सोमवार, 14 नवंबर 2011

...एक मेरा पक्ष नि:सन्देह




अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे।


तोडऩे ही होंगे मठ और गढ़ सब।


पहुंचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार।

हिन्दी कविता के विशिष्ट कवि गजानन माधव मुक्तिबोध (१३ नवम्बर १९१७-११ सितम्बर १९६४) की ये पंक्तियां इसलिए भी आज मौजूं हैं कि अभिव्यक्ति पर सवाल हैं और सवाल उठाने वाले संदिग्ध हो जाते हैं, करार दे दिये जाते हैं। उन पर दिग्विजयी प्रहार होता है । सवाल उठाते ही धरपकड़ की कार्रवाई -कार्यवाही शुरू हो जाती है । हर समय में अभिव्यक्ति के खतरे इन्हीं परिस्थितियों में मनीषियों और समाज शिल्पियों ने उठाया है। कबीर भी सैंकड़ों साल पहले पंडे-पुरोहितों की धार्मिक नगरी काशी (वाराणसी) में पाखंड, दोमुंहापन और सत्ता-संस्कृति के विरुद्घ अभिव्यक्ति के खतरे को सत्साहस के साथ उठा रहे थे। यहीं नहीं कबीर से भी हजारों साल पहले नहीं सुनने के बावजूद सुनाये जाने की बात महाभारतकार व्यास जी कर रहे थे। वह उस समय के हिसाब से अभिव्यक्ति के खतरे के समान ही था। सच को बयां करना था । महाभारतकार कहते हैं कि ‘मैं हाथ उठा-उठा के कहता हूं किन्तु मेरी कोई सुनता नहीं। धर्म के रास्ते पर चलकर अर्थ और काम का निपटारा क्यों नहीं किया जाता।’ सनद रहे उस समय भी जब समय काफी (आज की तुलना में) सात्विक और सकारात्मक था। उस समय भी एक कवि मनीषी की चिन्ता के केन्द्र में यह था कि अर्थ और काम का निपटारा धर्म के रास्ते पर चलकर नहीं किया जा रहा है!

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि धर्म सिर्फ धार्मिक अर्थों से सिक्त नहीं है। नैतिकता, ईमानदारी, सद्मार्ग, उत्तरदायित्वबोध वह मूल्य हैं जिनके रास्ते ही व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का कल्याण हो सकता है। आज के संदर्भ में देखें तो हम समाज, संस्कृति और राष्ट्र के लिए अपनी प्रतिभा का कितना सदुपयोग कर रहे हैं इसे लिया जा सकता है। तिहाड़ की शोभा बढ़ा रहे तमाम माननीय हों या समर्थ और शक्तिशाली लोग हों उनकी वर्तमान दशा का सबसे बड़ा कारण तो यही है न कि उन्होंने धर्म और नैतिकता तथा मानवीय मूल्यों का ध्यान नहीं रखा। इसका परिणाम यह है कि वह जिस चीज के लिए अधर्म यानी भ्रष्टाचार, अनैतिकता या उत्तरदायित्वहीनता का सुख ले रहे थे, वह भी उन्हें नहीं मिला!

तो चाहे व्यास हों, ऋग्वैदिक ऋषि हों या फिर कबीर, रैदास, तुलसी.....भारतेन्दु, प्रेमचन्द.. सभी अपने-अपने समय में अभिव्यक्ति के खतरे उठाकर जनमूल्यों को, समय के यथार्थ को सचेत अभिव्यक्ति दे रहे थे। वह एक प्रतिरोध भी था और एक हस्तक्षेप भी। कहन अलग-अलग शैली-शिल्प में थे। हम जिन मुक्तिबोध की बात कर रहे थे वह भी अपनी कविताओं के माध्यम से अपने समय की बेचैनी को ही जीवन और अर्थ दे रहे थे। दो सौ से अधिक रची उनकी कविताएं कवि -आलोचक और मुक्तिबोध को नजदीक से बांचने वाले अशोक वाजपेयी के शब्दों में- ‘हमें खबरदार करती हैं जिससे हम अपनी भागीदारी को ठीक से समझ-बूझ सकें।’ आधुनिक हिन्दी साहित्य और काव्यालोचना को गहरे अर्थों में प्रभावित करने वाले मुक्तिबोध का जीवन और रचना एक-दूसरे में पूरी तरह समाहित हो गया है। अनेक संकटों और दुरभिसंधियों से जूझने-टकराने के बावजूद वह अभिव्यक्ति के खतरे उठाते हैं। प्रसिद्घि, पुरस्कार और बौद्घिक छद्म से दूर मुक्तिबोध हमें इसलिए प्रेरित करते हैं कि वह ‘भूल-गलती’ को भी जीवन के सरोकारों से सिक्त करते हैं। एक प्रखर बुद्घीजीवी और दार्शनिक दृंिष्टï वाले सर्जक के रूप में वे चाहे ‘ब्रह्मïराक्षस’ लिख रहे हों या ‘अंधेरे में’ , ‘भूल गलती ’ या फिर ‘मुझे पुकारती हुई पुकार’ ...वह गहरे नैतिक बोध से ही हमें अनुप्राणित करते हैं। अपने समय की बेचैनी को, यथार्थ को जो उन्होंने रचा आगे चलकर भारतीय सामाजिक प्रयोगशाला में समाज ने सच ठहराया। वह विश्वामित्र की तरह ‘नई सर्जना’ करते हैं। नये भारत की तलाश करते हैं। मनुष्यता की पहचान करने वाले मुक्तिबोध दरअसल स्वार्थी, फ्राड, अमानवीय, सुविधाजीवी-सुविधाभोगी सौन्दर्यबोधि व्यवस्था प्रतिमान को ध्वस्त करते हैं और जीवन की असल सुन्दरता का नया प्रतिमान रचते हैं। वे ‘असंख्यक इत्यादि-जनों’ (ईटीसी) की बात करते हैं, उनकी ओर से बात करते हैं तभी तो उनका भी एक पक्ष होता है-‘धरती के विकासी द्वन्द्व क्रम में, एक मेरा पक्ष नि:सन्देह’। सही भी है कि ऋग्वैदिक ऋषियों, व्यास, कबीर और अन्य अनेक मनीषियों की तरह हर कवि का, सर्जक का एक पक्ष होता है। वह निष्पक्ष इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि जीवन की पक्षधरता जरूरी है। ऐसे समय में जबकि झूठों पर एक बड़ी आबादी को पोसा जाता है। उन्हें नून-तेल-लकड़ी यानी जरूरी जीवन की जरूरतों से वंचित कर दिया जाता है ऐसे समय में निष्पक्षता अमूर्त नहीं हो सकती। एक ईमानदार बुद्घिजीवी, लेखक, पत्रकार, संस्कृति कर्मी, सामाजिक कार्यकर्ता ‘चुनी हुई चुप्पियों’ का हिस्सदार नहीं हो सकता।
विचार आते हैं’ शीर्षक कविता की पंक्तियां हैं- विचार आते हैं-/ लिखते समय नहीं/ बोझ ढोते वक्त पीठ पर/...विचार आते हैं/ लिखते समय नहीं /...पत्थर ढोते वक्त... / पीठ पर उठाते वक्त बोझ... पीठ कच्छप बन जाते हैं/समय पृथ्वी बन जाता है।

