गुरुवार, 28 जुलाई 2011

हमारे समय की बौद्विक उपस्थिति : नामवर सिंह





 बरिष्ठ समालोचक डॉ. नामवर सिंह का हिन्दी आलोचना के विकास-विस्तार में महत्वपूर्ण योगदान है। वे हमारे समय की बौद्धिक उपस्थिति हैं। उन्हीं के शब्दों में—‘जिसमें सारा हिन्दी समाज शामिल मार्क्सवाद से शुरू करके अब तक की जीवन यात्रा में वे कई उपलब्धियों से लैस आलोचक हैं। वाराणसी से तीस मील दूर चंदौली जिले के छोटा-से गांव जीअनपुर में २८ जुलाई, १९२७ को उनका जन्म हुआ। हालांकि नामवर सिंह की पुस्तकों में १ मई (श्रम दिवस), १९२७ दर्ज है। हिंदी क्षेत्र में पुनर्जागरण के नायक के रूप में उन पर आयेजित ‘ नामवर के निमित’ (अमृतवर्ष-२००२) में असली जन्म दिन का लोगों को पता चला। पिता सागर सिंह किसान और शिक्षक थे। मां बागेशवरी देवी थीं। उनकी शिक्षा-दीक्षा वाराणसी में सम्पन्न हुई। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिंदी में एम. ए. (१९५१) और पी-एच.डी. की उपाधि (१९५६ में) प्राप्त की। पृथ्वीराज रासो:भाषा और साहित्य पर उनका शोध ग्रंथ काफी चर्चित रहा । आज भी इस पुस्तक की मौलिक दृष्टि की विशिष्ट पहचान है ।‘ हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग’ की भूमिका प्रो. पी.एल.वैद्य जैसे विद्वान ने लिखी थी। इसी दौरान 1९५३ से १९५९ तक उन्होंने विश्वविद्यालय में अध्यापन किया। वे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के प्रिय शिष्य रहे। द्विवेदी हिन्दी साहित्य के उस समय के सर्वाधिक यशस्वी प्रोफेसर थे। जोधपुर विश्वविद्यालय, सागर, कन्हैयालाल माणिक मुंशी हिंदी विद्यापीठ (आगरा), जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय तक के अकादमिक सफर में अनेक पड़ावों से गुजरते हुए उन्होंने कई जीवन उपलब्धियां अर्जित की। वे बेहद लोकप्रिय अध्यापक रहे। ‘अध्यापक हो तो नामवर जैसा’ उनके शिष्य आज भी कहते हैं। मध्यकालीन और आधुनिक साहित्य के बहुपठित विद्वान हैं। उनकी वक्तृता उन्हें कक्षाओं, सभागारोंं में हिट करती है। उनके शिष्यगण बताते हैं कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से जे.एन. यू. तक जहां भी रहे उनकी कक्षाएं खचाखच भरी रहती थीं। दूसरे विषयों के छात्र भी उनकी कक्षाओं के गेट-खिड़कियों पर खड़े होकर उन्हें सुनते थे । हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग,पृथ्वीराज रासो की भाषा, इतिहास और आलोचना, छायावाद, आधुनिक साहित्य की प्रवितियां, बकलम खुद, कविता के नये प्रतिमान, दूसरी परम्परा की खोज, वाद-विवाद संवाद आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। ‘दूसरी परंपरा की खोज’ उनकी अपनी लिखी प्रिय आलोचना पुस्तक है। उनका कहना है कि ‘दूसरी परंपरा का मतलब द्वितीय परंपरा नहीं बल्कि एक और परंपरा है। वह गणना के क्रम में दूसरी नहीं थी।’ इसके अलावा उन्होंने ‘जनयुग’ साप्ताहिक (१९६५-६७), ‘आलोचना ’ १९६७ - ९१ का संपादन किया। पुनर्प्रकाशित ‘आलोचना’ (२००० से) के भी वे प्रधान संपादक हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल संचयन चिंतामणि: भाग-३, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबन्ध संकलन, आधुनिक रूसी कविताएं, आज की हिन्दी कहानी,नवजागरण के अग्रदूत बालकृष्ण भट्ट आदि का भी उन्होंने संपादन किया है। समकालीन साहित्य की प्रवृतियों को लेेकर उन्होनें अनेक ‘विमर्श’ खड़े किये हैं। उनकी स्थापनाएं जितनी जीवंत और मौलिक होती हैं, उतनी ही विवादास्पद! वे चांैकाऊ स्थापनाओं ने लिए विख्यात रहे हैं। विचारों में वे अत्यंत प्रगतिशील रहे हैं। इसीलिए वे अपने साहित्य-चिंतन के प्रतिमानों को बार-बार रचते रहते हैं। अब यदि उनके ‘भक्तगण ’ उन्हें विचार और इतिहास के अंत की तरह आखिरी आलोचक साबित कर चुके हों या कर रहे हों तो इसमें नामवरजी क्या कर सकते हैं? लेकिन नामवरजी भी अपनी एक चौकाउं स्थापना में ‘आचार्य शुक्ल को ही एकमात्र आचार्य घोषित कर चुके हैं , अपने गुरु द्विवेदी जी को भी नहीं’ तो इसमें नामवरजी न आचार्य शुक्ल की प्रतिष्ठा बढ़ा रहे हैं और न ही उनको आखिरी आलोचक बताने वाले उनकी प्रतिष्ठा । ‘हंस’ संपादक राजेंद्र यादव के शब्दों में कहू तो ‘वचिक ही मौलिक है’ का धर्म निवाह रहे नामवर जी ‘दूसरी परंपरा की खोज’ करके भी यदि सिर्फ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को ही आचार्य मानते हांे, अपने गुरु को भी नही ंतो यह विड़म्बना ही है। ठीक वैसे ही जैसे कुछ उत्तर आधुनिक विमर्शियों ने उन्हें अतिंम आलोचक घोषित कर दिया था। अगर ऐसा है तो इसमे शुक्ल जी और नामवर जी ही कटधरे में खड़े होते हैं कि उनके बाद उनकी परंपरा ही टूट गई। तो यह हुई दूसरी खोज जहाँ एक बार आचार्य और आलोचक पैदा होने के बाद साहित्य की धरती ही बंजर हो गयी !

