गुरुवार, 3 नवंबर 2011

रंगमंच, सिनेमा, पृथ्वीराज




३ नवम्बर जन्म दिवस पर


 भारतीय सिनेमा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर पृथ्वीराज कपूर ने भारतीय सिनेमा या कहें मंच कला को बहुत बड़ा योगदान दिया। विधिवत रूप से भारत की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा (१९३१)’ से अभिनय की शुरुआत करने वाले पृथ्वीराज कपूर ने अपना पूरा जीवन रंगमंच और सिनेमा को समर्पित कर दिया। रंगमंच और सिनेमा के क्षेत्र में उनके महान अवदान हैं। कला को जीवन मानकर जीनेवाले पृथ्वीराज के महत्व को जानने के लिए उनकी संघर्ष- साधना और ललक को देखना होगा । आज हम उन्हें क्यों याद करें यह जानने के लिए उस ललक को , जीवन के लय और समर्पण को समझना होगा ।

                                     हिंदी फिल्म इण्डस्ट्री में लगातार पाँच पीढी तक काम करने वाला अकेला परिवार । हिंदी सिनेमा के साथ इस परिवार का जुड़ाव बिशेश्वर नाथ कपूर के साथ होता है,जो पृथ्वीराज कपूर के पिता थे,उन्होंने अपना नाम बिशेश्वर मल से बदल कर बिशेश्वर नाथ रखा था। इसी तरह पृथ्वी ने इसकी जगह राज का प्रयोग किया। यह राज अगले जेनेरेशन तक चला बलबीर राय बाद में राज कपूर और शमशेर राज बाद में शम्मी कपूर। बिशेश्वर नाथ ने ‘आवारा’ फिल्म में एक छोटी सी भूमिका निभाई थी। पृथ्वीराज कपूर से लेकर अब करिश्मा और करीना तक इस खानदान का काम जारी है। आज कपूर परिवार की पांचवी पीढ़ी हिन्दी सिनेमा की दुनिया में सक्रिय है।

उसकी आँखों में ढेर सारे सपने थे। अभिनय के जीवंत सपने। कला के प्रति अगाध आकर्षण समेटे पेशावर के एक पुलिस सब इंस्पेक्टर दीवान बशेश्वरनाथ कपूर का बेटा अपनी कला को मायने देने बंबई आया। पिता चाहते थे कि बेटा कानून की पढ़ाई करे। मगर लाहौर के लॉ कॉलेज में दाखिला लेने वाले कलाकार की नियति को कुछ और ही मंजूर था। वे पहले वर्ष में ही फेल हो गये। मातृ स्वरूपा बुआ से ७५ रुपये लेकर बंबई की धरती पर कदम रखा। संघर्ष से जूझते कलाकार ने जानी-मानी फिल्म पत्रिका ‘फिल्म इंडिया’ के संपादक की टिप्पणी पढ़ी- ‘उन पठानों के लिये यहां कोई जगह नहीं जो यह समझते हैं कि वे यहां अभिनेता बन जायेंगे’। तब पठानों के सशक्त व्यक्तित्व को कला-क्षेत्र में संजीदगी से नहीं लिया जाता था। ३ नवंबर, १९०६ को पेशावर में जन्में पृथ्वीराज कपूर को यह बात गवारा नहीं हुई। असली पठान ने जवाब दिया - ‘‘बाबूराव, इस पठान को चुनौती मत दो। यदि मेरे लिये भारतीय फिल्मों में कोई जगह नहीं है तो मैं सात समंदर पार करके हॉलीवुड जाऊंगा और वहां जाकर अभिनेता बनूंगा।’’ ग्रीक नायकों की सी कद-काठी वाले इस अभिनेता ने पीछे मुडक़र नहीं देखा और भारतीय सिनेमा के इतिहास में दर्ज नाम बन गया। रोबीली अवाजा, बेजोड़ संवाद अदायगी और अद्भुत अभिनय के दम पर पृथ्वीराज कपूर ने कला को नई ऊंचाईयाँ दीं। पृथ्वीराजकपूर के लिए कला का एक बड़ा अर्थ है। जो जीवन से घुलमिल गया है- ‘‘मेरे लिए कला एक तड़प है, स्पन्दन है, जीवन है। मैं चाहता हूँ कि कला जनजीवन का दर्पण बने, जिसमें लोग खुद को देख सकें, सँवार सकें, सुन्दर बन सकें, उन्नति कर सकें। सच्ची कला वह है, जो जीवन को सही मायने में चित्रित करे।’’ पृथ्वीराज कपूर की ये पंक्तियां उनकी कला प्रतिबद्धता की एक बानगी है। अमिट जिजीविषा की बानगी है ।