एक जोड़ी पहाड़ी आंखों के लाल डोरे

                                                    08-09-1926---05-11-2011
 एक जोड़ी पहाड़ी आंखों के लाल डोरे और दो हाथों की थपकियों का सम्मोहन हमें खींच-सा लेता है। कहते हैं कि असम का जादू कभी खाली नहीं जाता! भूपेन दा की आवाज में ऐसी ही जादुई कशिश थी। उनके सुरों संग हमेशा ही कोई वाद्य बजता-सा लगता तुरही या कि बांसुरी या कि कोई धीमा शंखनाद का स्वर हमारे दिलों की हूक बन जाता था। एक कली दो पत्तियों का प्रदेश अपनी गरम सुगंध से छा जाता है। दादा का संगीत चाय की प्यालियों-सा घर-घर पहुंच जाता है। एकसफल जीवन कईयों को जीवट कर जाता है। उनके गीत जीवन के गीत हैं असमिया माटी के सौंदर्य से परिपूर्ण।

भूपेन दा नहीं हैं। वे अनन्त आकाश में विलीन हो गये। ‘दिल हूम-हूम करे’, गंगा और बिहू के गीतों में जो चिरजीवी-कालजयी दिलों को छू जाने वाली आवाज है, वह अब हमसे जुदा हो गई। हजारिका की मद्धिम-खनकती सम्मोहक आवाज तमाम आवाजों में हमेशा विलक्षणता का एहसास कराती रही हंै। उन्होंने आजीवन संगीत को जन-जन तक पहुंचाया वह भारतीय सांस्कृतिक पर्यावरण की एक बड़ी उपलब्धि है। उनके जैसे संगीत साधक की अनुपस्थिति ने हमें बेजार कर दिया है।

असम के सादिया में जन्मे हजारिका पर ‘होनहार विरवान के होत चीकने पात’ की उक्ति पूर्णत: चरितार्थ होती है। बचपन में ही अपना पहला गीत रचा और दस वर्ष की आयु में उसे गाया। यही नहीं १९३९ में १२ वर्ष की आयु में असमिया फिल्म ‘इंद्रमालती’ में अपनी विलक्षण प्रतिभा को दर्शाया। महामना पं. मदन मोहन मालवीय के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से १९४६ में राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर (एम.ए.) की उपाधि प्राप्त की। न्यूयार्क स्थित कोलम्बिया विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। अब जब वे नहीं हैं तो संगीत के रूप में उनकी दिल और दिमाग को जोश, जिन्दगी और सोच देती अनमोल स्वर कृतियां हैं जो हमें हमेशा जिन्दा रखेंगी। उनकी उपस्थिति संगीत की वह विलक्षण गौरवशाली उपस्थिति थी, जो जिन्दगी को नए-नए अर्थ देती है। संस्कृति पुरुष के जाने से लगता है हमारा मन और लगातार उनकी विलक्षणता से संपन्न धरती विरान हो गई। वह एक ऐसे अनमोल सर्जक जो रचना को ईश्वरीय मानते थे। वह खुद गीत लिखते थे, संगीतबद्ध करते थे और गाते थे। कविता, पत्रकारिता, गायन, फिल्म निर्माण आदि अनेक क्षेत्रों में हजारिका का अनूठा रचाव हमें सांस्कृतिक-बौद्धिक मजबूती प्रदान करता है। उन्हें सिर्फ असमिया ही नहीं बल्कि भारतीय मन-प्राण का विलक्षण दूत कहा जा सकता है।

‘गांधी टू हिटलर’ फिल्म में बापू के प्रिय भजन ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ में आवाज देने वाले हजारिका की शख्सियत जहां असमिया लोगों के दिलों में रची बसी थी वहीं उन्हें दक्षिण एशिया के सांस्कृतिक दूतों में से एक माना जाता है। जो उन्होंने संगीत के सुरों को एक विस्तृत आकाश दिया। वह हमारे सांस्कृतिक गौरव थे। जिनको देखने के लिए आम लोग उमड़ पड़ते थे। अखिल असम छात्र संघ ने उनकी प्रतिमा का उन्हीं से उद्घाटन कराया था। असम साहित्य सभा के भी अध्यक्ष रहे। यह सर्वविदित हैं असमिया जनता भूपेन हजारिका सहित साहित्य-कला के महान मनीषियों पर जान छिडक़ती है। भूपेन दा ऐसे ही रचनाकार थे जो असम और असम के पार पूरी दुनिया के संगीत प्रेमियों के लिए प्रिय थे। यह अलग बात है कि उन्हें बेतहासा चाहते हुए भी उनकी राजनीतिक आकांक्षा-महत्वाकांक्षा को जनता ने समर्थन नहीं दिया। राजनीति के विचलन और फिसलन के दौर में शायद जनता अपने प्रिय संगीतकार को किसी ‘धारा’ में नहीं बहने देना चाहती थी। वह सबके थे। वैचारिक साम्राज्यवाद के प्रवक्ताओं ने उन पर कड़े प्रहार किये। भूपेन दा ने भी जनता के फैसले को सम्वेदनशीलता से लेते हुए अपने को राजनीति से अलग कर लिया।

भूपेन हजारिका के न होने का एहसास हमें अब होगा जबकि वह हमसे भौतिक रूप से काफी दूर हो गये हैं। उनके शब्द, उनकी अनुगूंज बरकरार है। वह हमेशा-हमेशा हमें गौरवान्वित और अनुप्राणित करते रहेंगे। उनकी सृजनधर्मिता के आकाश में गौरव के क्षण भारतीयता को भी जीवन देते रहेंगे। भूपेन दा हमारी संस्कृति के अनमोल रतन के रूप में याद आते रहेंगे क्योंकि किसी भी देश, समाज और सभ्यता की सर्वोच्च तत्व है संस्कृति। उन्हें हमारी विनम्र श्रद्धांजलि। उनको प्रणाम।

