मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

.‘...और प्राण’

खलनायक ‘खल’ छवि वाले नायक होते हैं। खलनायक ऊर्जा, उत्तेजना और भावावेग का समग्र होते हैं जो नायक को संघर्ष के लिए प्रेरित करते हैं। नायक को नायक बनाते हैं। खलनायक वह अंधेरी रात है, जिस पर विजय पाकर ही नायक चमकता है। विजय का प्रकाश । फिल्मों में खलनायकों का होना फिल्मों को एक नये हौसले से भर देता है। भारतीय सिनेमा में खलनायक दर्शकों का उत्साह, जोश-खरोश और छिपी भावनाओं की अभिव्यक्ति बनकर उभरते हैं। दर्शक नायक बन जाते हैं। ‘मार दो साले को....’, ‘और मारो.... और पीटो...’ जैसी आवाजों, सीटियों, तालियों के बीच दर्शक अपनी सीटों से खड़े हो-होकर हौसला आफजाई के क्रम में सिनेमाघर को हो-हल्ले से भर देते हैं । इस तरह खलनायक एक अदम्य वेग का संचार कर देते हैं। हारकर और पीटकर दर्शकों में विजय भाव भर देते हैं। कभी-कभी प्राण जैसे खलनायक सकारात्मक भूमिकाओं से खलनायक- नायक की नई छवि रच डालते हैं। 2010 में सीएनएन ने उन्हें एशिया के शीर्ष 25 सर्वकालिक अभिनेताओँ में रखा । 'विल्लैन ऑफ़ दी मिल्लेन्नियम ' ...प्राण सबके चहेते रहे हैं । 90 ' पार प्राण हिंदी सिनेमा के लिजेंड हैं ।



प्राण साहब! यह फिल्म इण्डस्ट्री द्वारा उन्हें दिया गया सम्मान का नाम है। उनकी प्रभावी कला से आकर्षित लोग अपने बच्चों का नाम प्राण रखने लगे। उनका पसंदीदा शब्द ‘बरख़ुरदार’ लोगों की जुबान पर छा गया। प्राण साहब ने हिंदी फिल्म इण्डस्ट्री में छह दशक लंबा कॅरियर तय किया और ‘विलेन ऑफ द मिलेनियम’ से नवाजे गये। ‘हलाकू’ (1956), ‘जिस देश में गंगा बहती है’ (1960), ‘विक्टोरिया नं. 203’ (1972), ‘उपकार’ (1967), ‘पूरब और पश्चिम’, ‘जंजीर’ (1973), ‘अमर अकबर एंथनी’ (1977), और ‘डॉन’ (1978) जैसी यादगार फिल्में कर प्राण चाहनेवालों के जहन में बस गये।


हिंदी सिनेमा के सर्वाधिक मशहूर खलनायकों में एक प्राण कृष्ण सिकंद अपनी स्थिर आवाज, संकरी आंखों और हाव-भाव के विविधतापूर्ण प्रदर्शन के दम पर हिंदी सिनेमा के परिदृश्य पर छा गये। इनका जन्म एक संपन्न सिविल कॉन्टै्रक्टर के घर दिल्ली में हुआ। पिता का स्थानांतरण कई जगहों पर होता रहता था। इसी क्रम में प्राण ने अपना मैट्रिकुलेशन मेरठ से पूरा किया और फिर लाहौर में एक फोटो स्टूडियो के मैनेजर की तरह काम करने लगे। फिल्म लेखक मोहम्मद वाली के साथ उनकी एक आकस्मिक मुलाकात ने प्राण को पंजाबी फिल्म ‘यमला जाट’ (1940) में एक भूमिका निभाने का अवसर दिया। इसके बाद ‘चौधरी और खजांची’ जैसी फिल्मों ने इन्हें अजीत और के.एन.सिंह की तरह खलनायक की पहचान दिलाई। निर्माता दलसुख पंचोली ने ‘खानदान’ में नूरजहां के साथ मुख्य भूमिका दी।