आचार्य केशवप्रसाद मिश्र, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र जैसे अनेक मनीषियों से प्राप्त वैदुष्य-संस्कार तथा आधुनिक भाषाओं के साहित्य का गंभीर अध्ययन उनकी आस्वाद-क्षमता को विशिष्टï बनाता है। उनकी पारंपरिक और आधुनिक दृष्टिï उन्हें दूसरों से अलग करती हैं । पंडित रामअवतार शर्मा और आचार्य चंद्रधर शर्मा गुलेरी जैसे आधुनिक बोध वाले आचार्यों से भी वे खासा प्रभावित हैं। संस्कृत के इन परंपरावादी विद्वानों के आधुनिकता बोध , आचार्यत्व को नामवर सिंह सेमीनारों और लिखंत में उल्लेखित करते रहे हैं ।
नामवर जी ने अपनी क्षमता,मेधा की तुलना में कम लिखा है। वे ‘ वाचिक ही मौलिक है’ में अपार विश्वास करते हैं, यहां तक कि वह कहते हैं ‘ वे धन्य हैं जो अमर होने के लिए बोलते हैं पर मैं तो मर-मर के बोलना चाहता हूं। मेरे शुभचिंतक शिकायत करते हैं कि मैं आजकल लिखता नहीं, बोलता हूँ। उन्हंे शायद यह मालूम नहीं कि मैं बोलता ही नहीं, लोकार्पण भी करता रहता हूँ – (स्वयं को ग्रंथमोचक बताते हुए) . काशी (बनारस) उनको कचोटती रही है। वे अक्सर कहते हैं -(बाबा नागार्जुन के) उस बैल की तरह जो बेच दिया गया, अपने बथान तक बार-बार दौड़ता है। इसीलिए वे यहां आने का बहाना तलाशते रहते हैं। ‘तुम्हारी याद के जख्म भरने लगते हैं तो किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं।’ बनारस छूटने के बाद वे दिल्ली में स्टार-सुपर स्टार आलोचक बनकर साहित्य संसार में छा गए । बनारस छूटने का कारण वह ‘भैरवजी का सोटा’ (मान्यता है कि काशी के कोतवाल भगवान काल भैरव के आदेश के बिना काशी में वास संभव नहीं है । ) मानते हैं । वह कहते हैं ‘काशी बार-बार मुझे दुत्कारती है फिर भी मैं काशी का हूं।’ काशी को वे ब्राह्मïण और श्रमण संस्कृति और बहुलतावादी परम्परा का केन्द्र मानते हैं। इस्लाम, बौद्घ , जैन तथा सिख परंपरा को इस विरासत से काटना संभव नहीं है। नामवर की दुत्कार वाली शिकायत की उनकी वजहें रही है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से उनकी निकासी और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे समर्थ गुरु के स्नेह-आशीर्वाद के बावजूद हिन्दी विभाग में चयन न होना उनके दु:ख का कारण रहा है। १९५९ में वे चकिया चंदौली लोकसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिष्टï पार्टी के उम्मीदवार भी रहे जिसमें उन्हें असफलता मिली । बीएचयू से निकासी के कारणों में यह चुनाव माना जाता है । अभाव और बेकारी में शुरुआत का जीवन -( गर्वीली गरीबी वह) बिता चुके नामवर अब साहित्यिक जीवन उपलब्धियों की आलोचकीय समृद्घि से सम्पन्न हैं। ’हक अदा न हुआ’ नामवर जी की षष्टिपूर्ति पर लिखे भावनात्मक और महत्पूर्ण लेख मेें विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने लिखा है - मुझे याद है एक बार तो नामवर जी आदरणीय विजय शंकर मल्ल जी जैसा लम्बा कोट पहनकर इंटरव्यू देने गये। हम लोग आश्वस्त थे। केदारनाथ सिंह का विचार था कि जब ऐसा लम्बा कोट पहन कर गये हैं तब चयन होना निश्चित है। पर चयन श्री भोलाशंकर व्यास का हुआ। वहां तो द्विवेदी जी कुछ कर-धर नही पाये। मिलने पर नामवर जी को काफी ड़ांटा - अपनी किताबे क्यों नही ले गये। वहां पूछा गया, कौनसी किताबे लिखी हैं तो दिखाने को एक भी नहीं। ऐसे इंटरव्यू दिया जाता है ? क्या इससे यह ध्वनि नहीं निकलती है कि कम योग्य अभ्यर्थी का जुगाड़ या अन्य कारणों से चयन हो गया? आप ही बताइए विश्वनाथ जी, व्यासजी भी प्रतिभा, उपलब्धि -स्तर, शिक्षा के स्तर पर कहां कम थे? हालांकि व्यासजी हमेशा कहा करते थे कि काश , एक और सीट होती और नामवर भी यहां होते।
नामवर जी की मेधा, साफगोई और दृष्टि के व्यास जी कायल थे । लेकिन यह कहा जाना कि नामवर जी से कमतर का चयन हुआ सही नहीं है विश्वनाथ जी ने लिखा हैं वे दिन बहुत खराब थे। लगभग सात वर्षाे तक एम.ए., पी-एच.डी. छायावाद, हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, इतिहास और आलोचना, आधुनिक साहित्य की प्रवृतियां के लेखक डा. नामवर सिंह बेकार रहे।
साहित्य अकादमी (१९७१ में कविता के नए प्रतिमान),शलाका सम्मान(हिंदी अकादमी दिल्ली) सहित उन्हें अनेक पुरस्कार-सम्मान मिल चुके हैं। राजेन्द्र यादव के शब्दों में-‘‘सत्ता उनकी कमजोरी है। ... अनेक ऐसे उदाहरण हैं जब उन्होंने सत्ता में बैठे लोगों की आरतियां उतारी हैं।’’
नामवरजी ने जितना कुछ लिखा-पढ़ा है; आलोचना को समृद्धि दी है- वह हमारे लिए गौरवपूर्ण है। यह अलग बात है कि उनकी हर आलोचना को समालोचना की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता । कहीं -कहीं ज्यादा आशीर्वादी और पीठ ठोकी भूमिका में रहे हैं तो कहीं काफी आक्रामक और पूर्वाग्रही । यह हम नहीं कह रहे हैं बल्कि नामवर का आलोचना के कुशल पारखियों का कहना रहा है । बनारस में कई-कई बार उन्हें सुनने का मौका मिला । खचाखच भीड़-भाड़ में खड़े होकर, जमीन पर बैठकर भी या जगह के अभाव में खिड़कियों -दरवाजे पर खड़े होकर भी उन्हें सुनते हुए लोगों को देखा है । उनमें साहित्य-फाहित्य से दूर-दूर तक नाता न रखने वाले भी होते हैं। बस एक बार प्रेमचंद की १२५ वीं जयंती पर वाराणसी में आयोजित संगोष्ठी में लंका से यूपी कालेज तक सरकारी लक्जरी बस के इंतजाम यानी यातायात की बेहतरीन सुविधा के और नामवर, राजेंद्र यादव जैसे स्टार वक्ताओं को पता नहीं लोग उम्मीद के मुताबिक सुनने क्यों नहीं गए जितना अकेले नामवर जी को ही सुनने जाते थे । ‘वाद-विवाद-संवाद’ में रमने वाले नामवर सिंह शतायु हों।