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

रंगमंच, सिनेमा, पृथ्वीराज




३ नवम्बर जन्म दिवस पर


 भारतीय सिनेमा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर पृथ्वीराज कपूर ने भारतीय सिनेमा या कहें मंच कला को बहुत बड़ा योगदान दिया। विधिवत रूप से भारत की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा (१९३१)’ से अभिनय की शुरुआत करने वाले पृथ्वीराज कपूर ने अपना पूरा जीवन रंगमंच और सिनेमा को समर्पित कर दिया। रंगमंच और सिनेमा के क्षेत्र में उनके महान अवदान हैं। कला को जीवन मानकर जीनेवाले पृथ्वीराज के महत्व को जानने के लिए उनकी संघर्ष- साधना और ललक को देखना होगा । आज हम उन्हें क्यों याद करें यह जानने के लिए उस ललक को , जीवन के लय और समर्पण को समझना होगा ।

                                     हिंदी फिल्म इण्डस्ट्री में लगातार पाँच पीढी तक काम करने वाला अकेला परिवार । हिंदी सिनेमा के साथ इस परिवार का जुड़ाव बिशेश्वर नाथ कपूर के साथ होता है,जो पृथ्वीराज कपूर के पिता थे,उन्होंने अपना नाम बिशेश्वर मल से बदल कर बिशेश्वर नाथ रखा था। इसी तरह पृथ्वी ने इसकी जगह राज का प्रयोग किया। यह राज अगले जेनेरेशन तक चला बलबीर राय बाद में राज कपूर और शमशेर राज बाद में शम्मी कपूर। बिशेश्वर नाथ ने ‘आवारा’ फिल्म में एक छोटी सी भूमिका निभाई थी। पृथ्वीराज कपूर से लेकर अब करिश्मा और करीना तक इस खानदान का काम जारी है। आज कपूर परिवार की पांचवी पीढ़ी हिन्दी सिनेमा की दुनिया में सक्रिय है।

उसकी आँखों में ढेर सारे सपने थे। अभिनय के जीवंत सपने। कला के प्रति अगाध आकर्षण समेटे पेशावर के एक पुलिस सब इंस्पेक्टर दीवान बशेश्वरनाथ कपूर का बेटा अपनी कला को मायने देने बंबई आया। पिता चाहते थे कि बेटा कानून की पढ़ाई करे। मगर लाहौर के लॉ कॉलेज में दाखिला लेने वाले कलाकार की नियति को कुछ और ही मंजूर था। वे पहले वर्ष में ही फेल हो गये। मातृ स्वरूपा बुआ से ७५ रुपये लेकर बंबई की धरती पर कदम रखा। संघर्ष से जूझते कलाकार ने जानी-मानी फिल्म पत्रिका ‘फिल्म इंडिया’ के संपादक की टिप्पणी पढ़ी- ‘उन पठानों के लिये यहां कोई जगह नहीं जो यह समझते हैं कि वे यहां अभिनेता बन जायेंगे’। तब पठानों के सशक्त व्यक्तित्व को कला-क्षेत्र में संजीदगी से नहीं लिया जाता था। ३ नवंबर, १९०६ को पेशावर में जन्में पृथ्वीराज कपूर को यह बात गवारा नहीं हुई। असली पठान ने जवाब दिया - ‘‘बाबूराव, इस पठान को चुनौती मत दो। यदि मेरे लिये भारतीय फिल्मों में कोई जगह नहीं है तो मैं सात समंदर पार करके हॉलीवुड जाऊंगा और वहां जाकर अभिनेता बनूंगा।’’ ग्रीक नायकों की सी कद-काठी वाले इस अभिनेता ने पीछे मुडक़र नहीं देखा और भारतीय सिनेमा के इतिहास में दर्ज नाम बन गया। रोबीली अवाजा, बेजोड़ संवाद अदायगी और अद्भुत अभिनय के दम पर पृथ्वीराज कपूर ने कला को नई ऊंचाईयाँ दीं। पृथ्वीराजकपूर के लिए कला का एक बड़ा अर्थ है। जो जीवन से घुलमिल गया है- ‘‘मेरे लिए कला एक तड़प है, स्पन्दन है, जीवन है। मैं चाहता हूँ कि कला जनजीवन का दर्पण बने, जिसमें लोग खुद को देख सकें, सँवार सकें, सुन्दर बन सकें, उन्नति कर सकें। सच्ची कला वह है, जो जीवन को सही मायने में चित्रित करे।’’ पृथ्वीराज कपूर की ये पंक्तियां उनकी कला प्रतिबद्धता की एक बानगी है। अमिट जिजीविषा की बानगी है ।

