शनिवार, 11 दिसंबर 2010

बहुमुखी प्रतिभा के धनी ट्रेजडी किंग

सच! उनकी उड़ती हुई रेशमी जुल्फें देख कुंवारियों का दिल मचल जाता होगा। उनके अंदाज और अभिनय का कायल हर युवक देवदास और हर बाला पारो बन प्रेम रस में डूब जाना चाहती होगी। उनकी कहानियां, सिनेमाई अफसाने दुहराये गये। साधारण सी उनकी छवि में भारतीय जन-मानस झांक उठता। दर्शक गण बार-बार उनकी फिल्में देखते। फिल्मी अभिनेता उनके ही रंग-ढंग में ढल जाना चाहते। उनकी मोर चाल में चलना चाहते, नाचना चाहते। क्या पुराणों, महापुराणों, दंतकथाओं-लोककथाओं के नायक भी ऐसे ही होते होंगे? इतने ही आकर्षक, चित्तचोर, परिपक्व!! शायद नहीं, भला कौन सा साधारण नायक बहुआयामी अभिनय रचता होगा? कभी राजकुमार, कभी किसान, कभी जोकर तो कभी प्रेमी बन जाता होगा? ऐसा तो दिलीप कुमार जैसी अद्भुत क्षमता वाले अभिनेता ही कर सकते हैं। चंचलता, शोखी, खिलंदड़पने से भरपूर गंभीर और सशक्त अभिनय को जीते, कला को जीते- सच्चे अभिनेता, सच्चे कलाकार। अमिताभ बच्चन जहां दिलीप कुमार को प्रेरणा मानते हैं, उनके अभिनय को उतारते है वहीं भारत की आवाज लता मंगेशकर भी दिलीप साहब की पैर छूती हैं।






दिलीप कुमार हिंदी सिनेमा के महानतम कलाकारों में हैं, जो अभिनय और कला का पर्याय हैं। वे सिर्फ एक ट्रैजिक हीरो, प्रेम-पगे प्रेमी ही नहीं बल्कि हंसा-हंसाकर दर्शकों को अपनी बहुंरंगी प्रतिभा से परिचित कराने वाले संपूर्ण कलाकार रहे। धोती - कुर्ते में लदे - फदे ग्रामीण की भूमिका हो या मुगल - राजकुमार की, सबमें दिलीप कुमार खूब सजे।



दिलीप कुमार का वास्तविक नाम मोहम्मद यूसुफ खान था। इनका जन्म पेशावर के किशाख्वानी के मोहल्ला खुदाबाद में हुआ। पठान परिवार में जन्में दिलीप कुमार बारह भाई-बहन थे। इनके पिता लाला गुलाम सरवर फलों के व्यापरी थे, जिनके पेशावर और देवलाली, महाराष्‍ट्र में बड़े-बड़े बागान थे। इनका परिवार 1930 में बंबई आकर बस गया। 1940 के पूर्वार्द्ध में यूसुफ खान बंबई से पुणे चले गये और वहां कैंटीन चलाने तथा सूखे मेवों के निर्यात का काम करने लगे। 1943 में देविका रानी और उनके पति, जो कि बॉम्बे टॉकिज फिल्म स्टूडियो के संस्थापक भी थे, ने पुणे के औध मिलीटरी कैंटिन्स में दिलीप कुमार को देखा। उन्होंने फिल्म इण्डस्ट्री में दिलीप की एंट्री में मदद की।