फिल्म की सफलता ने प्राण को स्टार बना दिया। ‘खानदान’ की सफलता के बाद मिली हीरो की भूमिकाओं को इन्होंने अस्वीकार कर दिया, क्योंकि एक हीरो की तरह नाचने-गाने में असहज महसूस करते थे। 1947 में देश विभाजन के बाद प्राण बंबई चले आये। लाहौर में स्टार छवि के बावजूद भारतीय फिल्म राजधानी में काम ढ़ूंढऩे में नाकामयाब हो रहे थे कि लेखक सद्दात हसन मंटो और अभिनेता श्याम की मदद से बॉम्बे टॉकिज की फिल्म ‘जिद्दी’ में रोल मिल गया। फिल्म सफल रही। ‘गृहस्थी’, ‘अपराधी’ और ‘बड़ी बहन’ लगातार सफल फिल्में रहीं। अगले दो दशकों तक अपनी ब्लॉक बस्टर फिल्मों के साथ प्राण छाये रहे। जिनमें शामिल हैं- ‘आजाद’, ‘मधुमती’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’ तथा ‘राम और श्याम’।


अपनी भूमिकाओं में पेशेवर प्राण अपने कॉस्ट्यूम और मेक-अप का खास ध्यान रखते थे। अपनी हर फिल्म में विविध चरित्रों को रचते प्राण की हर फिल्म दिलकश अदाकारी से भरी होती। 1960 के पूर्व वर्षों में इन्होंने व्यंग्यात्मक खलनायकी का सूत्रपात ‘हाफ टिकट’ और ‘कश्मीर की कली’ जैसी फिल्मों से किया। मनोज कुमार की ‘उपकार’ में मलंग बाबा के रोल से इन्होंने नाटकीय छवियों संग अपनी प्रतिभा का जलवा बिखेरा। इस तरह की उनकी नई छवि वाली अन्य सफल फिल्में ‘जंजीर’, ‘कसौटी’ और ‘विक्टोरिया नं. 203’ रहीं।


प्राण की बायोग्राफी के नामित शब्द हैं ‘.....और प्राण’। यह इसलिये क्योंकि उनकी अधिकतर फिल्मों में कास्टिंग में उनका नाम ‘....और प्राण’ या कभी-कभी ‘‘...सबसे ऊपर प्राण’’ जैसे शब्दों में होता था। यह फिल्मकारों का उन्हें क्रे डिट और सम्मान देने का तरीका था। प्राण साहब का स्टाइलिस्ट अंदाज और विविध आयामों वाली उनकी छवि उन्हें औरों से अलग बनाती है। सकारात्मक सोंच वाले खलनायकों की उनकी भूमिका ने नई छवियां गढ़ी। 1970 के दशक में उनका कॅरियर अपने चरम पर था। फिल्म ‘डॉन’ में प्राण को अमिताभ बच्चन से कहीं अधिक पैसे मिले थे।
प्राण को उनकी बेहतरीन अदायगी के लिए कई पुरस्कार सम्मान मिले, जिनमें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए तीन फिल्म फेयर पुरस्कार सहित नागरिक सम्मान ‘पद्म भूषण’ भी शामिल है।
अमिताभ बच्चन ने बहुत सही कहा है कि 'चाहे तकनीक बदल जाएं, सिनेमा बदल सकता है, लेकिन प्राण हमेशा सिनेमा में योगदान के लिए याद किए जाते रहेंगे, प्रेरणा देते रहेंगे।' जी हाँ प्राण होने का यही मतलब है ।

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह : कहाँ तुम चले गए

                          