अभिनय उनका जीवन था। कॉलेज के दिनों से ही नाटकों में हिस्सा लेते रहे। ‘राइडर्स टू दी सी’ नामक नाटक में नोरा नामक लडक़ी का इतना प्रभावी अभिनय की कि लोग दंग रहे गये। स्त्री ओर पुरूष दोनों ही किरदारों में ढल जाते पृथ्वीराज ने कालेज के दिनों में ही अभिनय का तकनीकी बारीकियों सीख लीं। सब कुछ ऊपर वाले बंबई आकर पर छोड़ते हुए इम्पीरियल स्टूडियों में बतौर ‘एक्सट्रा’ कलाकार के रूप में काम शुरू किया। ‘चैलेंच वेडिंग नाइट’ और ‘दाँवपेंच’ सरीखी कई मूक फिल्मों में छोटी-छोटी भूमिकायें कीं। सधी आवाज और रंगमंच से जुड़े अनुभवों ने लोगों में उनके प्रति आकर्षण भरा। उन्होंने कई मूक फिल्मों में काम किया। एक्सट्रा से हीरों बनने का मौका अचानक और औचक ही आ गया। ‘सिनेमा गर्ल’ का हीरो निर्देशक बीपी मिश्र की कसौटी पर खरा नहीं उतर पा रहा था। उस दिन सेट पर बैठे एक्सट्रा कलाकारों की ओर इशारा कर नायिका अर्मेलिन से कहा-‘इन लडक़ों में से जिसे पसंद करेगी उसे ही हीरो बना देंगे।’ अर्मेलिन ने पृथ्वीराज की ओर इशारा कर दिया और पृथ्वी हीरो बन गये। बीपी मिश्रा को इनकी अदायगी पसंद आयी। फिल्म भी चल निकली और पृथ्वीराज कपूर की किस्मत का सितारा चमक उठा। उन्हें फिल्में मिलने लगीं। पारिश्रमिक की रकम भी बढ़ती गई। १९३१ में भारत की पहली सवाक फिल्म ‘आलम आरा’ में इन्होंने नायिका के पिता का रोल निभाया। ‘राजरानी मीरा’ (१९३३) ‘सीता’ (१९३४), ‘जोशेवतन’ (१९३५),‘मंजिल’ (१९३८), ‘विद्यापति’ (१९३८), जैसी कई महत्वपूर्ण फिल्मों में दिखे। इन फिल्मों ने उनकी अलग पहचान की गढ़ डाली। ‘मुगल-ए-आजम’ तो उनके लिए मील का पत्थर साबित हुईं। फिल्मों में बढ़ती शोहरत और शान के बावजूद भी रंगमंच के प्रति पृथ्वीराज की ललक बनी रही । नाटकों के प्रति उनकी प्यास कभी बुझी नहीं । सिनेमा में बढ़ती लोकप्रियता के साथ ही रंगमंच की दुनिया से अलग नहीं हुए । रंगमंच के प्रति लगाव और बंचैनी की तुष्टिï के लिए उन्होंने १५ जनवरी १९४४ को पृथ्वी थिएटर की स्थापना की । ९ मार्च १९४५ को बंबई के रॉयल ऑपेरा में मंचित शकुंतला नाटक की खूब चर्चा हुई । इस नाटक में नायिका का संवाद ‘‘ जब देश जागते हैं तो उन्हें तलवारों की लोरियों से नहीं सुलाया जा सकता । कौमों के बलबले तलवारों की धारें भी कुंद नहीं कर सकती । ताकत की चक्की में सचाई नहीं पीसी जा सकती ’’ सहित इसी सरीखे संवादों ने विदेशी शासन को छलनी कर दिया। प्रदर्शन रोके जाने लगे । धमकियां दी जाने लगी । मगर पृथ्वी नहीं माने । पांच दशकों के भीतर की सर्वक्षेष्ठ नाटï्य कृति को देख सरदार वल्लभ भाई पटेल की आखों से आंसू बह निकले। इसे बेटे राजकपूर ने पिता को दिखाया और कहा ‘देखिये पापा पत्थर रो रहा है। ’ सिकंदर (१९४१), शालीमार(१९४२), आंख की शर्म (१९४३) जैसी फिल्में और दीवार, पठान, गन्धार जैसे नाटक सामानान्तर चल रहे थे। सोहराब मोदी की फिल्म सिंकदर (1941) में उन्होंने महत्वपूर्ण अदाकारी की। ‘मुगल-ए-आजम’ के शहंशाह के रूप में उनका अभिनय कितना जीवंत था। पृथ्वी थियेटर (1944) की स्थापना कर उन्होंने रंगमंच को महान योगदान दिया। उन्हें १९५४ में संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप, १९६९ में पद्मभूषण और १९७१ में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। आठ वर्षों तक वे राज्य सभा के सदस्य रहे। 29 मई 1972 को वे इस दुनिया से विदा हो गये। वह हमारे लिए प्रेरक बने रहेंगे ।
                                                                              --- सविता पांडेय

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

जन-स्वास्थ्य के संदर्भ में स्वास्थ्य प्रोन्नति और रोगों की रोकथाम में आयुष की भूमिका


पिछले २०-30 वर्षों में योग , आयुर्वेद , प्राकृतिक चिकित्सा को लेकर बहस- मुबाहिसे होते रहे हैं . प्रासंगिकता और महत्व पर शक -सुबहा भी होता रहा है . लेकिन बिना पर्याप्त शोध किये खारिज करने की प्रवृति कहा तक सही है ! लेकिन शोध -अनुसन्धान बताते हैं कि इन चीजों का अत्यंत महत्व है .
आयुर्वेद विश्व का प्राचीनतम जीवन-स्वास्थ्य एवं चिकित्सा शास्त्र है। इसकी उत्पत्ति वेदों से है। आयुर्वेद आयु का विज्ञान है। जीवन का विज्ञान । जीवन की रचना और आयुष का विज्ञान । शरीर-इन्द्रिय-सत्त्व-आत्मा के संयोग को आयु कहते हैं- शरीरेन्द्रिय सत्वात्म संयोगो धरि जीवितम्। आयुर्वेद नित्य एवं शाश्वत है -शाश्वतोअयं आयुर्वेद:। कतिपय आचार्यों ने आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद कहा है। कई आचार्य आयुर्वेद को पंचम वेद मानते हैं। आयुर्वेदीय संहिताओं में वैदिक विचार से सर्वथा भिन्न अनेक विचार तथा सिद्धान्त हैं। आयुर्वेद के मूलभूत त्रिदोष सिद्धान्त अर्थात् वात-पित्त-कफ की अवधारणा मौलिक अवधारणा है जिसका वैदिक वांग्मय में उल्लेख नहीं मिलता। आयुर्वेदीय संहिता काल तक तथा तदनन्तर आयुर्वेद क्रमश: विकसित होता एक संपूर्ण स्वास्थ्य व चिकित्सा विज्ञाान का स्वरूप धारण करता गया। आयुर्वेद, योग, प्राकृतिक चिकित्सा सहित वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों की गुणवत्ता व समृद्ध परंपरा पर प्रस्तुत है दो दिवसीय कांफ्रेंस की डॉ. सरताज अहमद की एक रिपोर्ट -

डॉ.सरताज अहमद

                                             इंडियन एसोसिएशन ऑफ प्रिवेन्टिव सोशल एंड मेडिसिन की उ.प्र-उत्तराखंड स्टेट चैप्टर की १४ वीं वार्षिक कांफे्रंस का दो दिवसीय आयोजन बीते १४-१५ अक्टूबर स्वामी विवेकानंद सुभारती विश्वविद्यालय के मेडिकल कॉलिज के कम्युनिटी मेडिसिन विभाग के तत्वावधान में संपन्न हुआ।
जन-स्वास्थ्य के संदर्भ में स्वास्थ्य प्रोन्नति और रोगों की रोकथाम में आयुष की भूमिका विषयक कंाफे्रंस का उद्देश्य आधुनिक एवं परंपरागत चिकित्सा प्रणाली पर हुए शोध कार्यों का ज्ञान अर्जन करने की सतत प्रक्रिया को सुदृढ़ बनाने तथा योग-आयुर्वेद का आधुनिक चिकित्सा पद्धति में परस्पर सामंजस्य होने की जानकारी प्राप्त करना था। कांफे्रंस में राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विशेषज्ञों एवं विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों के चिकित्सकों ने स्वास्थ्य लाभ पाने के महत्वपूर्ण तथ्यों पर सुचिंतित विमर्श किया।