हिंदी के प्रख्यात लेखक भगवती चरण वर्मा ने यूसुफ खान को दिलीप कुमार का नाम दिया और अपनी फिल्म ‘ज्वार-भाटा’(1944) में मुख्य भूमिका दी। इसके बाद दिलीप कुमार ने 1947 में फिल्म ‘जुगनू’ की। 1949 में राजकुमार के साथ रोमांटिक फिल्म ‘अंदाज’ और 1955 में देवानंद के साथ ‘इंसानियत’ की। इन्होंने ‘दीदार’ (1951), ‘अमर’ (1954), ‘देवदास’ (1955) और ‘मधुमति’ (1958) जैसी गंभीर फिल्में की। दिलीप कुमार ने विभिन्न आयामों वाली कई फिल्में कीं, जिनमें शामिल हैं हल्के-फुल्के रोल वाली फिल्में जैसे- ‘आन’ (1952), कॉमिक फिल्में जैसे - ‘अंदाज’, ऐतिहासिक फिल्म ‘मुगल-ए-आजम’ तथा डबल-ट्रिपल रोल वाली फिल्में जैसे ‘बैराग’ (1976) और ‘राम और श्याम’ (1967)। इसके बाद कुछ वर्षो के अंतराल तक उन्‍होंने फिल्‍मों से दूरी बना ली, इसके बाद 1982 में फिल्म ‘क्रांति’ से वापसी की। विभिन्न प्रकार की चरित्र प्रधान फिल्में ‘शक्ति’ (1981), ‘विधाता’ (1982), ‘मशाल’ (1984) और ‘कर्मा’ (1986) की। 1982 में फिल्म ‘शक्ति’ के लिये दिलीप कुमार को बेस्ट ऐक्टर का खिताब भी मिला। ‘किला’ (1998) उनकी आखिरी फिल्म थी। उनकी फिल्म ‘मुगल-ए-आजम’ और ‘नया दौर’ रंगीन बनाई गई तथा दोबारा रिलीज हुई। फिल्म ‘सौदागर’ (1991) में भी उनकी परिपक्व भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।



दिलीप कुमार को ‘एक्टिंग का इंस्टीट्यूट’ कहा जाता है और कई सफल अभिनेता जैसे मनोज कुमार, अमिताभ बच्चन आदि उनके तौर-तरीकों तथा एक्टिंग स्टाइल से प्रेरणा लेते रहे हैं। दिलीप कुमार ने अभिनेत्री और सौंदर्य की मल्लिका सायरा बानो से शादी की। उनके भाई हैं नासिर खान, एहसान खान और असलम खान। छोटे भाई नासिर खान भी अभिनेता थे और दिलीप कुमार के साथ ‘गंगा-जमुना’(1961) तथा ‘बैराग’ (1976) में दिखे।



दिलीप कुमार संसद के सदस्य रहे हैं। और इन्होंने भारत-पाकिस्तान के लोगों को करीब लाने में सक्रिय प्रयास किये हैं। लंबे फिल्मी करियर में दिलीप ने कई अवार्ड जीते, जिनमें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए आठ फिल्म फेयर अवार्ड शामिल हैं। 1993 में इन्हें फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड मिला। सिनेमा के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ अवार्ड ‘दादा साहब फाल्के’ अवार्ड से भी 1994 में इन्हें सम्मानित किया गया। 1980 में दिलीप साहब को मुंबई का शैरिफ नियुक्त किया गया। भारत सरकार की तरफ से 1991 में पद्म-भूषण से सम्मानित किये गए। 1997 में कुमार को पाकिस्तान का सर्वश्रेष्ठ नागरिक सम्मान ‘निशान-ए-पाकिस्तान’ भी प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त 1997 में एमटीआर नेशनल अवार्ड और 2009 में सीएनएन-आईबीएन लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड भी इन्हें मिला।



आज 85 से भी अधिक की उम्र में सक्रिय दिलीप कुमार एक अभिनेता ही नहीं भारतीय संस्कृति के राजदूत हैं। निरंतर सीखने की उनकी जीजिविषा ही उन्हें औरों से अलग बनाती है। दिलीप कुमार अभिनय ही नहीं, कला के हर रंग के प्रेमी हैं। हम उनका गाया गाना ‘लागी नहीं छूटे रामा चाहे जिया जाये’ (मुसाफिर)सुन सकते हैं। ‘कोहिनूर’ में उन्हें सितार बजाता देख सकते हैं। लता मंगेशकर के साथ ठुमरी गाता (मुसाफिर) सुन सकते हैं तो सायरा बानो के प्रोडक्शन में मदद करता देख सकते हैं। सीखने की उनकी ललक आज भी बाकी है। तभी तो हैं वो समृद्ध राजनीतिक और सामाजिक रूप से... चिरयुवा... चमकते हुए...!!