नामवर के बोल
 भाषा की असली ताकत उसकी भद्रता,शिष्टïता और महानता का अहंकार नहीं बल्कि उसको बोलने वाली जनता होती है । -नामवर के निमित, कोलकाता , दिसम्बर, २००१

 वास्तविक आलोचक किसी एक कृति का मूल्यांकन करते समय परोक्ष रूप से साहित्य की समस्त कृतियों का मूल्यांकन करता है, यदि वह ऐसा नही करता तो वह मूल्यांकन ही नहीं है, और उसके अंतनिर्हित प्रतिमान में कही न कही असंगति है। - नामवर सिंह , इतिहास और आलोचना

 “मैं मार्क्सवादी हूँ पर कई प्रश्नों पर बार-बार सोचता हूँ। आज बदले हुए दौर में कई ऐसे प्रश्न हैं जिनका जबाब हमें मार्क्सवाद में नही मिलता।“
 उपन्यास अगर पाठ ही है, तो मर जायेगा। गोदान में गुठली है। ‘रस’ न हो तो कालजयी कृति हो ही नहीं सकता। युगों-युगों तक गोदान पढ़ा जाता रहेगा तो ‘रस’ के कारण, कलाकृति के कारण। क्योंकि वो वर्णन इतिहास, समाजशास्त्र में भी मिल जाएगा। बंधी-बंधायी विचारधारा के आधार पर न मूल्यांकन किया जाए। रचनाकार की कृति में जो राग बना है, उसको देखें। गोदान का यही बड़प्पन है। सीपीआई, सीपीएम,सीपीआई एमएल वाले अपनी-अपनी विचारधारा ढूंढ़े? गोदान विचारधारा को अतिक्रमित करता है। उसके मर्म को जानने के लिए विचारधाराओं के चक्कर में नहीं पडऩा चाहिए।
 ‘गोदान’ विशाल वाद्य वृंद्य है। सबने अपना-अपना सुर मिलाया है। जो लोग ‘गोदान’ में केवल दलित विमर्श देखते हैं, स्त्री विमर्श देखते हैं, यह देखना गोदान के टुकड़ों को देखना है। संपूर्ण की उपेक्षा करना है। गाय ‘गोदान’ में यदि रूपक है, प्रतीक है, अनेक आदर्शों का प्रतीक बन जाती है। होरी खुद गाय है। गाय की इच्छा रखने वाला खुद गाय है। गाय जानवर या संपत्ति नहीं है। उसके मरजाद, आत्मसम्मान का भी सूचक है। गाय के साथ जमीन भी जुड़ा, है, उसके समूचे मनुष्यत्व का प्रतीक है। उस दौर में प्रेमचंद का वह ‘स्वराज्य’ है। उसके सपने का अर्थ हमें खोजना चाहिए। प्रश्न कर रहा हूं...क्या गोदान प्रेमचंद के लिए वही है जो कैपिटल में माक्र्स के लिए ‘मनी’ थी। किस गांधी का उन्होंने अतिक्रमण नहीं किया? ‘गांधीवाद’ नहीं छौड़ा था इसकी और व्याख्या करनी चाहिए। प्रेमचंद को विचारधाराओं के फंडे में न बांधों। प्रगतिशीलों को और सावधानी बरतनी चाहिए।
                                   सीनेट हॉल , स्वतंत्रता भवन, बीएचयू, ६-११-२००५
 मेरी जानकारी में राजा शिव प्रसाद ’सितारे हिन्द’ को लेकर हिन्दी की यह पहली गोष्ठी है और खुशी की बात है कि काशी मे हो रही है। 1995 में उनके निर्वाण काल की शताब्दी मानायी जा सकती थी लेकिन उनको काशी भी भूल गयी और बाहर वाले भी भूल गये। इसे भूल सुधार के रूप में दर्ज किया जाना चाहिये तथा इस प्रयास के लिए समस्त हिन्दी जगत को वीरभारत का कृतज्ञ होना चाहिये।