उद्घाटन वक्तव्य में मुख्य अतिथि एसवीवाईएएसए विश्वविद्यालय बंगलुरू के कुलपति डॉ. एच. आर. नगेन्द्रा ने कहा कि बीमारियों के बढऩे का कारण ग्लोबल वार्मिंग, सामाजिक परिस्थितियां और जीवन-शैली में हो रहे परिवर्तन हैं। फलस्वरूप श्वसन रोग, हृदय रोग, कैंसर, उच्च रक्तचाप, मोटापा और मधुमेह जैसे रोग तेजी से बढ़ रहे हैं। ऐसी स्थिति में केवल एलौपैथी पर निर्भर रहना उचित नहीं। जरूरत है लोगों को निरोगी बनाने के लिए उपलब्ध सभी मान्यता प्राप्त चिकित्सा प्रणालियों का सहयोग लिया जाए। विदेशों में भी भारतीय चिकित्सा पद्धतियों का प्रचलन और महत्व बढ़ा है।

विशिष्ट अतिथि मणिपाल विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रसिद्ध विद्वान डॉ. बी. एम. हेगड़े ने अपने रोचक और सुचिंतित व्याख्यान में कहा कि विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों द्वारा रोगों का निवारण करने हेतु सभी चिकित्सा प्रणालियों को एक मंच पर लाने की जरूरत है। उनका कहना था कि हालांकि मेडिकल पाठयक्रमों में व्यापक परिवर्तन हो रहे हैं किन्तु रोगियों को संपूर्ण चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने के लिए आयुर्वेद, योग, युनानी और होम्योपैथी को साथ लेकर चलना होगा। नेशनल इंस्टिट्यूट हैल्थ एंड फैमली वेलफेयर, नई दिल्ली के डॉ. देवकी नंदन का कहना था कि मन के अंदर जो शत्रु हैं उस पर काबू करना है . उसको प्रार्थना करें कि हम सकारत्मक सोच से आगे बढें , आरोग्य की ओर बढें . इस ओर गुणात्मक शोध की जरुरत पर उन्होंने बल दिया . कुपोषण, संक्रमण, प्रदूषण और उन्मुक्त जीवन शैली से सामाजिक विकास में अवरोध उत्पन्न होता है, जिसके फलस्वरूप स्वस्थ जनजीवन के लिए चिकित्सा दिए जाने के क्षेत्र में जटिल समस्याएं आती हैं। उन्होंने रोगों के निदान के लिए दवाओं से अधिक जीवन शैली में परिवर्तन लाने, संतुलित आहार लेने, व्यायाम करने, स्वच्छता द्वारा संक्रामक रोगों की रोकथाम करने और प्रदूषण रहित जीवन को अपनाने पर जोर दिया। सुभारती विश्वविद्यालय मेडिकल कॉलिज के प्राचार्य डॉ. ए .के. अस्थाना ने कहा कि आयुर्वेद संपूर्ण चिकित्सा पद्धति है जिसमें मन-मस्तिष्क और आत्मा के संबंधों पर बल दिया गया है ।
सुभारती इंस्टीट्यूशन की संस्थापक एवं मेडिसिन की वरिष्ठ प्रोफेसर डॉ. मुक्ति भटनागर ने उद्घाटन समारोह में शिरकत करते हुए कहा कि मेरे जैसे मेडिसिन के अध्येता के लिए यह सुकूनदायक है कि पारंपरिक और वैकल्पिक चिकित्सा विज्ञान से जुड़े प्रख्यात विद्वानों के चिकित्सकीय हस्तक्ष्ेाप वाले विचारों को सुनने को मिल रहा है । यह सही है परस्पर अंतर्संवाद से चिकित्सा क्षेत्र में उन्नति होगी ।
पतंजलि योगपीठ, हरिद्वार के शोध निर्देशक डॉ. शेरली टेलिस का कहना था कि योग भारत की परम्परा में है। वैज्ञानिक रूप से हुए शोध कार्यों से स्पष्ट हुआ है कि योग का अपना विशेष महत्व है। इसके द्वारा सरल और जटिल रोगों को पूरी तरह से मिटाया जा सकता है। योग के प्रति सामाजिक जागरूकता और इसके प्रामाणिक सिद्धांतों को वर्णित करते हुए उनका मानना था कि प्रचलित चिकित्सा व्यवस्था में योग को शामिल किया जाना चाहिए।
पतंजलि योगपीठ के डॉ. नगेन्द्र नीरज ने कहा कि योग और आयुष द्वारा रोगों के निदान करने पर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सहमति की मोहर लग चुकी है। योगासन शरीर को स्वस्थ, लचीला, निरोग और चुस्त-दुरुस्त रखने वाली वैज्ञानिक पद्धति है। जिसका हितकारी प्रभाव शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। कांफे्रंस के अध्यक्ष प्रो.डॉ. राहुल बंसल ने आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा के महत्व और उपयोगिता को सविस्तार रेखांकित करते हुए कहा कि हमारा शरीर मन, मस्तिष्क और आत्मा के सामजंस्य और शुद्धि के सिद्धान्त पर आधारित है। योग विद्या सकारात्मक सोच और आरोग्य जीवन का मार्ग प्रशस्त करती है। आयुर्वेद ज्ञान का महासागर है जिसमें दैविक, भौतिक और अध्यात्मिक विषयों से सम्बंधित मानव जीवन के अनेक पहलुओं पर दार्शनिक, सैद्धान्तिक, नैतिक और पूर्ण स्वास्थ्य दिए जाने का विवरण है।
कांफ्रेंस के विभिन्न वैज्ञानिक सत्रों में आयुर्वेद एवं पब्लिक हैल्थ विषय पर विशेषज्ञों ने विचार व्यक्त किए।
के.जी.एम.यू. लखनऊ के प्रो. डॉ. वी.के. श्रीवास्तव, इंस्टीट्यूट ऑफ आयुर्वेद एंड इंटिग्रेटेड मेडिसिन के स्वास्थ्य निदेशक डॉ. जी.सी. गंगाधर, आयुर्वेद कॉलिज ऑफ हाडिया, इलाहाबाद के प्राचार्य डॉ. जी सी तोमर, के.एच.एच.सी. नई दिल्ली की डॉ. कटोच ने आयुर्वेद की उपयोगिता को विस्तार से बताया। विशेषज्ञों ने गंभीर रोगों के निदान के लिए आयुर्वेद अपनाने की अपील की। देहरादून की प्रो. डॉ. सुरेखा किशोर, सी.सी. आर.वाई.एन. नई दिल्ली के उपनिदेशक डॉ. राजीव रस्तोगी, शोध अधिकारी डॉ. एच. एस. वेदराज, डॉ. वी.पी. वेकेटेश्वर राव ने जन-स्वास्थ्य के लिए नैचरोपैथी के सकारात्मक प्रभाव पर अपने विचार प्रस्तुत किए। वक्ताओं का कहना था कि आयुष की भूमिका को जनस्वास्थ्य से जोडऩे और रोगों को मिटाने में नैचरोपैथी का महत्व है।
इनके अतिरिक्त अन्य अनेक महत्वपूर्ण बिंदुओं पर भी विशेषज्ञों ने अपनी राय दी। नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हैल्थ एंड फैमली वेलफेयर, नई दिल्ली की प्रो. डॉ. मधुलेखा भट्टाचार्य, मौलाना आजाद मेडिकल कालिज, नई दिल्ली की डॉ. एस. अनुराधा, लाला लाजपत राय मेडिकल कॅालिज, मेरठ के डॉ. हरवंश चोपड़ा ने एच.आई.वी. एड्स पर अपना व्याख्यान दिया। मुजफ्फरनगर मेडिकल कॉलिज के प्रो. डॉ. जी.वी.सिंह, एम.बी.आई. किट चेन्नई के निदेशक डॉ. डी. चन्द्रशेखर, एम्स नई दिल्ली के डॉ. उमेश कपिल ने कुपोषण की कमी के कारणों एवं निवारणों पर प्रकाश डाला। कॉलिज मैनेजमेंट हैल्थ ऑफ अरबन के निदेशक डॉ. सुब्रत माडल ने शहरी स्वास्थ्य पर विचार रखे तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन के डॉ. अरविंद माथुर ने प्रसव के दौरान होने वाली मौतों के कारणों एवं उससे बचाव पर व्यापक चर्चा की। कांफें्रस के सचिव डॉ .पवन पाराशर का कहना था कि पर्यावरण और स्वास्थ्य का परस्पर संबंध है। दूषित पर्यावरण का स्वास्थ्य पर असर पड़ता है। डॉ. भोलानाथ द्वारा आयोजित शोध-पत्र प्रस्तुति सत्र में डॉ. राहुल बंसल, डॉ. भावना पंत के निर्देशन में डॉ. कपिल गोयल, डॉ. अंकुर श्रीवास्तव, डॉ. पारूल शर्मा, डॉ. रंजिता, डॉ. अनुराधा, डॉ. सरताज अहमद(अध्येता मेडिकल सोसियोलोजी), डॉ. रश्मि, डॉ. धीरज, डॉ. मोनिका, डॉ. अनुज, डॉ. सौरभ, डॉ. गगन, डॉ. गुरमीत, डॉ. प्राची, डॉ. सुमोजित सहित देश के कई राज्यों के चिकित्सकों व परास्नातक छात्र-छात्राओं ने ओरल शोध व पोस्टर शोध-पत्र प्रस्तुतीकरण के माध्यम से स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर अपने शोध प्रस्तुत किए।
अलीगढ़ की प्रो. डॉ. जुल्फिया खान के कर - कमलों द्वारा स्मारिका का विमोचन किया गया। डॉ. मुक्ति भटनागर और कुलपति (लेफ्टिनेंट जनरल) डॉ. बी.एस. राठौर ने डॉ. अंकुर श्रीवास्तव व डॉ. भास्कर द्वारा तैयार की गई योग पर आधारित सी.डी. भी लांच की। कार्यक्रम की समाप्ति पर निदेशक जनरल चिकित्सा शिक्षा प्रो. सोदान सिंह ने कहा कि भारत में योग और आयुर्वेद का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। तमाम वैज्ञानिक शोधों और प्रामाणिक सिद्धान्तों के आधार पर आयुष के महत्व को स्वीकार किया जाने लगा है। इसमें योग और आयुर्वेद सबसे मजबूत पैथी के रूप में उभरा है। इसके लिए सरकारी और गैर सरकारी व अन्य चिकित्सा संस्थानों से सहयोग मिल रहा है। सुभारती मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य डॉ. ए.के अस्थाना ने कान्फ्रेंस में महत्वपूर्ण भागीदारी करते हुए इस तरह के विमर्श की जरूरतों पर बल दिया एवं इसके लिए हर संभव कोशिश को प्रोत्साहित किया।
देश भर से जुटे सभी विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों के विशेषज्ञों, विद्वानों ने योग-आयुर्वेद और आधुनिक चिकित्सा प्रणाली के सभी महत्वपूर्ण तथ्यों पर गहन विचार विमर्श के बाद एक मत हुए कि रोगों के निदान के लिए आधुनिक चिकित्सा पद्धति में योग-आयुर्वेद और नैचरोपैथी का समावेश आज की जरूरत है। बेहतर होगा की परम्परागत चिकित्सा पद्धतियों को आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था में सामंजस्य बनाकर सरल व जटिल रोगों की चुनौतियों से निपटा जाएं।