सोमवार, 29 नवंबर 2010

पृथ्वीराज कपूर ---उनकी कला को कभी भूला नहीं पाते....

वह भारत में सिनेमा के पुनर्जन्म का युग था। भारतीय सिनेमा नये रंग-रूप में अवतार ले रहा था। अब फिल्में बोलने लगी थीं। दर्शक कलाकारों की आवाजें सुन सकते थे। उन आवाजों में अपनी चेतना में छाये पात्रों को सुन सकते थे। अब तक मूक अभिनय करते कलाकारों का बोलना सचमुच सुखद था। दर्शक विस्मित थे। भाव-विभोर हो नये कलेवर में बोलती फिल्मों के संवाद सुन सकते थे। उन संवादों को दोहरा सकते थे। अभिनेताओं की आवाजों का अभिनय अपनी भाषा में कर सकते थे। इन फिल्मों का भारतीय परिदृश्य में आगमन किसी रहस्य की तरह था। कला के किसी रूप या जनसंचार के किसी माध्यम ने इतने कम समय में इतनी बड़ी क्रांति नहीं की थी। इन फिल्मों ने भारतीय सिनेमा को नया आयाम दिया। पृथ्वीराज कपूर ऐसे ही संवेदनशील समय के सशक्त अभिनेता थे। उन्होंने पहली ‘टॉकी’ फिल्म ‘आलम-आरा’ में अभिनय किया। सुंदर कद-काठी, आकर्षक व्यक्तित्व और रोबिली आवाज के साथ फिल्मों में छा गये। दर्शक उनके कायल हो गये।






कहते हैं कि मुम्बई की धरती पर कदम रखते ही पृथ्वीराज कपूर ने आसमान में हाथ उठाकर कहा- ‘‘हे ईश्वर, अगर तुमने मुझे यहां अभिनेता नहीं बनाया तो मैं तैर कर साथ समुंदर पार करूंगा और हॉलीवुड चला जाऊंगा। मेरे लिए कला एक तड़प है, स्पंदन है, जीवन है। मैं चाहता हूं कि कला जनजीवन का दर्पण बने, जिसमें लोग खुद को देख सकें, संवार सकें, सुंदर बन सकें, उन्नति कर सकें। सच्ची कला वह है जो जीवन को सही मायने में चित्रित करे।’’



शावर (अब पाकिस्तान में) जन्में, पृथ्वीराज कपूर ने अपने अभिनय करियर की शुरुआत थियेटर में काम करते हुये लीलापुर और पेशावर से की। 1920 के दशक में वे बंबई में ‘इम्पीरियल फिल्म कंपनी’ से जुड़े और फिल्म ‘सिनेमा गर्ल’ से धमाकेदार शुरुआत की। भारत की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ में महान अभिनय का प्रदर्शन कर अपनी अद्वितीय छा जाने वाली आवाज के लिये जाने गये। 1930 के पूरे दशक में कलकत्ता स्थित ‘न्यू थियेटर्स’ द्वारा प्रदर्शित फिल्मों में मुख्य भूमिकाएं निभाई। देबकी बोस द्वारा निर्देशित फिल्म ‘राजरानी मीरा’ पृथ्वीराज कपूर का बेमिसाल प्रदर्शन रही। इस फिल्म की सफलता के साथ ही एक अन्य सफल फिल्म ‘सीता’ की, जिसमें इन्होंने राम की भूमिका निभाई। न्यू थियेटर्स में इनकी अन्य बहुचर्चित फिल्म ‘विद्यापति’ थी, जिसमें देबकी बोस ने मिथिला के राजकवि की जीवनी को स्वरूप दिया।



