मंगलवार, 1 नवंबर 2011

अद्भुत साहित्य शिल्पी

                                                 श्रीलाल शुक्ल

जीवन को हंसी-ठिठोली में उड़ा देने का माद्दा पाठकों को भी जिंदा कर जाता है। उनके जीवनानुभवों को अपनी दिनचर्यायों में आसानी से खोज निकाल सकते हैं। राग दरबारी, गोदान और मैला आंचल की तरह ही कालजयी कृति है। उनकी लेखनी से झरता विनोद-व्यंग्य आम जन - जीवन का ही हिस्सा है। हंसी-ठिठोली और चुटीलापन उनके जीवन और साहित्य दोनों में घुला-मिला सा था। कुछ भी थोपा हुआ सा नहीं लगता। घटनाएं हमारे बीच से ही उठा ली गई लगती हैं। सहज भाषा और हल्की-फुल्की घटनाएं वर्षों तक घुमड़-घुमडक़र हमें गुदगुदाती हैं। जीवन की विडम्बनाएं, विद्रुपताएं समय के यथार्थ को ही चित्रित करता है। और साहित्य समाज का दर्पण बनकर उभर जाता है। आजादी के बाद ग्रामीण जीवन के यथार्थ को जिस तरह से उन्होंने दर्ज किया है वह आज बेहद प्रासंगिक है। श्रीलाल शुक्ल को कई-कई बार पढक़र हम बार-बार जी सकते हैं।







श्रीलाल शुक्ल (३१ दिसम्बर, १९२५ २८ अक्टूबर, २०११) सृजन-संसार का एक बड़ा नाम थे। एक अनमोल रतन। अब हमारे बीच वे नहीं हैं तो साहित्य जगत में एक स्तब्धता है। सन्नाटा है . लगता है औचक वे चले गए हैं! उनके जाने से साहित्याकाश में जो खालीपन नजर आ रहा है वह आसानी से नहीं भरा जा सकता। और जब यह बात कही जा रही है तो यह कोई रस्मी बात नहीं है! श्रीलाल शुक्ल हमारे गौरव और स्वाभिमान थे। प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु के बाद भारतीय आंचलिक परिवेश-गांव-गिरान की व्यथा-कथा और विडंबनाबोध को उन्होंने यथार्थवादी संवेदना दी। अद्भुत कथाभाषा, शिल्प के मार्फत उन्होंने अवध के जीवन का यथार्थ चित्रण किया। व्यंग्य-विनोद के कुशल शिल्पी शुक्लजी ने अपनी रचनाओं में जीवन को जिस तरह से रचा है वह बिना तलवे को कष्टï दिये, जीवन की बारीकियों को समझे संभव नहीं है। राग दरबारी में आजादी के बाद भारतीय समाज-संस्कृति में व्याप्त भ्रष्टïाचार, पाखंड, चापलूसी, विसंगतियों पर जो प्रहार किया गया है वह कथ्य और शिल्प दोनों स्तर पर साहित्य के आकाश में मील का पत्थर है। १९६९-७० में इस अनुपम कृति को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। वहीं श्रीलाल शुक्ल की रचनाधर्मिता को सिर्फ हिंदी जगत में ही नहीं बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं एवं विश्व साहित्य में भी विशिष्टï दर्जा मिला। अनेक देशी-विदेशी भाषाओं में अनुदित यह कृति हिंदी साहित्य की श्रेष्ठ कृतियों में शुमार है। बार-बार पढ़ी जाने वाली कृति। साहित्य अकादमी, व्यास सम्मान और जीवन के अंतिम दिनों में अस्पताल के बिस्तर पर सर्वोच्च साहित्य पुरस्कार ज्ञानपीठ सहित उन्हें जीवन में अनेक सम्मान-पुरस्कार मिले। हर उम्र और पीढ़ी के पाठकों में राग दरबारी की लोकप्रियता रही। श्रीलाल शुक्ल की तमाम रंग की कृतियों में जो विद्रूप उभरता है वह दरअसल हमारे समाज का एक ऐसा कटु यथार्थ हैं जिससे आम जीवन का संघर्ष उभर कर आता है। आज के संदर्भ में जबकि भ्रष्टïाचार और व्यवस्था के रोग आम आदमी को दाल-रोटी और उनके हक-हकूक से महरूम कर रहे हैं श्रीलाल जी का वह विनोद, मीठे-तीखे व्यंग्य से सिक्त सटीक प्रहार प्रासंगिक है। जिस तरह से उन्होंने ग्रामीण जीवन की विसंगतियों को सहजता के साथ उद्घाटित किया है वह सूक्ष्म अवलोकन के विनियोग शक्ति का ही परिणाम है। ग्रामीण जीवन के यथार्थ को जिस तरह से शैली-शिल्प, कथ्य और भाषा के मार्फत वह रचते हैं वह अद्भुत है। उनकी रचना गुदगुदाती हैं, चिकोटी काटती है और अपनी सहजता में ही समय में हस्तक्षेप करती है।

वह एक विरले सर्जक थे। उनकी कृतियां हमारे साथ हैं और जब तक शब्द हैं तब तक वे कभी नहीं मरेंगे। वह हमारे बीच भौतिक रूप में नहीं हैं लेकिन कृतियों में जिंदा रहेंगे हमेशा-हमेशा। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि!

प्रमुख रचनाएं

सूनी घाटी का सूरज, अज्ञातवास, राग दरबारी, सीमाएं टूटती हैं, मकान, आदमी का जहर, पहला पड़ाव, विश्रामपुर का संत (उपन्यास), अंगद का पांव, यहां से वहां, उमरावनगर में कुछ दिन (व्यंग्य)।






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