...तो समाज भी इन्हें नकार देगा




कालजयी लोकप्रिय कृति रागदरबारी (उपन्यास) के रचनाकार श्रीलाल शुक्ल के निधन के बाद मीडिया माध्यमों में भी थोड़ी-बहुत हलचल हुई। पत्र-पत्रिकाओं और खबरिया चैनलों आदि में रागदरबारी के अंश प्रस्तुत किए गए। कुछ हिन्दी समाचार पत्रों (अंगे्रजी अखबार हिन्दी वाले को क्यों छापेगा!) ने पूरी पैकेजिंग की। उन पर पूरे पृष्ठ दिए। हिन्दी समाज के राजनीतिकों को भी लगा कि जरूर यह व्यक्ति कोई बड़ा आदमी था सो लगे हाथ श्रद्धांजलि दी गई । चैनलों-अखबारों में शोक संवेदना दी गई ।

साहित्य समाज का दर्पण है यह कोई मुहावरा, सूक्ति या स्कूली निबन्ध का विषय नहीं है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों से जुड़े मीडिया संस्थानों, शैक्षिक संस्थानों, प्रशासकों, राजनीतिकों, इंजीनियर-डाक्टरों, व्यवसायियों आदि की अगर हम बात करें तो साहित्य-विचार के प्रति एक बहुत ही निराशाजनक (कारुणिक)परिदृश्य उभर कर सामने आता है। और जब अभिभावकों यानी बड़े -बुजुर्ग लोगों की बौद्धिक स्थिति सोचनीय हो तो फिर नई पीढ़ी और बच्चों की क्या बात की जाए! क्योंकि हमारे बच्चे हमीं से संस्कार-सरोकार ग्रहण करते हैं। (मोबाइल,इंटरनेट,फेशबुक ...दे सकते हैं तो संस्कार ने क्या बिगाड़ा है जी!)