1930 के दशक के अंत में पृथ्वीराज कपूर वापस बंबई आ गये। बंबई वापसी के बाद इन्होंने चंदूलाल शाह की रंजीत स्टूडियोज से प्रसारित दो सफल फिल्में ‘पागल’ और ‘अधूरी कहानी’ की। बाद के वर्षों में किसी भी स्टूडियो से न जुडक़र पृथ्वीराज कपूर ने स्वतंत्र अभिनेता की तरह काम करना प्रारंभ किया और सोहराब मोदी की ‘सिकंदर’ में एलेक्जेंडर द ग्रेट की भूमिका अदा की। मनोहर कद-काठी और असाधारण अभिनय प्रतिभा के बल पर ‘आवारा’ और ‘मुगले-आजम’ जैसी फिल्मों में राजसी ठाठ-बाट और पोशाक में खूब सजे साथ ही रजवाड़ों की शान का बेमिसाल अभिनय किया।



सिनेमा से जुड़ाव के साथ ही पृथ्वीराज कपूर का थियेटर की ओर भी समान रूप से लगाव रहा। फिल्मों से होने वाली अपनी आमदनी का उपयोग उन्होंने पृथ्वी थियेटर (1944) बंबई के निर्माण और विकास में किया। हिंदी स्टेज प्रोडक्शन्स को बढ़ावा देने में पृथ्वी थियेटर का योगदान रहा। अगले दशक तक पृथ्वी के नाटकों ने कई प्रतिभाओं को पहला मौका दिया जिनमें शामिल हैं- रामानंद सागर, शंकर-जयकिशन और राम गांगुली। उन्होंने अपने बेटों-राज, शम्मी और शशी को भी लॉन्च किया।



अद्भुत प्रतिभा के धनी पृथ्वीराज कपूर को 1969 में पद्म भूषण और 1972 में दादासाहब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया गया। साथ ही वे पहली फिल्म पर्सनालिटी रहे जो कि राज्य-सभा के लिये नामित हुये। पृथ्वीराज कपूर जीवनपर्यंत अपना काम करते रहे। तब तक जब तक कि 1972 में उनकी मृत्यु कैंसर से नहीं हो गई। कुछ लोग ऐसे ही होते हैं। चुपके-चुपके हमारे दिलों पर राज करने लगते हैं। अभिनय करते-करते गुजर जाते हैं। हम उन्हें और उनकी कला को कभी भूला नहीं पाते। उन्हें बार-बार याद करते हैं। नमन करते हैं।

बद्रीनाथ शर्मा---सच्चे कलाकार ऐसे ही होते हैं।

सिनेमा पर्दे पर यथार्थ का मंचन है। फिल्मी पर्दे पर उभरती आवाजें हमारी अपनी ही आवाजें होती हैं। हमारे संवाद कला बनकर कलाकारों की भाषा बन जाते हैं। फिल्में हमारी बातों को औरों तक पहुँचाती हैं, औरों की बातों को हम तक पहुँचाती हैं। बातों ही बातों में हम दुनियाभर की बातें जान जाते हैं। दुनियाभर की बातें और आवाजें हमारे अंदर संवेदना का संचार करती हैं। सिनेमा की आवाजें यथार्थ का भ्रम कराती हैं। कभी-कभी सिनेमाई ध्वनियां सच से भी अधिक प्रबल हो जाती हैं। इस प्रबलता में हम बिंध से जाते हैं। ढिशूम-ढिशूम की आवाज सुन दर्शक उतावले हो जाते हैं। अपनी-अपनी सीटों से खड़े हो जाते हैं। शहनाई की आवाज आँखों में आँसू दे जाती है। दहशत भरी डरावनी आवाजें भूतों का अहसास दिला हमें कंपा जाती हैं। फिल्मों में हम सब सुन सकते हैं- सांय-सांय करती तेज हवा, नदी का कलरव, चिडिय़ों की चह-चह और पायल की मधुर मद्धिम छमकती ध्वनि। सच! फिल्मी कलाकारों और दृश्यों की सुरीली, रोबिली, सुंदर, छमकती, खनकती, गीत गातीं, रोती और हँसती ध्वनियां हमें यथार्थ और यथार्थ से भी परे ले जाती हैं। साउंड रिकॉर्डिस्ट ऐसा ही जादू करते हैं। उनके करिश्मे से हम बूटों की खटखट, थप्पड़ की झन्नाहट और कान-बालियों के घुंघरुओं की मद्धिम खनक तक सुन सकते हैं.