अभिनय उनका जीवन था। कॉलेज के दिनों से ही नाटकों में हिस्सा लेते रहे। ‘राइडर्स टू दी सी’ नामक नाटक में नोरा नामक लडक़ी का इतना प्रभावी अभिनय की कि लोग दंग रहे गये। स्त्री ओर पुरूष दोनों ही किरदारों में ढल जाते पृथ्वीराज ने कालेज के दिनों में ही अभिनय का तकनीकी बारीकियों सीख लीं। सब कुछ ऊपर वाले बंबई आकर पर छोड़ते हुए इम्पीरियल स्टूडियों में बतौर ‘एक्सट्रा’ कलाकार के रूप में काम शुरू किया। ‘चैलेंच वेडिंग नाइट’ और ‘दाँवपेंच’ सरीखी कई मूक फिल्मों में छोटी-छोटी भूमिकायें कीं। सधी आवाज और रंगमंच से जुड़े अनुभवों ने लोगों में उनके प्रति आकर्षण भरा। उन्होंने कई मूक फिल्मों में काम किया। एक्सट्रा से हीरों बनने का मौका अचानक और औचक ही आ गया। ‘सिनेमा गर्ल’ का हीरो निर्देशक बीपी मिश्र की कसौटी पर खरा नहीं उतर पा रहा था। उस दिन सेट पर बैठे एक्सट्रा कलाकारों की ओर इशारा कर नायिका अर्मेलिन से कहा-‘इन लडक़ों में से जिसे पसंद करेगी उसे ही हीरो बना देंगे।’ अर्मेलिन ने पृथ्वीराज की ओर इशारा कर दिया और पृथ्वी हीरो बन गये। बीपी मिश्रा को इनकी अदायगी पसंद आयी। फिल्म भी चल निकली और पृथ्वीराज कपूर की किस्मत का सितारा चमक उठा। उन्हें फिल्में मिलने लगीं। पारिश्रमिक की रकम भी बढ़ती गई। १९३१ में भारत की पहली सवाक फिल्म ‘आलम आरा’ में इन्होंने नायिका के पिता का रोल निभाया। ‘राजरानी मीरा’ (१९३३) ‘सीता’ (१९३४), ‘जोशेवतन’ (१९३५),‘मंजिल’ (१९३८), ‘विद्यापति’ (१९३८), जैसी कई महत्वपूर्ण फिल्मों में दिखे। इन फिल्मों ने उनकी अलग पहचान की गढ़ डाली। ‘मुगल-ए-आजम’ तो उनके लिए मील का पत्थर साबित हुईं। फिल्मों में बढ़ती शोहरत और शान के बावजूद भी रंगमंच के प्रति पृथ्वीराज की ललक बनी रही । नाटकों के प्रति उनकी प्यास कभी बुझी नहीं । सिनेमा में बढ़ती लोकप्रियता के साथ ही रंगमंच की दुनिया से अलग नहीं हुए । रंगमंच के प्रति लगाव और बंचैनी की तुष्टिï के लिए उन्होंने १५ जनवरी १९४४ को पृथ्वी थिएटर की स्थापना की । ९ मार्च १९४५ को बंबई के रॉयल ऑपेरा में मंचित शकुंतला नाटक की खूब चर्चा हुई । इस नाटक में नायिका का संवाद ‘‘ जब देश जागते हैं तो उन्हें तलवारों की लोरियों से नहीं सुलाया जा सकता । कौमों के बलबले तलवारों की धारें भी कुंद नहीं कर सकती । ताकत की चक्की में सचाई नहीं पीसी जा सकती ’’ सहित इसी सरीखे संवादों ने विदेशी शासन को छलनी कर दिया। प्रदर्शन रोके जाने लगे । धमकियां दी जाने लगी । मगर पृथ्वी नहीं माने । पांच दशकों के भीतर की सर्वक्षेष्ठ नाटï्य कृति को देख सरदार वल्लभ भाई पटेल की आखों से आंसू बह निकले। इसे बेटे राजकपूर ने पिता को दिखाया और कहा ‘देखिये पापा पत्थर रो रहा है। ’ सिकंदर (१९४१), शालीमार(१९४२), आंख की शर्म (१९४३) जैसी फिल्में और दीवार, पठान, गन्धार जैसे नाटक सामानान्तर चल रहे थे। सोहराब मोदी की फिल्म सिंकदर (1941) में उन्होंने महत्वपूर्ण अदाकारी की। ‘मुगल-ए-आजम’ के शहंशाह के रूप में उनका अभिनय कितना जीवंत था। पृथ्वी थियेटर (1944) की स्थापना कर उन्होंने रंगमंच को महान योगदान दिया। उन्हें १९५४ में संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप, १९६९ में पद्मभूषण और १९७१ में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। आठ वर्षों तक वे राज्य सभा के सदस्य रहे। 29 मई 1972 को वे इस दुनिया से विदा हो गये। वह हमारे लिए प्रेरक बने रहेंगे ।
                                                                              --- सविता पांडेय

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