 भारतेन्दू जैसा साहित्यकार 19वी सदी में कोई नही हुआ। राजा साहब का क्षेत्र अलग था। वे दूरदर्शी शिक्षा शास्त्री थे जिन्हंे साहित्य और संस्कृति से गहरा लगाव था। वीरभारत तलवार को सावधानी बरतनी चाहिये नही ंतो भूल सुधार के चक्कर में एक और गम्भीर भूल हो जायेगी। हिन्दू और मुस्लिम जैसे विषयों पर वीरभारत फिर से विचार करें नही तो भूल को दूरुस्त करने में एक और भूल होगी। वीरभारत को हजार फटकार लगाईए लेकिन अगर यह किताब नही आयी होती तो यह चर्चा भी नही होती। वीरभारत ने बनारसी रंग देख लिया। साहित्य का पानीपत बनारस है, वीरभारत को लड़ाई यहां जितनी पडेगी। जो सवाल खासतौर पर अवधेष प्रधान और बलराज पाण्डेय ने उठाए उसका जबाब दिया जाना चहिये था। तलवार ने पहले ही लिखा है कि राजा साहब को हिन्दी वाले खलनायक मानते हैं और बस वे ही एक उन्हें नायक मानते हैं।----15-09-2004, वाराणसी, डायमण्ड होटल, राजा शिव प्रसाद ’सितारे हिन्द’ और 19 सदी का हिन्दी गद्य




गुरुवार, 21 जुलाई 2011

नसीरुद्दीन शाह -- अभिनय की कसौटी

नसीरुद्दीन शाह  (जन्म: २० जुलाई-१९५०) -एक ऐसा अभिनेता जिसकी रग-रग में अभिनय बसता हो। बहुमुखी प्रतिभा के धनी शाह ने अपनी भूमिकाओं से सिनेमा- संसार को कलात्मक विस्तार दिया। सृजन विस्तार । चाहे वे स्टेज एक्टर हों या फिल्मी एक्टर... उन्होंने विभिन्न चरित्रों में अभिनय के नए-नए शेड्स दिए। तीन दशकसे अधिक के अपने क़लातमक़ करियर में हर तरह के किरदार में वे खूब जमे । ‘स्पर्श’ और ‘मासूम’ में उनके परफॉरमेंस को कैसे भुलाया जा सकता है।


बाराबंकी (उत्तर प्रदेश) में जन्मे नसीर ने जहां राष्टरीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) से थिएटर का प्रशिक्षण लिया, वहीं भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) से सिनेमा के गुर सीखे।

मशहूर फिल्मकार श्याम बेनेगल की फिल्म ‘निशान्त’, ‘मंथन’ और ‘भूमिका’ में नसीर ने अपने अभिनय द्वारा सहज ही ध्यान आकृष्ट किया। अपनी कलात्मकता को ऊंचाई दी। १९७० के दशक में समांतर सिनेमा आंदोलन के दौर में उनकी प्रतिभा को बड़ी सम्मानित पहचान मिली। साईं परांजपे के स्पर्श, सईद मिर्जा के अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है, गोविंद निहलानी के ‘आक्रोश’ और केतन महता के ‘मिर्च मसाले’ में नसीरुद्दीन शाह के चरित्र ने हिंदी सिनेमा को अभिनय की उल्लेखनीय छटा दी।