बद्रीनाथ शर्मा ऐसे ही साउंड रिकॉर्डिस्ट थे। जिन्होंने जाने-माने फिल्म निर्माताओं के साथ काम किया। बी. एन. शर्मा का मूल जन्‍म स्थान भारत-पाकिस्तान सीमा पर स्थित अटारी था। वहाँ से वे दिल्ली आये, उनके पिता एक डॉक्टर थे। उनके पिता चाहते थे कि बद्रीनाथ शर्मा आगे पढ़ाई करें और कोई सम्मानजनक काम करें। लेकिन ऐक्ट्रेस लीला चिटनिस के सम्मोहन में बिंधे जवां बद्रीनाथ को कुछ और ही मंजूर था। वे फिल्मों में अपना भाग्य आजमाने बंबई चले गये। बंबई में बद्रीनाथ शर्मा को पहला काम रिकॉर्डिंग के सामानों को साफ करने का मिला। इस काम से इंजीनियरिंग का एक कोर्स किया और कोर्स की समाप्ति तक एक रिकॉर्डिस्ट के साथ सहायक का काम भी करने लगे। 1940 के मध्य तक बद्रीनाथ शर्मा एक स्वतंत्र साउंड रिकॉर्डिस्ट की तरह काम करने लगे।



अपने करियर में आगे बढ़ते हुये बी.एन.शर्मा ने साउंड मिक्सिंग और रिकॉर्डिंग की दुनिया में एक अलग पहचान बना ली। सुंदर साउंड ट्यूनिंग की उनकी क्षमता के कारण ही उन्होंने के. आसिफ, बिमल रॉय, ऋषिकेश मुखर्जी, गुलजार और ओ.पी. रलहान जैसे दिग्गज फिल्म-निर्माताओं के साथ काम किया। उन्होंने दादा कोंडके और सी. रामचंद्र जैसे निर्माताओं की क्षेत्रीय फिल्मों में भी काम किया। बी.एन. शर्मा की कला में पगी फिल्में अविस्मरणीय हैं। ‘मुगले-आजम’, ‘मधुमति’, ‘सुजाता’ और ‘बंदिनी’ जैसी फिल्मों की आवाजें आज भी हमारे दिलों पर राज करती हैं। इन फिल्मों से बी.एन. शर्मा की बहुआयामी प्रतिभा को भी आंका जा सकता है। हाँ, राजसी शानो-शौकत की धमक और साधारण भारतीय परिवेश की शांत आवाज सब इनकी कला में समाहित है।



बद्रीनाथ शर्मा साउंड रिकॉर्डिंग का काम 1991 में अपनी मृत्यु तक करते रहे। सच्चे कलाकार ऐसे ही होते हैं। ऐसे ही उनकी कला और उनका जीवन गुत्थम-गुत्था हो चलते रहते हैं। तभी तो सुन सकते हैं हम बद्रीनाथ शर्मा के दिलो-दिमाग, उनके जीवन, उनकी कल्पना और प्रकृति की आवाजें उनकी फिल्मों में। हर वह आवाज जो उन्होंने सुनी होगी उसे जादू के रेशमी धागों में पिरोकर अपनी फिल्मों में टाँक दिया और हम हो गये उनकी फिल्मों के कायल। उनके कायल। बार-बार उनकी कला में डूबी फिल्में देखने को मजबूर!! उनके गानें गाने को बेबस। भला देशभक्ति के रस में पगा उनका गाना ‘ऐ मेरे वतन के लोगों...’ किसने नहीं सुना होगा, साथ-साथ नहीं गाया होगा? रोया नहीं होगा?

