शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

हमारे ख्वाबों में खनकता घुँघरू :वैजयंती माला


भारतीय सिनेमा में वैजयंती माला नया इतिहास लेकर आती हैं। दक्षिण भारत का नमकीन पानी रग-रग में समाये वैजयंती माला नृत्य में थिरकते हुए पांव बंबई सिनेमा जगत में हौले-हौले रखती हैं और सिने-जगत उनके घुंघरुओं की आवाज से खनक उठता है। धीरे-धीरे यह खनक दर्शकों के बीच पहुंच जाती है। और दर्शक शास्त्रीय-नृत्य के मोहपाश में बंध-से जाते हैं। हमारे सामने और ख्‍वाबों में एक अकेला घुंघरू खनक उठता है। एक जोड़ी आँखों का नृत्यभरा अभिनय और दो थिरकते कदम हमारे अंदर नई ऊर्जा का संचार करने लगते हैं। यह नई ऊर्जा हमारा रोम-रोम कंपा देती है और हम नृत्य संग झूम उठते हैं। सिनेमा को लय-ताल संग पिरोकर चमकती आंखों से देखने लगते हैं। वैजयंतीमाला के नृत्य में सधे हुए पांव नई बानगी लिखते हैं। उनके नृत्य को ध्यान में रखकर स्क्रिप्‍ट लिखे जाने लगे और हम फिल्मों संग झूमने के आदी हो गए। इस तरह वैजयंती माला एक नई परंपरा रच डालती हैं।






कुशल अभिनेत्री और नृत्यांगना वैजयंती माला का जन्म मद्रास, तमिलनाडु में हुआ। दक्षिण से आकर बंबई फिल्म इंडस्ट्री में भाग्य चमकाने वाली पहली अभिनेत्रियों में ये एक हैं। वैजयंती माला ने अपने कॅरियर की शुरुआत निर्देशक एमवी रमन की तमिल फिल्म ‘वझकाई’ से की। हिंदी फिल्मों की शुरुआत 1951 में फिल्म ‘बहार’ से की। नंदलाल जसवंतलाल की फिल्म ‘नागिन’ ने उन्हें शीर्ष पर पहुंचा दिया। ‘मन डोले मेरा तन डोले...’ गाने में उनके सर्प-नृत्य ने जैसे एक इतिहास रच डाला। भरतनाट्यम की अपनी ट्रेनिंग का उपयोग वैजयंतीमाला ने अपनी लगभग सभी मुख्य फिल्मों में किया। जैसे-‘देवदास’, ‘न्यू देल्ही’ और ‘गंगा-जमुना’, जिनमें उनकी नृत्य प्रतिभा को ध्यान में रखकर ही स्क्रिप्‍ट लिखे गये। इस तरह फिल्मों में नृत्य को स्थान दिलाने की परंपरा हेमा मालिनी, जयाप्रदा और श्रीदेवी सरीखी अभिनेत्रियों ने आगे बढ़ाई और डांसर एक्ट्रेस में परिणत हो गईं।



दिलीप कुमार के साथ वैजयंती माला ने अद्भुत सफल ऑन-स्क्रीन जोड़ी बनाई और उनके साथ ‘नया दौर’, ‘गंगा-जमुना’ और ‘मधुमती’ जैसी हिट फिल्मों में दिखीं। इनकी अन्य सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में ‘ज्वेल थीफ’ और ‘संगम’ शामिल हैं। इन्होंने तीन बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार जीता। 1958 में ‘साधना’ के लिये 1961 में ‘गंगा-जमुना’ के लिये और 1964 में ‘संगम’ के लिये। बाद में वैजयंती माला राजनीति से जुड़ीं और 1984 में संसद सदस्य बनीं। 1995 में इन्हें लाइफटाइम अचिवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया गया। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘बॉन्डिंग-अ मेम्योर’ भी लिखी, जिसमें अपने बचपन से अब तक की तस्वीर उकेरी है। अभिनेत्री सह नृत्यांगना की निर्मित उनकी छवि अब नया कलेवर धारण कर चुकी है। यह छवि अब शास्त्रीय नृत्य से डिस्को थेक तक का सफर तय कर चुकी है।



आज अभिनेत्रियों का संगीत के सुरों में ताल मिलाना अवश्यंभावी सा है। वैजयंती माला नृत्य को इसी तरह सिनेमा की जान बना देती हैं। अभिनेत्रियां उनकी परंपरा को जीने लगती हैं। लेकिन, अप्सराओं के घुंघरुओं सी खनक हमारे ख्यालों में खनकती रहे और अभिनय आंखों के सामने नाचता रहे, ऐसा तो वैजयंती माला के नृत्य में सधे हुये पांव ही कर सकते हैं।



इनकी प्रमुख फिल्‍में 1951 में बहार, 1952 में अंजाम, 1953 में लड़की, 1954 में नागिन, 1955 में देवदास, 1956 में ताज, 1957 में नया दौर, 1958 में मधुमती, 1959 में पैगाम, 1961 में गंगा-यमुना, 1962 में रंगोली, 1964 में संगम, 1965 में नया कानून, 1966 में आम्रपाली, 1967 में ज्वेल थीफ, 1968 में साथी, 1969 में प्रिंस और 1970 में गंवार शामिल है.



शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

अभी तो वे जवान हैं .......

एक जनवरी काशीनाथ सिंह के जन्‍मदिन पर : काशीनाथ सिंह का लेखन गांव-जवार की बोली-वाणी से संचालित होता है। उनकी भाषा में जिंदगी और जिन्दादिली से भरे हुए भाव अनिवार्य रूप से मौजूद हैं। ग्लोबल दुनिया में उनकी भाषा ग्लोबल नहीं, गर्वीली है। वहां जीवन हू-ब-हू उसी रूप में मौजूद है जिसमें कि असल जीवन सांस लेता है। हंसी-मजाक, भदेसपन, व्यंग्य-विनोद, टिटकारी, चुहलपन, गाली-गलौज, खिलंदड़पन अंदाज से सराबोर भाषा को अगर असल रूप में न देखा जाए तो लगेगा कि अरे यह तो किशोरचित हरकतें हैं, जिसे बुढ़ापे में भी काशीनाथ अंजाम दे रहे हैं। पर यदि समय-समाज के बदलाव और अपने समय से जूझने और बूझने के उद्यम के रूप में देखेंगे तो लगेगा की अरे यही तो हम सोच रहे थे।





वह समय-संस्कृति को जीवन की आंख से आंकते हैं। उन्हें कबीर की तरह चिंता है कि ‘ठगवा नगरिया को लूट न ले जाए।’ ‘कौन ठगवा नगरिया लूटल हो’- में जो उन्होंने हमारी हंसी-खुशी को छीन लेने वाले, ईश्वर को गुलाम बनाने वाले, बाजार परोसने वालों को जीवन के नजरिये से चिन्हित किया है, वह अपने कथ्य और शिल्प में अद्भुत है। राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों ने इसका नाट्य मंचन भी किया है। जीवन की संस्कृति के रंग को वे बहुत ‘वैचारिकता की राजनीति’ में न जाकर उसी जीवन को उसके असल संदर्भ से देखते हैं। और तब लगने लगता है कि सिद्धांत में नहीं, बल्कि जनजीवन के व्यवहार में वे वैश्वीकरण, बाजार और बाजारूपन के खिलाफ हो-हल्ला बोलते हैं। अब यह भी कहा जाता है कि वैचारिकता उनके लिए बस किताबी मामला रह गया है। उनकी 60वीं वर्षगांठ पर प्रो. बलराज पांडे ने अपने गुरु को इस रूप में देखा था (उस कार्यक्रम में ‘प्रतिपक्ष’ नहीं था)- ‘जीयनपुर (काशीनाथ जी का गांव) की नागफनी के फल से निकला रसवाला लाल रंग अब सिर्फ पुस्तक तक ही सिमट कर रह गया है, व्यवहार जगत से उसका कोई रिश्ता शेष न रहा।’



काशीनाथ के लिए लिखना जीवन से अलग नहीं है (इसका मतलब यह नहीं कि दूसरों के लिए लिखना जीवन से अलग है)। गांव-गंवई और हमारे जीवन की आत्मा का अपहरण करने वाली डॉलर संस्कृति को वे ‘पूतना की गोद’ कहते हैं। ‘काशी का अस्सी’ के ‘संतों, असंतों और घोंघाबसंतों का अस्सी’ में ग्लोबलाइजेशन को जिस अंदाज में उनके पात्र ने समझाया है उसे सिर्फ बतकही या खाली दिमाग शैतान का समझना भारी भूल होगी। ...‘‘ है हमारी हैसियत एक बार भी अमेरिका जाने की? हमारा घर उनका घर है लेकिन उनका घर उन्हीं का घर है, हमारा-तुम्हारा नहीं। ... कल बनारस को चमकाएंगे, परसों दिल्ली को ठीक करेंगे, नरसों पूरे देश को ही गोद ले लेंगे और झुलाएंगे-खेलाएंगे अपनी गोदी में! यह बाद में पता चलेगा कि हम किसकी गोद में हैं- जसोदा मइया की कि पूतना की? ’’