इसके अतिरिक्त व्यवसायिक फिल्मों ‘कर्मा’, ‘जलवा’ और ‘त्रिदेव’ आदि में भी अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया। मुख्य धारा की व्यवसायिक फिल्मों में हास्य से भिगी चारित्रिक और खल भूमिकाओं में भी वे अपने अभिनय को विस्तार और विविधता देते नजर आए। शाह ने हॉलीवुड में भी कुछ फिल्में की हैं। साथ ही मिर्जा गालिब और भारत एक खोज जैसे टीवी धारावाहिकों में भी काम किया है।

उन्हें सर्वश्रेष्टï अभिनय के लिए तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार मिले। १९८० में ‘आक्रोश’ १९८१ में ‘चक्र’ और १९८३ में ‘मासूम’ के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार विजेता बने। गौतम घोष के ‘पार’ में संजीदगीपूर्ण भावाभिनय के लिए उन्हें १९८४ वेनिस फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का वोल्पीकप मिला। इसी फिल्म पर वे १९८४ में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के रूप में राष्टï्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता भी बने।

नसीर का मन आज भी थिएटर में ही रमता है। वे अभिनय की तलाश में आज भी जिज्ञासु बने हुए हैं। नसीर ने कभी भी अपने कलाकार से समझौता नहीं किया। अच्छे चरित्र और बेहतरीन पटकथा की उनकी तलाश जारी है। वही किरदार चुनते हैं, जो उनहें छूते हैं कोई भी ऐसी फिल्म नहीं करते, जिसमें मजा न आए। नसीर का मानना है िक़ जब भी उन्होंने कोई भी फिल्म बेमन से की है, वह लोगों न॓ भी पसंद नहीं क़ी है। सृजन सरोकारों के समय वे हमेशा गतिशील बने रहें। जीवन की गति के साथ। तुम जियो हजारों साल...। जीवेत् शरद: शतम ।