बाबूभाई मिस्त्री -----स्पेशल इफेक्‍ट एक्सपर्ट निर्देशक

अब तक तंग-अंधेरे सिनेमाघरों में सिनेमा की आवाज से ही लोग हतप्रभ थे कि दर्शकों के विस्मय को दोगुना करते चलते-फिरते और बोलते सिनेमाई पर्दे पर जादू होने लगे। अब जिन्न और हनुमान उडऩे लगे थे। हाथों में पहाड़ उठाए भगवान को उड़ता देख लोग नतमस्तक हो गये। अब कथाओं-परीकथाओं की कल्पनाएं आंखों के सामने साकार हो रही थीं। शीशमहल उड़ सकते थे, इच्छाधारी नाग अपना रूप बदल सकते थे। जादुई कालीन हवा से बातें कर सकती थी। देवताओं, राजा महाराजाओं और दानवों की आंखों से एक साथ चिंगारी फूट सकती थे। वे अग्निवर्षा कर सकते थे और वर्षा की मोटी जलधारा एक पल में सब कुछ खाक कर सकती थी। पौराणिक कथाओं को पर्दे पर चरितार्थ होते देखना रहस्य नहीं तो और क्या था! लोग सिनेमाघरों की ओर भागने लगे थे। शानदार स्टंट और करिश्में चमत्कृत किये देते थे। कभी-कभी एक ही कलाकार एक साथ पर्दे पर दो रूपों में दिख जाता। आत्मा और वास्तविक शरीर का द्वंद्व दर्शकों को किसी मायाजाल में बांध देता। यह सब देख लोग दांतों तले अंगुलिया दबा लेते। यह सब कैमेरामैन के स्पेशल इफेक्‍टस का प्रभाव था।






भारतीय सिनेमा में स्पेशल इफेक्‍टस के प्रभाव की शुरुआत बाबूभाई मिस्त्री के ‘काले धागे’ के विभिन्न प्रयोगों के साथ होती है। बाबूभाई काले और अंधेरे दृश्यपटल के साथ काले धागों के अनोखे ट्रिक भरे प्रयोगों से गायब हो जाने, रूपांतरित होने, डबल एक्सपोजर जैसे कई इफेक्‍टस पैदा करते थे। कैमरे के साथ उनके प्रयोग कला की एक नई परिभाषा रच देते। अब सब कुछ संभव था। जहरीले साँपों के सिर पर मानव शीश का दिखना और आसमान से फरिश्तों का धरती को निहारना .. सबकुछ, बाबूभाई ने एनटी रामाराव को निर्देशित करने के साथ-साथ कल्याण जी को ‘सम्राट चंद्रगुप्त’ में ब्रेक दिया। उसके बाद कल्याण-आनंद जी की जोड़ी ने मदारी में उनके साथ काम किया लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने भी ‘पारसमणि’ में उनके साथ काम करना शुरू किया। बाबू भाई के सिनेमाई करियर की शुरुआत बतौर सिनेमेटोग्राफर होमी वाडिया के साथ हुई। ट्रिक फोटो ग्राफी के लिए वे प्रसिद्ध रहे। उनकी कला-कौशल मील का पत्थर है।



बाबूभाई मिस्त्री भारतीय सिनेमा के पहले और अग्रणी स्पेशल इफेक्‍ट एक्सपर्ट निर्देशक और कैमरामैन थे। १९३३ तक जबकि बाबूभाई की उम्र मात्र १७ वर्ष ही थी, इन्होंने स्पेशल इफैक्ट वाली कई फिल्मों में योगदान दिया। सूरत में जन्मे मिस्त्री गांव के स्टेज शो के लिये अपनी कला और क्षमता का प्रयोग किया करते थे। उनका फिल्मी कॅरियर कृष्णा फिल्म कंपनी से आरंभ हुआ, जिसके बाद एक पोस्टर पेंटर की तरह प्रकाश स्टूडियो से जुड़े। कैमरे के साथ उनके प्रयोग से प्रभावित निर्देशक विजय भट्ट ने बाबूभाई को हॉलीवुड की ‘द इन्विजिबल मैन’ से प्रभावित फैंटेसी फिल्म ‘ख्वाब की दुनिया’ में ट्रिक फोटोग्राफर के रूप में नियुक्त किया।



