सोमवार, 14 नवंबर 2011

एक जोड़ी पहाड़ी आंखों के लाल डोरे

                                                    08-09-1926---05-11-2011
 एक जोड़ी पहाड़ी आंखों के लाल डोरे और दो हाथों की थपकियों का सम्मोहन हमें खींच-सा लेता है। कहते हैं कि असम का जादू कभी खाली नहीं जाता! भूपेन दा की आवाज में ऐसी ही जादुई कशिश थी। उनके सुरों संग हमेशा ही कोई वाद्य बजता-सा लगता तुरही या कि बांसुरी या कि कोई धीमा शंखनाद का स्वर हमारे दिलों की हूक बन जाता था। एक कली दो पत्तियों का प्रदेश अपनी गरम सुगंध से छा जाता है। दादा का संगीत चाय की प्यालियों-सा घर-घर पहुंच जाता है। एकसफल जीवन कईयों को जीवट कर जाता है। उनके गीत जीवन के गीत हैं असमिया माटी के सौंदर्य से परिपूर्ण।

भूपेन दा नहीं हैं। वे अनन्त आकाश में विलीन हो गये। ‘दिल हूम-हूम करे’, गंगा और बिहू के गीतों में जो चिरजीवी-कालजयी दिलों को छू जाने वाली आवाज है, वह अब हमसे जुदा हो गई। हजारिका की मद्धिम-खनकती सम्मोहक आवाज तमाम आवाजों में हमेशा विलक्षणता का एहसास कराती रही हंै। उन्होंने आजीवन संगीत को जन-जन तक पहुंचाया वह भारतीय सांस्कृतिक पर्यावरण की एक बड़ी उपलब्धि है। उनके जैसे संगीत साधक की अनुपस्थिति ने हमें बेजार कर दिया है।

असम के सादिया में जन्मे हजारिका पर ‘होनहार विरवान के होत चीकने पात’ की उक्ति पूर्णत: चरितार्थ होती है। बचपन में ही अपना पहला गीत रचा और दस वर्ष की आयु में उसे गाया। यही नहीं १९३९ में १२ वर्ष की आयु में असमिया फिल्म ‘इंद्रमालती’ में अपनी विलक्षण प्रतिभा को दर्शाया। महामना पं. मदन मोहन मालवीय के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से १९४६ में राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर (एम.ए.) की उपाधि प्राप्त की। न्यूयार्क स्थित कोलम्बिया विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। अब जब वे नहीं हैं तो संगीत के रूप में उनकी दिल और दिमाग को जोश, जिन्दगी और सोच देती अनमोल स्वर कृतियां हैं जो हमें हमेशा जिन्दा रखेंगी। उनकी उपस्थिति संगीत की वह विलक्षण गौरवशाली उपस्थिति थी, जो जिन्दगी को नए-नए अर्थ देती है। संस्कृति पुरुष के जाने से लगता है हमारा मन और लगातार उनकी विलक्षणता से संपन्न धरती विरान हो गई। वह एक ऐसे अनमोल सर्जक जो रचना को ईश्वरीय मानते थे। वह खुद गीत लिखते थे, संगीतबद्ध करते थे और गाते थे। कविता, पत्रकारिता, गायन, फिल्म निर्माण आदि अनेक क्षेत्रों में हजारिका का अनूठा रचाव हमें सांस्कृतिक-बौद्धिक मजबूती प्रदान करता है। उन्हें सिर्फ असमिया ही नहीं बल्कि भारतीय मन-प्राण का विलक्षण दूत कहा जा सकता है।

‘गांधी टू हिटलर’ फिल्म में बापू के प्रिय भजन ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ में आवाज देने वाले हजारिका की शख्सियत जहां असमिया लोगों के दिलों में रची बसी थी वहीं उन्हें दक्षिण एशिया के सांस्कृतिक दूतों में से एक माना जाता है। जो उन्होंने संगीत के सुरों को एक विस्तृत आकाश दिया। वह हमारे सांस्कृतिक गौरव थे। जिनको देखने के लिए आम लोग उमड़ पड़ते थे। अखिल असम छात्र संघ ने उनकी प्रतिमा का उन्हीं से उद्घाटन कराया था। असम साहित्य सभा के भी अध्यक्ष रहे। यह सर्वविदित हैं असमिया जनता भूपेन हजारिका सहित साहित्य-कला के महान मनीषियों पर जान छिडक़ती है। भूपेन दा ऐसे ही रचनाकार थे जो असम और असम के पार पूरी दुनिया के संगीत प्रेमियों के लिए प्रिय थे। यह अलग बात है कि उन्हें बेतहासा चाहते हुए भी उनकी राजनीतिक आकांक्षा-महत्वाकांक्षा को जनता ने समर्थन नहीं दिया। राजनीति के विचलन और फिसलन के दौर में शायद जनता अपने प्रिय संगीतकार को किसी ‘धारा’ में नहीं बहने देना चाहती थी। वह सबके थे। वैचारिक साम्राज्यवाद के प्रवक्ताओं ने उन पर कड़े प्रहार किये। भूपेन दा ने भी जनता के फैसले को सम्वेदनशीलता से लेते हुए अपने को राजनीति से अलग कर लिया।

भूपेन हजारिका के न होने का एहसास हमें अब होगा जबकि वह हमसे भौतिक रूप से काफी दूर हो गये हैं। उनके शब्द, उनकी अनुगूंज बरकरार है। वह हमेशा-हमेशा हमें गौरवान्वित और अनुप्राणित करते रहेंगे। उनकी सृजनधर्मिता के आकाश में गौरव के क्षण भारतीयता को भी जीवन देते रहेंगे। भूपेन दा हमारी संस्कृति के अनमोल रतन के रूप में याद आते रहेंगे क्योंकि किसी भी देश, समाज और सभ्यता की सर्वोच्च तत्व है संस्कृति। उन्हें हमारी विनम्र श्रद्धांजलि। उनको प्रणाम।

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