फिल्मोग्राफी—

१९७५ : निशान्त

१९७६ : मंथन, भूमिका

१९७६ : मंथन, भूमिका

१९७७ : गोघूलि

१९७८ : जुनून

१९७९ : सुनयना, स्पर्श

१९८० : आक्रोश, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा

क्यों आता है, अंधेर नगरी, चक्र

१९८१ : सजा-ए-मौत, उमराव जान, आधारशिला

१९८२ : बेजुबान, बाजार, मासूम, स्वामी दादा

१९८३ : अद्र्ध सत्य, मंडी, वो सात दिन

१९८४ : पार्टी, पार

१९८५ : बहु की आवाज, गुलामी, मिर्च मसाला, त्रिकाल, खामोश

१९८६ : कर्मा, जलवा

१९८७ : इजाजत

१९८८ : जुल्म को जला दूंगा, हिरो हिरालाल

१९८९ : त्रिदेव, खोज

१९९० : चोर पे मोर

१९९१ : शिकारी, लिबास

१९९२ : विश्वात्मा, तहलका, चमत्कार

१९९३ : सर, कभी हां-कभी ना

१९९४ : मोहरा, द्रोहकाल

१९९५: नाजायज, टक्कर

१९९६ : चाहत, हिम्मत

१९९७ : लहू के दो रंग

१९९८ : सरफरोश

१९९९ : भोपाल एक्सप्रेस

२००० : गजगामिनी

२००१ : मोक्ष

१९७७ : गोघूलि

१९७८ : जुनून

१९७९ : सुनयना, स्पर्श

१९८० : आक्रोश, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा

क्यों आता है, अंधेर नगरी, चक्र

१९८१ : सजा-ए-मौत, उमराव जान, आधारशिला

१९८२ : बेजुबान, बाजार, मासूम, स्वामी दादा

१९८३ : अद्र्ध सत्य, मंडी, वो सात दिन

१९८४ : पार्टी, पार

१९८५ : बहु की आवाज, गुलामी, मिर्च मसाला, त्रिकाल, खामोश

१९८६ : कर्मा, जलवा

१९८७ : इजाजत

१९८८ : जुल्म को जला दूंगा, हिरो हिरालाल

१९८९ : त्रिदेव, खोज

१९९० : चोर पे मोर

१९९१ : शिकारी, लिबास

१९९२ : विश्वात्मा, तहलका, चमत्कार

१९९३ : सर, कभी हां-कभी ना

१९९४ : मोहरा, द्रोहकाल

१९९५: नाजायज, टक्कर

१९९६ : चाहत, हिम्मत

१९९७ : लहू के दो रंग

१९९८ : सरफरोश

१९९९ : भोपाल एक्सप्रेस

२००० : गजगामिनी

२००१ : मोक्ष



शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

मणि कौल : सिनेमा संसार की अप्रतिम उपलब्धि

25 DECEMBER 1944-6 JULY 2011
सिनेमा एक कला है। जीवन के विविध आयामों को पर्दे पर उकेरना निश्चित ही एक कठिन विधा है। जनमानस की कलात्मक अभिव्यक्ति सिनेमा को नया प्रारूप देती है। रंग देती है । जीवन देती है । कला के बहुरंगी रंगों में रंगकर अभिव्यक्तियां और भी मुखर हो उठती हैं। विविध सुरों-लयों-तालों में नाच-गाकर सिनेमाई छवियां तरंगित हो उठती हैं। पर्दे पर जीवन नये रूप में उभर आता है। कलात्मक फिल्में कला को सम्मान देने का नाम है। व्यवसायिक फिल्मों के समय में चमक-दमक और ग्लैमर से परे कला फिल्मों की सफलता एक चुनौती है। व्यवसायिक फिल्मों के साथ बदलती दर्शकों की पसंद के बीच जगह बनाना एक उपलब्धि है। ऐसी उपलब्धि और जगह महान निर्देशक ही बना पाते हैं। मणि कौल ऐसे ही महान निर्देशकों में थे जन्होंने कला और समानांतर फिल्मों की चुनौतियों को स्वीकारा ही नहीं जिया भी। विविध कला-प्रारूपों को सिनेमा में गूंथकर पर्दे पर ले आये। चित्रकला और मूर्तिकला के रंग भरे और गढ़े। संगीत, नृत्य, वाद्य-यंत्रों के साजो-सामान, सुर लहरियों, तालों-थपकियों को सिनेमा में नई जगह दिलाई। एकबहुआयामी सर्जकके रूप में मणि कौल ने जो कुछ दिया वह सिनेमा संसार की अप्रतिम उपलब्धि है।

भारतीय सिनेमा इतिहास के पुरोधाओं में शुमार ऋत्विक घटक के शिष्य और निर्देशक महेश कौल के भतीजे मणि कौल जटिल, वास्तविक और अद्वितीय सिनेमाई भाषा के विकास के लिए जाने गये। जोधपुर राजस्थान में जन्मे मणी कौल ने जयपुर युनिवर्सिटी तथा फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे से शिक्षा प्राप्त की। छोटी उम्र से ही सिनेमा की ओर रुझान रखने वाले मणि ने अपने करियर की शुरुआत छोटी-मोटी एक्टिंग असाइनमेंट्स और लघु फिल्मों के निर्देशन के साथ की। १९६९ में इन्होंने अपनी पहली फीचर फिल्म ‘उसकी रोटी’ बनाई, जिसे आज नये भारतीय सिनेमा आंदोलन के पथ-प्रदर्शक के तौर पर देखा जाता है। फिल्म की लघु वर्णनीय तथा प्रयोगात्मक शैली इसे भारतीय सिनेमा के स्थापित मूल्य से अलग करती है और इसने गम्भीर आलोचनात्मक समीक्षायें भी बटोरी। इस फिल्म को १९७० के सर्वश्रेष्ठ फिल्मफेयर क्रिटिक्स अवार्ड से सम्मानित किया गया।