हमारे जन माध्यमों यानी मीडिया माध्यमों का धर्म माना जाता है कि वह सूचना, शिक्षा और मनोरंजन (स्वस्थ) का प्रसार करे। लेकिन मीडिया भी बाजार और विज्ञापन कम्पनियों पर आश्रित होकर साहित्य सरोकार को फालतू मानने का काम करती है। यह एक भ्रम फैला दिया गया है कि जनसंचार के माध्यम लोगों की रुचियों के अनुसार ही प्रकाशन-प्रसारण करते हैं . और लोग मिशन, सरोकार में रुचि नहीं रखते! मानों जनता फिल्मकारों, सम्पादकों, मीडिया मालिकों के सामने धरना देकर कन्टेंट की मांग करती है। (काश! ऐसा होता) सिनेमा जैसे प्रभावशाली माध्यम को भी मनोरंजन तक सिमटाने का प्रयास किया जाता है. यह कहकर कि सिनेमा में पैसा बहुत लगता है इसलिए सरोकार जैसी बातों को लेकर ज्यादा आग्रह नहीं किया जा सकता। लेकिन अनेक ऐसी फिल्मों को लें तारे जमीं पर, आरक्षण, अपहरण, गंगाजल आदि (और भी अनेक भारतीय और विदेशी फिल्मों को लिया जा सकता है) जिसे जनता ने पसंद (बाजार के मानक पर) किया। मुनाफा दिया । सिनेमा जैसे ताकतवर माध्यम को सिर्फ मनोरंजन के हवाले नहीं किया जा सकता। यही बात पत्रकारिता, कला, सिनेमा और परंपरा सब पर लागू होती है। बाल गंगाधर तिलक ने तो गणपति उत्सव के अवसर पर लगने वाली मेले की भीड़ को स्वतन्त्रता आंदोलन से जोड़ लिया था।





अच्छी पत्रकारिता भी बिक सकती है यह कई बार साबित हुआ है। लेकिन बिना किसी वैज्ञानिक शोध-सर्वेक्षण के पूंजी संस्कृति में इस बात को जोर-शोर से दोहराया जाता है कि साहित्य-फाहित्य या सामाजिक सरोकार को कौन पढ़ता है जी! हिन्दी समाज के (डा. रामविलास शर्मा के शब्दों में हिन्दी जाति) पत्रकार, बुद्धिजीवी अपनी सांस्कृतिक जातीयता के मामले में या तो निरक्षर हैं या फिर वे उसे पेश करने में लजाते हैं! दिलीप पडगांवकर जब टाईम्स ऑफ इण्डिया जैसे प्रतिष्ठित (बाजार के पैमाने पर भी!) अखबार में बतौर संपादक मराठी के महान नाटककार पु.ल.देशपांडे पर सम्पादकीय दे सकते हैं तो हिन्दी का सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला दैनिक डा . शर्मा को संक्षिप्त में क्यों सिमट देता है। आखिर हिन्दी समाज के एंकर, रिपोर्टर, संपादक चाहे वह किसी भी भाषा और माध्यम के मीडिया में काम कर रहे हों वे अपने मनीषियों को क्यों नहीं खबरों में स्पेस देते। और यह बात हिन्दी समाज, संस्कृति और पत्रकारिता में कहीं ज्यादा घर कर गयी है। हिंदी अखबारों की रविवारी (संडे मैगजीन) सिनेमा -मनोरंजन के नाम पर बौधिक दरिद्रता परोस रहे हैं . कही झंकार -टंकार है तो कही मनोरंजन के नाम पर देह -दर्शन . इन्हें पता नहीं किसने बता दिया की हिंदी पट्टी के लोग जो गरीबी -बेकारी सहित अनेक समस्याओं से ग्रसित हैं वे साहित्य और अपने ही सरोकारों की नहीं पढ़ते –सुनते ?

अन्ना हजारे के जनवादी-गांधीवादी आन्दोलन को जिस तरह से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने कवरेज़ दिया वह कोई मीडिया की उदारवादी नीति , एहसान या सरोकारों के प्रति एकाएक फिसलन या दायित्वबोध के कारण नहीं सम्भव हुआ बल्कि उनके पूंजी बाजार के मानक पर भी अन्ना फिट और हिट थे। जनता ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना को यानी अपने को जगाया! विदेश की धरती की बात करें तो विलियम शेक्सपीयर की जन्म भूमि इंग्लैण्ड के सर्वाधिक दर्शनीय स्थलों में है। उनकी यादों को शानदार धरोहर बनाकर संजोया गया है। शब्दशिल्पी के किये को लेकर अभिमान है वही की जनता और सरकार को . लेकिन कालिदास, तुलसी और कबीर के साथ हमारा बर्ताव कैसा है यह सभी जानते हैं? वर्ष २००७ में जादुई यथार्थ (मैजिक रियलिज्म) के जादूगर यानी प्रसिद्ध लेखक गैब्रिएल गार्सिया मार्केज़ कोलंबिया में अपने गृहनगर (एराकटाका) लौटे तो लोगों ने उनका शानदार स्वागत किया था। यहां तक कि सैकड़ों लोग उनकी गाड़ी के साथ भागते हुए स्टेशन तक गए। वहां की सरकार उनके घर का जीर्णोद्धार कर रही है और एक संग्रहालय बनवा रही है । लेकिन देवकीनंदन खत्री (जिनकी चंद्रकान्ता को पढऩे के लिए हजारों लोगों ने हिन्दी सीखी), भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रेमचंद, प्रसाद, आचार्य शुक्ल सहित तमाम जाने -अनजाने मनीषियों से जुड़ी स्मृतियों के क्या हाल हैं यह किससे पूछा जाए? प्रेमचंद के बनाए घर को बचाया नहीं जा सका। अब वहां महल खड़ी कर दी जाए तो क्या? इसलिए जब तक समाज चेतना दुरुस्त नहीं हो जाती और लोग सर्जकों के किए-धरे का सांस्कृतिक गौरव मान कर सम्मान करना नहीं सीख जाते । मीडिया का इसमें अहम भूमिका है । अच्छी पत्रकारिता बिकती है। मुनाफा बटोर सकती है। टीआरपी बढ़ा सकती है। सरोकारी सिनेमा भी करोड़ों का मुनाफा कमा सकता है। और यदि जनता की रुचियों की आड़ में समाज, संस्कृति, सरोकार को हाशिए पर रखा जाता रहेगा तो समाज भी इन्हें नकार देगा। समर्थन नहीं देगा । मीडिया का एक काम रुचियों का परिष्कार करना भी है। हिन्दी समाज को अगर सभ्यता की कसौटी पर उन्नत करना है तो संास्कृतिक विकास जरूरी है। जाति-धर्म-क्षेत्र विमर्श की जगह जातीय विमर्श की ओर रुख करना होगा। जनमाध्यमों को यह दायित्व निभाना चाहिए। मॉल, बाजार और फार्मूला-वन, २०-२० पर इतराने-इठलाने के बावजूद भूख, गरीबी, बेकारी, राजनीति की फिसलन, भ्रष्टïाचार, अपराध जातीय अहंकार को अगर हम जारी रखे हुए हैं तो यह शोक का समय है न कि ब्रेकिंग-एक्सक्लूसिव के उल्लास का। आखिर बाजार के चोंचले पर गौरवान्वित होने के बजाय उन सांस्कृतिक संदेशों को फैलाने का आप काम क्यों नहीं करते जो कबीर, रैदास, तुलसी, जायसी, मीरा... से लेकर भारतेन्दु, आचार्य शुक्ल और तमाम शब्द शिल्पियों के सरोकारों से होकर गुजरता है। एक हस्तक्षेप और सभ्यता विमर्श बनकर।





