शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

मणि कौल : सिनेमा संसार की अप्रतिम उपलब्धि

25 DECEMBER 1944-6 JULY 2011
सिनेमा एक कला है। जीवन के विविध आयामों को पर्दे पर उकेरना निश्चित ही एक कठिन विधा है। जनमानस की कलात्मक अभिव्यक्ति सिनेमा को नया प्रारूप देती है। रंग देती है । जीवन देती है । कला के बहुरंगी रंगों में रंगकर अभिव्यक्तियां और भी मुखर हो उठती हैं। विविध सुरों-लयों-तालों में नाच-गाकर सिनेमाई छवियां तरंगित हो उठती हैं। पर्दे पर जीवन नये रूप में उभर आता है। कलात्मक फिल्में कला को सम्मान देने का नाम है। व्यवसायिक फिल्मों के समय में चमक-दमक और ग्लैमर से परे कला फिल्मों की सफलता एक चुनौती है। व्यवसायिक फिल्मों के साथ बदलती दर्शकों की पसंद के बीच जगह बनाना एक उपलब्धि है। ऐसी उपलब्धि और जगह महान निर्देशक ही बना पाते हैं। मणि कौल ऐसे ही महान निर्देशकों में थे जन्होंने कला और समानांतर फिल्मों की चुनौतियों को स्वीकारा ही नहीं जिया भी। विविध कला-प्रारूपों को सिनेमा में गूंथकर पर्दे पर ले आये। चित्रकला और मूर्तिकला के रंग भरे और गढ़े। संगीत, नृत्य, वाद्य-यंत्रों के साजो-सामान, सुर लहरियों, तालों-थपकियों को सिनेमा में नई जगह दिलाई। एकबहुआयामी सर्जकके रूप में मणि कौल ने जो कुछ दिया वह सिनेमा संसार की अप्रतिम उपलब्धि है।

भारतीय सिनेमा इतिहास के पुरोधाओं में शुमार ऋत्विक घटक के शिष्य और निर्देशक महेश कौल के भतीजे मणि कौल जटिल, वास्तविक और अद्वितीय सिनेमाई भाषा के विकास के लिए जाने गये। जोधपुर राजस्थान में जन्मे मणी कौल ने जयपुर युनिवर्सिटी तथा फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे से शिक्षा प्राप्त की। छोटी उम्र से ही सिनेमा की ओर रुझान रखने वाले मणि ने अपने करियर की शुरुआत छोटी-मोटी एक्टिंग असाइनमेंट्स और लघु फिल्मों के निर्देशन के साथ की। १९६९ में इन्होंने अपनी पहली फीचर फिल्म ‘उसकी रोटी’ बनाई, जिसे आज नये भारतीय सिनेमा आंदोलन के पथ-प्रदर्शक के तौर पर देखा जाता है। फिल्म की लघु वर्णनीय तथा प्रयोगात्मक शैली इसे भारतीय सिनेमा के स्थापित मूल्य से अलग करती है और इसने गम्भीर आलोचनात्मक समीक्षायें भी बटोरी। इस फिल्म को १९७० के सर्वश्रेष्ठ फिल्मफेयर क्रिटिक्स अवार्ड से सम्मानित किया गया।


कौल प्रयोगधर्मी निर्देशक थे और अपनी फिल्मों में हमेशा नई सम्भावनायें तथा उतकृष्टïतायें तलाशते रहते थे। ‘आषाढ़ का एक दिन’ (१९७१)तथा ‘दुविधा’(१९७३) इसी श्रेणी की फिल्में थी। ‘दुविधा’ ने मणी को १९७३ के सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी दिलाया। शास्त्रीय संगीत के राग ध्रुपद में मणी की गहरी अभिरुचि थी। इन्होंने डागर बंधुओं से इस राग की प्रेरणा भी ली। उनका वृत चित्र ‘ध्रुपद’ (१९८२) इस राग के स्पेसों और प्रकाश के विविध उपयोगों के संगीतमय आयाम को प्रदर्शित करता है। आगे चलकर नये निर्देशकों में भी मणी तथा ‘ध्रुपद’ के प्रति के विविध उपयोगों के संगीतमय आयाम को प्रदर्शित करता है। आगे चलकर नए निर्देशकों में भी मणी तथा ‘धु्रपद’ के प्रति विशेष अनुरक्ति देखी गई।

संगीत तथा कलाकारों के लिए लगाव कौल की फिल्मों में सहज ही नये निर्देशकों में भी मणी तथा ‘ध्रुपद’ के प्रति विशेष अनुशक्ति देखी गयी। लगाव कौल की फिल्मों में सहज ही दिख जाता है। सुप्रसिद्ध ठुमरी गायिका सिद्धेश्वरी देवी पर आघृत उनका फीचर ‘सिद्धेश्वरी’(१९८९) अपने तरह की अलग फिल्म है। फिल्म में सिद्धेश्वरी देवी के जीवन की विविध भाव भंगिमाओं, अवस्थाओं, पड़ावों तथा अलग फिल्म है। फिल्म में सिद्घेश्वरी देवी के जीवन की विविध भाव भंगमाओं, अवस्थाओं, पड़ावों तथा विशेषत: संगीत के माध्यमों द्वारा दर्शाया गया है। फिल्म देखकर ऐसा लगता है कि फिल्म ‘ठुमरी’ की ही संगीतमय लहरों की तरह सिद्धेश्वरी देवी की बानगी है। जिसमें संगीत तथा उनकी जीवनगाथा एकाकार-सी लगती है। इस फिल्म को (१९८९) का राष्ट्रीय कला फिल्म पुरस्कार मिला।

मणि की कला-मिमांसा संगीत तक ही सीमित नहीं रहती वरन् विभिन्न कला प्रारूपों को छूती हुई इनकी फिल्में में समाहित हैं। टेराकोटा मूर्तियों तथा परंपरा पर आघृत ‘मति मानस’ (१९८४) ने अपार प्रशंसा बटोरी। साथ ही मलिक मुहम्मद जायसी की एक कविता से अभिप्रेरित तथा संस्कृत साहित्य से ली गई एक प्रेम कहानी पर बनी फिल्म ‘द क्लाउड डोर’ ने भी विशिष्ट आलोचनात्मक समीक्षायें जुटाई। मणी कौल की आखिरी फीचर फिल्म विनोद कुमार शुक्ला लिखित ‘नौकर की कमीज’ (१९९८) रही। महान निर्देशक और कला प्रेमी मणी कौल की मृत्यु ६६ वर्ष की उम्र में ६ जुलाई, २०११ को हो गई। फीचर तथा डाक्यूमेंट्री दोनों ही तरह की फिल्में बनाने वाले मणि की फिल्मों में कला के विविध प्रारूप हमेशा मौजूद रहे। उनके वृत्तचित्रों तथा फीचरों की विभाजन रेखा भी काफी महीन होती थी। हमेशा उत्कृष्ट एवं कलात्मक फिल्में बनाने वाले कौल भारत में समानांतर फिल्मों के जनकों में शुमार नाम भर ही नहीं थे बल्कि एक महान सर्जक, गुरु, दोस्त और ईंसान भी थे। भारतीय सिनेमा को उनकी कमी हमेशा खलेगी। सचमुच कवि-कथाकार के उदय प्रकाश के शब्दों में- मणि कौल का जाना कला किरीÅ से एक मणि का कम हो जाना है।





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