चाहे वे लाई चना खा रहे हों या चूड़ा-मटर या चाय-पान पी-खा रहे हों, उनके लिए सबसे बड़ी बात है सहजता। उनसे बतियाने में ज्यादा ‘लहटम-पहटम’ नहीं करना पड़ता। हालांकि उनके वर्तमान और ‘भूत’ संगी-साथी के अनुभव इसके गवाही नहीं देते। काशी के जितने भी रंग और रूप हों, लेकिन उन्हें पढ़ते-सुनते हुए और थोड़ा बहुत बतियाते हुए यह लगा कि उनकी लेखनी की बतकही में जीवन से जूझना और बूझना अनिवार्य रूप से शामिल है। वहां बदलाव की ‘गदगदाहट’ और विकास की ‘खिलखिलाहट’ को जानने-बूझने की पहल है। उसे आम आदमी की जमीन पर उसकी मेहनत की कसौटी पर समझने की चाह है।



एक और बात जो उनमें खास है वह यह कि काशी के रंग चाहे जितना ‘पोलिटिकली करेक्ट’ हों, लेकिन वह काफी साफ है। वहां झोल-झाल नहीं है। (लेकिन उनके एक जीते-जागते पात्र की मानें तो वहां झोल-झाल के अलावा कुछ नहीं है!) अगर कहीं मुंहदेखी बात कर रहे हों, आशीर्वादी मुद्रा में हों या बचके निकल जाने वाले हों, सतर्की हों- काफी साफ और सचेत रंग हैं उनके! एक चीज जो इन सब के बावजूद खास है वह है उनका घनघोर साहस। उस साहस में कहीं से कटुता या उपद्रव नजर नहीं आता। बहुत शान्त, विनम्र और विचारणीय तथा स्पष्ट नजरिये के साथ वे बात रखते हैं।



याद है स्व. विद्यानिवास मिश्र की जयंती (14 जनवरी) पर उनके भाषण की। बहुत खुलकर पंडित जी से नामवर जी के दोस्ताना और परिवार की निकटता और पंडित जी के ‘जातिवाद’ (पंडित जी पर जातिवादी आरोप निराधार हैं ) को उन्होंने रखा और कहा कि पंडित जी का जो विचलन रहा उस पर बहस होनी चाहिए। उनके वैचारिक-रचनात्मक विकास क्रम को देखा जाना चाहिए। पंडित जी के आकाश को और ज्यादा खुला बहसतलब और गर्म रखनी चाहिए। काशी नाथ जी ‘परिस्पंद’ (विनिमि का निवास) में जब ये बोल रहे थे तो कहीं से उदण्‍ड और उपद्रवी या चोट पहुंचाने वाले नहीं दिखे, क्योंकि उनका सत्साहस सचमुच धरती पर था। पंडित जी के अवदानों को लेकर गंभीर था। यह अलग बात है कि कहने वाले यह भी चुपके से बोल पड़े कि क्या विद्यानिवास जी की उपस्थिति में भी काशीनाथ उतने ही सत्साहसी दिखते!



खैर कहने-समझने वाले तो जो कहना है कहेंगे ही। लेकिन काशीनाथ के लिए अस्सी, बनारस, जनजीवन और जनसंस्कृति, गंगा का मतलब है जिंदगी की गलियों में खुली आंखों और नंगे तलवे चलना। ‘...अरे भारतेन्दु, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, द्विवेदी ऐसा कौन है जिसे तंग मिजाज, संकीर्ण, दकियानूस, चक्करदार पथरीली गलियों ने भटकाने और भरमाने की कोशिश न की हो।’ और गंगा का उनके लिए मतलब है- अप्रतिहत गति, सतत प्रवाह, कलकल उच्छल जीवन, खुला आकाश, हवा, आवेग, प्रकाश, अछोर, अनंत विस्तार...। और अस्सी? तो भाई ‘जिसने अस्सी घाट का पानी पी लिया, उसके लिए दुनिया जहान का पानी खरा है।’ औघड़-संस्कृति की जायज-नाजायज औलादों की राष्‍ट्र भाषा से चुहेड़ों और चुडुक्कों का अड्ड़ा गुलजार रहता है। (साभार-सविनय काशीनाथ जी)



