ (विनिमि का निवास) में जब ये बोल रहे थे तो कहीं से उदण्‍ड और उपद्रवी या चोट पहुंचाने वाले नहीं दिखे, क्योंकि उनका सत्साहस सचमुच धरती पर था। पंडित जी के अवदानों को लेकर गंभीर था। यह अलग बात है कि कहने वाले यह भी चुपके से बोल पड़े कि क्या विद्यानिवास जी की उपस्थिति में भी काशीनाथ उतने ही सत्साहसी दिखते!



खैर कहने-समझने वाले तो जो कहना है कहेंगे ही। लेकिन काशीनाथ के लिए अस्सी, बनारस, जनजीवन और जनसंस्कृति, गंगा का मतलब है जिंदगी की गलियों में खुली आंखों और नंगे तलवे चलना। ‘...अरे भारतेन्दु, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, द्विवेदी ऐसा कौन है जिसे तंग मिजाज, संकीर्ण, दकियानूस, चक्करदार पथरीली गलियों ने भटकाने और भरमाने की कोशिश न की हो।’ और गंगा का उनके लिए मतलब है- अप्रतिहत गति, सतत प्रवाह, कलकल उच्छल जीवन, खुला आकाश, हवा, आवेग, प्रकाश, अछोर, अनंत विस्तार...। और अस्सी? तो भाई ‘जिसने अस्सी घाट का पानी पी लिया, उसके लिए दुनिया जहान का पानी खरा है।’ औघड़-संस्कृति की जायज-नाजायज औलादों की राष्‍ट्र भाषा से चुहेड़ों और चुडुक्कों का अड्ड़ा गुलजार रहता है। (साभार-सविनय काशीनाथ जी)



काशीनाथ जैसे चुहल, चिकोटी काटने वाले कुशल किस्सागो में बनारस की गलियां, मोहल्ले और मस्ती से भरी जीवन संस्कृति रची-बसी हई है। उनका गद्य भारतेन्दु की तरह ‘हँसमुख गद्य’ है। उनके गुरु विजय शंकर मल्ल ने भारतेन्दु के गद्य को हँसमुख कहा है। अपने गुरुओं के संस्मरण में भी काशीनाथ चुहल और चिकोटी काटने में परहेज नहीं करते, चाहे ‘वेज’ हो या ‘नॉनवेज।’ ‘‘गुरुदेव कौ अंग उर्फ बुढ़वा मंगल’’ को देख लिजिए- ‘‘मल्ल जी के बदन पर एक लम्बा भूरा कोट रहता था। यही भूरा कोट पहनकर सन् 48 में हिन्दी विभाग आए और यही पहने-पहने 81 में रिटायर हो गये।’’ चाहे डॉ. बच्चन सिंह हो या मल्ल जी या अन्य गुरु काशीनाथ ने सबसे रचना की जमीन पर बकझक एवं चुहल की है। और अपने संस्मरणों में वे गुरुओं को उसी अंदाज में बांचते हैं जैसे कॉलेज-हॉस्टल के लडक़े-लड़कियों की गॉसिप में गुरुगण चर्चा में रहते हैं।



इस मामले में वे अलग हैं कि कलम की जमीन पर वे ‘मैनेज’ नहीं होते। (चोप्प.. कौन कहता है!) ‘‘यह जरूर है कि तुम्हारे पास रायफल है लेकिन- मैं मुसकुराता हूं और अपनी जेब से एक कोरा पन्ना निकालता हूं- ‘मेरा मोर्चा यह है। यह कागज जिस पर मैं तुम-जैसों को तो क्या, अपने और अपनों को भी माफ करना नहीं जानता!’’ (अपना मोर्चा)। लेकिन अस्सी के धुरी के नागरिकों का यह भी आरोप है कि बहुचर्चित कृति ‘काशी का अस्सी’ को ही लें तो उन्होंने अस्सी को केन्द्र में रखकर बनारस और दुनिया के रंग को दिखाया है वह सिर्फ एक पक्ष है। अनेक ऐसे रंग हैं जिसे जान-बूझकर छोड़ या छेड़ दिया गया है। ‘हंस’, ‘कथादेश’, ‘तद्भव’ आदि पत्र-पत्रिकाओं में कथा रिपोर्ताज, संस्मरण, कहानी के रूप में अलग-अलग छपने वाली सामग्री को ‘आलोचकीय दबंगई’ (नामवरी) के कारण साहित्य अकादमी पुरस्कार आदि के लिए जान-बूझकर उपन्यास घोषित कर दिया गया। अब एक संत (पढ़े असंत) की मानें तो काशीनाथ की जगह अगर दूसरा ऐसा करता (जो कि करता ही नहीं) तो कब के साहित्य के घर से बहरिया दिया गया होता!



उनके जन्मदिन 01 जनवरी पर जो हो-हपड़, उत्सव बनारस के अस्सी के चाय दुकान में (धुरी बदलती रही है... कभी पप्पू के यहां तो कभी पोई के यहां..) होता है, चाय-पान, चूड़ा-मटर और ‘प्रसाद’ (दुनिया वाले नासमझी के कारण शायद इसे भांग कहते हैं) के साथ न जाने कहां-कहां से आकर लेखक और साहित्य प्रेमी काशीनाथ के सजीव पात्रों के साथ जन्मदिन मनाते हैं। अब यह कोई मायने नहीं रखता कि वे हैं या नहीं। बनारस से कभी-कभार उसी टैम उनके चल बसने के बाद भी लोग धूम-धाम से काशीनाथ की रचनात्मकता, विषय-संदर्भ और समझदारी-नासमझी की पड़ताल करते हैं। बहस, नोंक-झोंक, के ‘समीकणों’ चुहल, उलाहना, प्रशंसा और ‘मलाई-बरफ’ सब कुछ चलता है।



उनके घनघोर आलोचक, प्रशंसक, वंदक.. साहित्य प्रेमी, पात्र-कुपात्र, संत-असंत, घोंघावसंत सभी अपने लेखक के जन्म दिन को आशीर्वाद-शाप दे-दाकर सेलिब्रेट करते हैं। ‘वकील’ लेकर भी आते हैं, वकील माने ‘भंगाचार्य’ प्रो. चौथीराम यादव। उनकी उपस्थिति में भी किसी चीज की परवाह नहीं करते उनके पात्र। अब जैसे वकील (काशी के मुखर पात्र) विरेन्द्र श्रीवास्तव को ही लें- ‘‘हमहन के बातचीत-बतकही अउर गाली-गोन्हर को लिख-लाखकर काशीनाथ प्रसिद्घि का मजा मार रहे हैं और ‘रायल्टी’ बटोर रहे हैं। गुरु हमलोगों को क्या मिला?’’ ऐसे हैं काशी और काशी के पात्र। जीवन ग्लोबलाइजेशन के समीकरणों से नहीं चलता, सरोकारों की जमीन पर चलता है। जी!