कौल प्रयोगधर्मी निर्देशक थे और अपनी फिल्मों में हमेशा नई सम्भावनायें तथा उतकृष्टïतायें तलाशते रहते थे। ‘आषाढ़ का एक दिन’ (१९७१)तथा ‘दुविधा’(१९७३) इसी श्रेणी की फिल्में थी। ‘दुविधा’ ने मणी को १९७३ के सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी दिलाया। शास्त्रीय संगीत के राग ध्रुपद में मणी की गहरी अभिरुचि थी। इन्होंने डागर बंधुओं से इस राग की प्रेरणा भी ली। उनका वृत चित्र ‘ध्रुपद’ (१९८२) इस राग के स्पेसों और प्रकाश के विविध उपयोगों के संगीतमय आयाम को प्रदर्शित करता है। आगे चलकर नये निर्देशकों में भी मणी तथा ‘ध्रुपद’ के प्रति के विविध उपयोगों के संगीतमय आयाम को प्रदर्शित करता है। आगे चलकर नए निर्देशकों में भी मणी तथा ‘धु्रपद’ के प्रति विशेष अनुरक्ति देखी गई।

संगीत तथा कलाकारों के लिए लगाव कौल की फिल्मों में सहज ही नये निर्देशकों में भी मणी तथा ‘ध्रुपद’ के प्रति विशेष अनुशक्ति देखी गयी। लगाव कौल की फिल्मों में सहज ही दिख जाता है। सुप्रसिद्ध ठुमरी गायिका सिद्धेश्वरी देवी पर आघृत उनका फीचर ‘सिद्धेश्वरी’(१९८९) अपने तरह की अलग फिल्म है। फिल्म में सिद्धेश्वरी देवी के जीवन की विविध भाव भंगिमाओं, अवस्थाओं, पड़ावों तथा अलग फिल्म है। फिल्म में सिद्घेश्वरी देवी के जीवन की विविध भाव भंगमाओं, अवस्थाओं, पड़ावों तथा विशेषत: संगीत के माध्यमों द्वारा दर्शाया गया है। फिल्म देखकर ऐसा लगता है कि फिल्म ‘ठुमरी’ की ही संगीतमय लहरों की तरह सिद्धेश्वरी देवी की बानगी है। जिसमें संगीत तथा उनकी जीवनगाथा एकाकार-सी लगती है। इस फिल्म को (१९८९) का राष्ट्रीय कला फिल्म पुरस्कार मिला।

मणि की कला-मिमांसा संगीत तक ही सीमित नहीं रहती वरन् विभिन्न कला प्रारूपों को छूती हुई इनकी फिल्में में समाहित हैं। टेराकोटा मूर्तियों तथा परंपरा पर आघृत ‘मति मानस’ (१९८४) ने अपार प्रशंसा बटोरी। साथ ही मलिक मुहम्मद जायसी की एक कविता से अभिप्रेरित तथा संस्कृत साहित्य से ली गई एक प्रेम कहानी पर बनी फिल्म ‘द क्लाउड डोर’ ने भी विशिष्ट आलोचनात्मक समीक्षायें जुटाई। मणी कौल की आखिरी फीचर फिल्म विनोद कुमार शुक्ला लिखित ‘नौकर की कमीज’ (१९९८) रही। महान निर्देशक और कला प्रेमी मणी कौल की मृत्यु ६६ वर्ष की उम्र में ६ जुलाई, २०११ को हो गई। फीचर तथा डाक्यूमेंट्री दोनों ही तरह की फिल्में बनाने वाले मणि की फिल्मों में कला के विविध प्रारूप हमेशा मौजूद रहे। उनके वृत्तचित्रों तथा फीचरों की विभाजन रेखा भी काफी महीन होती थी। हमेशा उत्कृष्ट एवं कलात्मक फिल्में बनाने वाले कौल भारत में समानांतर फिल्मों के जनकों में शुमार नाम भर ही नहीं थे बल्कि एक महान सर्जक, गुरु, दोस्त और ईंसान भी थे। भारतीय सिनेमा को उनकी कमी हमेशा खलेगी। सचमुच कवि-कथाकार के उदय प्रकाश के शब्दों में- मणि कौल का जाना कला किरीÅ से एक मणि का कम हो जाना है।