काशीनाथ जैसे चुहल, चिकोटी काटने वाले कुशल किस्सागो में बनारस की गलियां, मोहल्ले और मस्ती से भरी जीवन संस्कृति रची-बसी हई है। उनका गद्य भारतेन्दु की तरह ‘हँसमुख गद्य’ है। उनके गुरु विजय शंकर मल्ल ने भारतेन्दु के गद्य को हँसमुख कहा है। अपने गुरुओं के संस्मरण में भी काशीनाथ चुहल और चिकोटी काटने में परहेज नहीं करते, चाहे ‘वेज’ हो या ‘नॉनवेज।’ ‘‘गुरुदेव कौ अंग उर्फ बुढ़वा मंगल’’ को देख लिजिए- ‘‘मल्ल जी के बदन पर एक लम्बा भूरा कोट रहता था। यही भूरा कोट पहनकर सन् 48 में हिन्दी विभाग आए और यही पहने-पहने 81 में रिटायर हो गये।’’ चाहे डॉ. बच्चन सिंह हो या मल्ल जी या अन्य गुरु काशीनाथ ने सबसे रचना की जमीन पर बकझक एवं चुहल की है। और अपने संस्मरणों में वे गुरुओं को उसी अंदाज में बांचते हैं जैसे कॉलेज-हॉस्टल के लडक़े-लड़कियों की गॉसिप में गुरुगण चर्चा में रहते हैं।



इस मामले में वे अलग हैं कि कलम की जमीन पर वे ‘मैनेज’ नहीं होते। (चोप्प.. कौन कहता है!) ‘‘यह जरूर है कि तुम्हारे पास रायफल है लेकिन- मैं मुसकुराता हूं और अपनी जेब से एक कोरा पन्ना निकालता हूं- ‘मेरा मोर्चा यह है। यह कागज जिस पर मैं तुम-जैसों को तो क्या, अपने और अपनों को भी माफ करना नहीं जानता!’’ (अपना मोर्चा)। लेकिन अस्सी के धुरी के नागरिकों का यह भी आरोप है कि बहुचर्चित कृति ‘काशी का अस्सी’ को ही लें तो उन्होंने अस्सी को केन्द्र में रखकर बनारस और दुनिया के रंग को दिखाया है वह सिर्फ एक पक्ष है। अनेक ऐसे रंग हैं जिसे जान-बूझकर छोड़ या छेड़ दिया गया है। ‘हंस’, ‘कथादेश’, ‘तद्भव’ आदि पत्र-पत्रिकाओं में कथा रिपोर्ताज, संस्मरण, कहानी के रूप में अलग-अलग छपने वाली सामग्री को ‘आलोचकीय दबंगई’ (नामवरी) के कारण साहित्य अकादमी पुरस्कार आदि के लिए जान-बूझकर उपन्यास घोषित कर दिया गया। अब एक संत (पढ़े असंत) की मानें तो काशीनाथ की जगह अगर दूसरा ऐसा करता (जो कि करता ही नहीं) तो कब के साहित्य के घर से बहरिया दिया गया होता!



उनके जन्मदिन 01 जनवरी पर जो हो-हपड़, उत्सव बनारस के अस्सी के चाय दुकान में (धुरी बदलती रही है... कभी पप्पू के यहां तो कभी पोई के यहां..) होता है, चाय-पान, चूड़ा-मटर और ‘प्रसाद’ (दुनिया वाले नासमझी के कारण शायद इसे भांग कहते हैं) के साथ न जाने कहां-कहां से आकर लेखक और साहित्य प्रेमी काशीनाथ के सजीव पात्रों के साथ जन्मदिन मनाते हैं। अब यह कोई मायने नहीं रखता कि वे हैं या नहीं। बनारस से कभी-कभार उसी टैम उनके चल बसने के बाद भी लोग धूम-धाम से काशीनाथ की रचनात्मकता, विषय-संदर्भ और समझदारी-नासमझी की पड़ताल करते हैं। बहस, नोंक-झोंक, के ‘समीकणों’ चुहल, उलाहना, प्रशंसा और ‘मलाई-बरफ’ सब कुछ चलता है।



उनके घनघोर आलोचक, प्रशंसक, वंदक.. साहित्य प्रेमी, पात्र-कुपात्र, संत-असंत, घोंघावसंत सभी अपने लेखक के जन्म दिन को आशीर्वाद-शाप दे-दाकर सेलिब्रेट करते हैं। ‘वकील’ लेकर भी आते हैं, वकील माने ‘भंगाचार्य’ प्रो. चौथीराम यादव। उनकी उपस्थिति में भी किसी चीज की परवाह नहीं करते उनके पात्र। अब जैसे वकील (काशी के मुखर पात्र) विरेन्द्र श्रीवास्तव को ही लें- ‘‘हमहन के बातचीत-बतकही अउर गाली-गोन्हर को लिख-लाखकर काशीनाथ प्रसिद्घि का मजा मार रहे हैं और ‘रायल्टी’ बटोर रहे हैं। गुरु हमलोगों को क्या मिला?’’ ऐसे हैं काशी और काशी के पात्र। जीवन ग्लोबलाइजेशन के समीकरणों से नहीं चलता, सरोकारों की जमीन पर चलता है। जी!