अद्भुत साहित्य शिल्पी

                                                 श्रीलाल शुक्ल

जीवन को हंसी-ठिठोली में उड़ा देने का माद्दा पाठकों को भी जिंदा कर जाता है। उनके जीवनानुभवों को अपनी दिनचर्यायों में आसानी से खोज निकाल सकते हैं। राग दरबारी, गोदान और मैला आंचल की तरह ही कालजयी कृति है। उनकी लेखनी से झरता विनोद-व्यंग्य आम जन - जीवन का ही हिस्सा है। हंसी-ठिठोली और चुटीलापन उनके जीवन और साहित्य दोनों में घुला-मिला सा था। कुछ भी थोपा हुआ सा नहीं लगता। घटनाएं हमारे बीच से ही उठा ली गई लगती हैं। सहज भाषा और हल्की-फुल्की घटनाएं वर्षों तक घुमड़-घुमडक़र हमें गुदगुदाती हैं। जीवन की विडम्बनाएं, विद्रुपताएं समय के यथार्थ को ही चित्रित करता है। और साहित्य समाज का दर्पण बनकर उभर जाता है। आजादी के बाद ग्रामीण जीवन के यथार्थ को जिस तरह से उन्होंने दर्ज किया है वह आज बेहद प्रासंगिक है। श्रीलाल शुक्ल को कई-कई बार पढक़र हम बार-बार जी सकते हैं।







श्रीलाल शुक्ल (३१ दिसम्बर, १९२५ २८ अक्टूबर, २०११) सृजन-संसार का एक बड़ा नाम थे। एक अनमोल रतन। अब हमारे बीच वे नहीं हैं तो साहित्य जगत में एक स्तब्धता है। सन्नाटा है . लगता है औचक वे चले गए हैं! उनके जाने से साहित्याकाश में जो खालीपन नजर आ रहा है वह आसानी से नहीं भरा जा सकता। और जब यह बात कही जा रही है तो यह कोई रस्मी बात नहीं है! श्रीलाल शुक्ल हमारे गौरव और स्वाभिमान थे। प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु के बाद भारतीय आंचलिक परिवेश-गांव-गिरान की व्यथा-कथा और विडंबनाबोध को उन्होंने यथार्थवादी संवेदना दी। अद्भुत कथाभाषा, शिल्प के मार्फत उन्होंने अवध के जीवन का यथार्थ चित्रण किया। व्यंग्य-विनोद के कुशल शिल्पी शुक्लजी ने अपनी रचनाओं में जीवन को जिस तरह से रचा है वह बिना तलवे को कष्टï दिये, जीवन की बारीकियों को समझे संभव नहीं है। राग दरबारी में आजादी के बाद भारतीय समाज-संस्कृति में व्याप्त भ्रष्टïाचार, पाखंड, चापलूसी, विसंगतियों पर जो प्रहार किया गया है वह कथ्य और शिल्प दोनों स्तर पर साहित्य के आकाश में मील का पत्थर है। १९६९-७० में इस अनुपम कृति को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। वहीं श्रीलाल शुक्ल की रचनाधर्मिता को सिर्फ हिंदी जगत में ही नहीं बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं एवं विश्व साहित्य में भी विशिष्टï दर्जा मिला। अनेक देशी-विदेशी भाषाओं में अनुदित यह कृति हिंदी साहित्य की श्रेष्ठ कृतियों में शुमार है। बार-बार पढ़ी जाने वाली कृति। साहित्य अकादमी, व्यास सम्मान और जीवन के अंतिम दिनों में अस्पताल के बिस्तर पर सर्वोच्च साहित्य पुरस्कार ज्ञानपीठ सहित उन्हें जीवन में अनेक सम्मान-पुरस्कार मिले। हर उम्र और पीढ़ी के पाठकों में राग दरबारी की लोकप्रियता रही। श्रीलाल शुक्ल की तमाम रंग की कृतियों में जो विद्रूप उभरता है वह दरअसल हमारे समाज का एक ऐसा कटु यथार्थ हैं जिससे आम जीवन का संघर्ष उभर कर आता है। आज के संदर्भ में जबकि भ्रष्टïाचार और व्यवस्था के रोग आम आदमी को दाल-रोटी और उनके हक-हकूक से महरूम कर रहे हैं श्रीलाल जी का वह विनोद, मीठे-तीखे व्यंग्य से सिक्त सटीक प्रहार प्रासंगिक है। जिस तरह से उन्होंने ग्रामीण जीवन की विसंगतियों को सहजता के साथ उद्घाटित किया है वह सूक्ष्म अवलोकन के विनियोग शक्ति का ही परिणाम है। ग्रामीण जीवन के यथार्थ को जिस तरह से शैली-शिल्प, कथ्य और भाषा के मार्फत वह रचते हैं वह अद्भुत है। उनकी रचना गुदगुदाती हैं, चिकोटी काटती है और अपनी सहजता में ही समय में हस्तक्षेप करती है।

वह एक विरले सर्जक थे। उनकी कृतियां हमारे साथ हैं और जब तक शब्द हैं तब तक वे कभी नहीं मरेंगे। वह हमारे बीच भौतिक रूप में नहीं हैं लेकिन कृतियों में जिंदा रहेंगे हमेशा-हमेशा। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि!

प्रमुख रचनाएं

सूनी घाटी का सूरज, अज्ञातवास, राग दरबारी, सीमाएं टूटती हैं, मकान, आदमी का जहर, पहला पड़ाव, विश्रामपुर का संत (उपन्यास), अंगद का पांव, यहां से वहां, उमरावनगर में कुछ दिन (व्यंग्य)।