08  फरवरी 1941 --  10  अक्टूबर  2011                        


‘ये दौलत भी ले लो, शोहरत भी ले लो....वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी’ , ‘तुमको देखा तो ये ख्याल आया...जिंदगी धूप तुम घना साया’...‘होश वालों को खबर है ...जिंदगी क्या चीज है..’ इन्हें कौन नहीं गुनगुनाता होगा। उन्हें कौन नहीं जानता होगा! उनके गज़ल, गीत और भजन को कौन नहीं सुनता और गुनता है...! हमारे यौवन की पहली मदमस्त शाम को ही उनकी आवाज फिजा में तैर गई। हम अभी प्यार में डूबने ही वाले थे कि मद्धिम मधुर स्वर गुनगुनाने को आतुर हो उठे। सुंदर शब्द । मोहब्बत और जिंदगी के अनेक रंग । जीवन के सुनहरे रंग -- अचानक ही चंद पंक्तियों में अपना अक्स तलासने लगे। बचपन से लेकर बुढ़ा जाने तक में जीवन के असल मायने तलाशने लगे। हमें जब-तब गुनगुनाने लगे। कोमल, स्निग्ध और खनकती आवाज के कायल हो गए। गजलों के शौकीन हो गए। उनके ‘फैन’ हो गए। ऐसा ही होता है। जगजीत इसी तरह दिलों में उतरते हैं। गहरे दर्द और असीम खुशियों में हमारे अंदर गाते रहते हैं। हां, हमने जगजीत सिंह को देखा है। उन्हें सुना है। गुलाबी बचपन की हमारी यादों में जगजीत हैं। उनकी दिलकश आवाज केसरिया सुबहों के साथ ईश्वर को नमन है। शामें उनकी मखमली आवाज में विदाई का संगीत है। चाहने वाले इसी तरह भोर से राततलक उनकी आशिकी में डूबे रहते हैं। उनकी गजलें नशा बन छा जाती हैं। तभी तो सुनते हैं हम उन्हें अल्हड़ उम्र के पहले प्यार के साथ भी और मोहब्बत में मात खाने के बाद भी। प्यार और इश्क की गहनतम अनुभूति में भी उनकी आवाज कभी वासना नहीं बनती। अलौलिक बन जाती है। इसी तरह नासूर बनकर उभरता दर्द भी, हमें जिंदा ही कर जाता है। मोहब्बत को वह असीम अर्थ देते हैं।


राजस्थान के श्रीगंगानगर में जन्मे जगमोहन का बचपन चार बहनों और दो भाईयों के भरे-पूरे परिवार में बीता। ज्योतिषी की सलाह पर जगमोहन जगजीत बन गए। घर पर सिर्फ ‘जीत’ ही थे। पिता सरदार अमर सिंह धीमान जहां सरकारी नौकरी में थे, वहीं मां बचन कौर घर-गृहस्थी में संभालने वाली धार्मिक महिला थीं। पिता जगजीत को प्रशासनिक अधिकारी बनाना चाहते थे। श्रीगंगानगर में जगजीत ने पंडित छगनलाल शर्मा से संगीत की प्रारंभिक शिक्षा ली। इसके बाद कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से इतिहास में एम. ए. किया। संगीत के सुरों में पूरी तरह रम चुके जगजीत की सुर -साधना को पिता का समर्थन भी मिला। उन्होंने पूरे छह साल तक सैनिया घराने के उस्ताद जमाल खां से ख्याल, ठुमरी और ध्रुपद की तालीम लेकर संगीत -साधना में रत हो गए। एक गज़ल गायक, म्यूजिक कम्पोजर , गीतकार, निर्देशक की भूमिका में वे जन-जन में लोकप्रिय रहे। गज़ल की दुनिया को उन्होंने एक बड़ा आकार दिया। आम आदमी से लेकर बौद्धिक वर्ग सभी तक गज़ल को लोकप्रिय बनाने में उनका महान योगदान है। ‘गजल सम्राट’ जगजीत सिंह गजल के पर्याय बन गए । सभी मानते-जानते हैं कि गजल  को दरबारों और बड़े लोगों की महफि़लों से निकाल कर सामान्य जन के बीच लोकप्रिय बनाने वालों जगजीत अग्रगण्य रहे।

