सोमवार, 14 नवंबर 2011

...एक मेरा पक्ष नि:सन्देह




अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे।


तोडऩे ही होंगे मठ और गढ़ सब।


पहुंचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार।

हिन्दी कविता के विशिष्ट कवि गजानन माधव मुक्तिबोध (१३ नवम्बर १९१७-११ सितम्बर १९६४) की ये पंक्तियां इसलिए भी आज मौजूं हैं कि अभिव्यक्ति पर सवाल हैं और सवाल उठाने वाले संदिग्ध हो जाते हैं, करार दे दिये जाते हैं। उन पर दिग्विजयी प्रहार होता है । सवाल उठाते ही धरपकड़ की कार्रवाई -कार्यवाही शुरू हो जाती है । हर समय में अभिव्यक्ति के खतरे इन्हीं परिस्थितियों में मनीषियों और समाज शिल्पियों ने उठाया है। कबीर भी सैंकड़ों साल पहले पंडे-पुरोहितों की धार्मिक नगरी काशी (वाराणसी) में पाखंड, दोमुंहापन और सत्ता-संस्कृति के विरुद्घ अभिव्यक्ति के खतरे को सत्साहस के साथ उठा रहे थे। यहीं नहीं कबीर से भी हजारों साल पहले नहीं सुनने के बावजूद सुनाये जाने की बात महाभारतकार व्यास जी कर रहे थे। वह उस समय के हिसाब से अभिव्यक्ति के खतरे के समान ही था। सच को बयां करना था । महाभारतकार कहते हैं कि ‘मैं हाथ उठा-उठा के कहता हूं किन्तु मेरी कोई सुनता नहीं। धर्म के रास्ते पर चलकर अर्थ और काम का निपटारा क्यों नहीं किया जाता।’ सनद रहे उस समय भी जब समय काफी (आज की तुलना में) सात्विक और सकारात्मक था। उस समय भी एक कवि मनीषी की चिन्ता के केन्द्र में यह था कि अर्थ और काम का निपटारा धर्म के रास्ते पर चलकर नहीं किया जा रहा है!

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि धर्म सिर्फ धार्मिक अर्थों से सिक्त नहीं है। नैतिकता, ईमानदारी, सद्मार्ग, उत्तरदायित्वबोध वह मूल्य हैं जिनके रास्ते ही व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का कल्याण हो सकता है। आज के संदर्भ में देखें तो हम समाज, संस्कृति और राष्ट्र के लिए अपनी प्रतिभा का कितना सदुपयोग कर रहे हैं इसे लिया जा सकता है। तिहाड़ की शोभा बढ़ा रहे तमाम माननीय हों या समर्थ और शक्तिशाली लोग हों उनकी वर्तमान दशा का सबसे बड़ा कारण तो यही है न कि उन्होंने धर्म और नैतिकता तथा मानवीय मूल्यों का ध्यान नहीं रखा। इसका परिणाम यह है कि वह जिस चीज के लिए अधर्म यानी भ्रष्टाचार, अनैतिकता या उत्तरदायित्वहीनता का सुख ले रहे थे, वह भी उन्हें नहीं मिला!

तो चाहे व्यास हों, ऋग्वैदिक ऋषि हों या फिर कबीर, रैदास, तुलसी.....भारतेन्दु, प्रेमचन्द.. सभी अपने-अपने समय में अभिव्यक्ति के खतरे उठाकर जनमूल्यों को, समय के यथार्थ को सचेत अभिव्यक्ति दे रहे थे। वह एक प्रतिरोध भी था और एक हस्तक्षेप भी। कहन अलग-अलग शैली-शिल्प में थे। हम जिन मुक्तिबोध की बात कर रहे थे वह भी अपनी कविताओं के माध्यम से अपने समय की बेचैनी को ही जीवन और अर्थ दे रहे थे। दो सौ से अधिक रची उनकी कविताएं कवि -आलोचक और मुक्तिबोध को नजदीक से बांचने वाले अशोक वाजपेयी के शब्दों में- ‘हमें खबरदार करती हैं जिससे हम अपनी भागीदारी को ठीक से समझ-बूझ सकें।’ आधुनिक हिन्दी साहित्य और काव्यालोचना को गहरे अर्थों में प्रभावित करने वाले मुक्तिबोध का जीवन और रचना एक-दूसरे में पूरी तरह समाहित हो गया है। अनेक संकटों और दुरभिसंधियों से जूझने-टकराने के बावजूद वह अभिव्यक्ति के खतरे उठाते हैं। प्रसिद्घि, पुरस्कार और बौद्घिक छद्म से दूर मुक्तिबोध हमें इसलिए प्रेरित करते हैं कि वह ‘भूल-गलती’ को भी जीवन के सरोकारों से सिक्त करते हैं। एक प्रखर बुद्घीजीवी और दार्शनिक दृंिष्टï वाले सर्जक के रूप में वे चाहे ‘ब्रह्मïराक्षस’ लिख रहे हों या ‘अंधेरे में’ , ‘भूल गलती ’ या फिर ‘मुझे पुकारती हुई पुकार’ ...वह गहरे नैतिक बोध से ही हमें अनुप्राणित करते हैं। अपने समय की बेचैनी को, यथार्थ को जो उन्होंने रचा आगे चलकर भारतीय सामाजिक प्रयोगशाला में समाज ने सच ठहराया। वह विश्वामित्र की तरह ‘नई सर्जना’ करते हैं। नये भारत की तलाश करते हैं। मनुष्यता की पहचान करने वाले मुक्तिबोध दरअसल स्वार्थी, फ्राड, अमानवीय, सुविधाजीवी-सुविधाभोगी सौन्दर्यबोधि व्यवस्था प्रतिमान को ध्वस्त करते हैं और जीवन की असल सुन्दरता का नया प्रतिमान रचते हैं। वे ‘असंख्यक इत्यादि-जनों’ (ईटीसी) की बात करते हैं, उनकी ओर से बात करते हैं तभी तो उनका भी एक पक्ष होता है-‘धरती के विकासी द्वन्द्व क्रम में, एक मेरा पक्ष नि:सन्देह’। सही भी है कि ऋग्वैदिक ऋषियों, व्यास, कबीर और अन्य अनेक मनीषियों की तरह हर कवि का, सर्जक का एक पक्ष होता है। वह निष्पक्ष इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि जीवन की पक्षधरता जरूरी है। ऐसे समय में जबकि झूठों पर एक बड़ी आबादी को पोसा जाता है। उन्हें नून-तेल-लकड़ी यानी जरूरी जीवन की जरूरतों से वंचित कर दिया जाता है ऐसे समय में निष्पक्षता अमूर्त नहीं हो सकती। एक ईमानदार बुद्घिजीवी, लेखक, पत्रकार, संस्कृति कर्मी, सामाजिक कार्यकर्ता ‘चुनी हुई चुप्पियों’ का हिस्सदार नहीं हो सकता।
विचार आते हैं’ शीर्षक कविता की पंक्तियां हैं- विचार आते हैं-/ लिखते समय नहीं/ बोझ ढोते वक्त पीठ पर/...विचार आते हैं/ लिखते समय नहीं /...पत्थर ढोते वक्त... / पीठ पर उठाते वक्त बोझ... पीठ कच्छप बन जाते हैं/समय पृथ्वी बन जाता है।

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