जगजीत सिंह ने हिंदी, पंजाबी, उर्दू, बांग्ला, गुजराती, सिंधी और नेपाली आदि भाषा में ग़ज़ल, गीत और भजन , शास्त्रीय और लोक संगीत गाया है। ‘प्रेमगीत’ (१९८१), ‘अर्थ’ और साथ-साथ (१९८२) फिल्मों में एक संगीतकार और गायक के रूप में उनके संगीत ने असीम लोकप्रियता हासिल की। फिल्मकार महेश भट्ट स्वीकारते हैं कि ‘जगजीत के योगदान के बिना मेरी फिल्म ‘अर्थ’ करोड़ों लोगों के दिलों को छू नहीं पाती। दुश्मन, सरफरोश, तुम बिन और तरकीब जैसी फिल्मों में उनकी गज़़लें सबको भा गईं। उनके एलबम सभी उम्र के श्रोताओं-दर्शकों में छा गए। ‘अनफोरगेटेबल’, ‘फेस टू फेस’,‘क्राय फॉर क्राय’,‘सहर’, ‘मंतजिर’, ‘मरासिम’ और ‘सोच’ जैसे एलबमों की धूम मची। सभी सुनते हैं इन्हें। अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं को संगीतबद्ध करके ‘नई दिशा’ (१९९९) और ‘संवेदना’ (२००२) जारी किए। सुर सम्राज्ञी लता मंगेशकर के साथ ‘सजदा’ एलबम कम्पोज़ किया। उन्होंने ‘मिर्जा गालिब’ तथा ‘कहंकंसा’ जैसे टी. वी. धारावाहिकों की संगीत रचना की। उनके भक्ति संग्रह ‘मां, हरे कृष्णा, हे राम’ और ‘मन जीते जग जीते’ आदि भी खूब लोकप्रिय हुए। जगजीत सिंह सालों तक अपने पत्नी चित्रा सिंह के साथ जोड़ी बना कर गाते रहे। दोनों पति पत्नी ने मिल कर कई बेमिसाल प्रस्तुतियां दीं । 1990 में एक हादसे इस पुत्र विवेक को खो दिया। चित्रा (दत्त) सिंह इस हादसे से कभी नहीं उबर पाईं और उन्होंने गाना बंद कर दिया। जगजीत-चित्रा ने आखिरी संयुक्त एल्बम ‘समवन समवेयर’ पेश किया उसके बाद से जगजीत केवल अकेले गा रहे थे।

जगजीत सिंह उन कुछ चुनिंदा लोगों में से एक रहे जिन्होंने प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (१८५७) की १५० वीं वर्ष गांठ के अवसर पर संसद सदस्यों और राष्ट्रपति , प्रधानमंत्री एवं अन्य प्रमुख श्रोताओं की उपस्थिति में जगजीत सिंह ने बहादुर शाह जफर की रचना ‘लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में’... प्रस्तुत किया।

महान शायर मिर्जा गालिब के सृजन को लोकप्रिय बनाने में उनके उल्लेखनीय योगदानों के लिए १९९८ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पद्म भूषण, संगीत नाटक अकादमी, लता मंगेशकर सम्मान सहित देश-दुनिया के अनेक पुरस्कार-सम्मान उन्हें मिले। लेकिन सबसे बड़ा सम्मान जनता का प्यार रहा जिससे वह व्यक्तिगत जीवन के दुख-दर्द को सह सके। संगीत सृजन ने उन्हें दुखों से पार जाने की शक्ति दी।

जगजीत सिंह उन संस्कारों में रचे-बसे शख्स थे जिन्हें कागज की कश्ती और बारिश के पानी के साथ-साथ बचपन की यादों में अक्सर गुरुजन और यार दोस्त याद आते हैं। फुरसत के लमहों में की गई शरारतें और अनेक बातें जेहन में आती हैं। कहते हैं सृजन और रचना नष्ट नहीं होती। शब्द कभी मरते नहीं। आवाजें अखिल ब्रहमांड में सदैव गूंजती रहती हैं। जगजीत जैसे सर्जक कभी नहीं मरते। वे भौतिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं लेकिन ग़ज़ल, गीत और भजन में गूंजते रहेंगे हमेशा-हमेशा... हिन्दुस्तानी गज़ल गायकी में जगजीत सिंह के योगदानों को भुलाया नहीं जा सकता।