अगले सात दशकों तक कैमरे की उनकी कलात्मकता और जादू को ‘जंगल प्रिंसेज’, 'अलाद्दीन', ‘माया बाजार’ और ‘महाभारत’ जैसी अनेक फिल्मों में देखा जा सकता है। बाबूभाई मिस्त्री की पहली निर्देशित फिल्म वाडिया मूवीटोन्स की ‘मुकाबला’ थी। अभिनेत्री नादिया अभिनीत फिल्म ‘हन्टरवाली’ डबल रोल वाली पुरानी विशिष्‍ट फिल्मों में एक है। मिस्त्री को उनकी पौराणिक फैंटेसी वाली और स्टंट फिल्मों के लिये खासतौर से याद किया जाता है। इनमें रेसलर एक्टर दारा सिंह की फिल्म ‘किंग-कॉन्ग’ शामिल है।



उनकी प्रसिद्घ आलोचनात्मक फिल्मों में १९६३ की हिट फिल्म ‘पारसमणि’ थी जिसे प्यार, बदले और शान-ओ-शौकत की परीकथा मानी जाती है। मिस्त्री के कामों ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाई। उनके प्रशंसकों में प्रसिद्घ रूसी निर्देशक वेस्वोलोद पुदोव्किन भी शामिल है। सिनेमा में उनके योगदान और नाम की चर्चा फॉक्स स्टूडियोज के रिकार्डो में भी है। वे एक लम्बे समय तक अपना काम करते रहे। बाद के वर्षों में छोटे पर्दे के लिये भी अपना योगदान दिया। बाबूभाई भारतीय फिल्म इण्डस्ट्री में स्पेशल इफेक्ट्स और निर्देशन के पुरोधाओं में ही शुमार नहीं हैं बल्कि कम्प्यूटर और ग्राफिक्स के युग में भी पिछड़ते नजर नहीं आये। अपने काम के साथ तन्मयता और कला के प्रति समर्पण ऐसा ही होता है। हमें कभी पिछडऩे नहीं देता। तभी तो याद करते हैं हम बाबूभाई मिस्त्री को किसी सम्मोहन और जादू से घिरे स्पेशल इफेक्ट् के नये-नये प्रयोगों की ओर खींचे चले जाते हुये काले धागे के जादू -टोने से प्रभावित...।।



उनकी प्रमुख फिल्‍में ख्वाब की दुनिया - १९३७, जंगल प्रिंसेज - १९४२, अलाद्दीन - १९४५, नव दुर्गा - १९५३, मैजिक कार्पेट - १९६४, महाभारत संग्राम - १९६५, हर-हर गंगे - १९६८, संत रविदास की अमर कहानी - १९८३, माया बाजार - १९८९ और हातिमताई - १९९० शामिल हैं.

शनिवार, 27 नवंबर 2010

यहां 'पात्र' मनाते हैं 'लेखक' का जन्मदिन

मान लीजिए आप कोई उपन्यास या कहानी पढ़ रहे हों तो क्या सोचते हैं आप? पात्रों की व्यथा-कथा, उनकी हँसी-खुशी पढ़कर या फिल्मों-सीरियलों में देखकर-सुनकर आपको यही लगता होगा कि कहानी जीवन की तो है, लेकिन पता नहीं सच्ची है या झूठी! लेकिन यहां पात्र 'सजीव' हैं। ये 'सजीव' पात्र अपने ’लेखक’ का जन्मदिन मनाते हैं।



अपने लेखक की रचनाओं की आलोचना-प्रशंसा करते हैं। पात्रों के साथ-साथ ’सुपात्र’ (संत, असंत, घोंघावसंत) भी होते हैं जन्मदिन मनाने वालो में जिन्हें पता नहीं ’काशी का अस्सी’ में गुरु ने छुआ या छुआया क्यों नहीं? कई लेखक-पाठक, प्रशंसक पहली जनवरी को मुम्बई, दिल्ली, लखनऊ, पटना, इलाहाबाद और न जाने कहां-कहां से इस अनूठे जन्मदिन में शिरकत करने के लिए आते हैं। बताते हैं कि इस बार प्रो. सत्यदेव त्रिपाठी, इन्दौर के मनोज ठक्कर, लखनऊ के वीके सिंह, युवा कथाकार शशिभूषण, लखीमपुर खीरी के देवेन्द्र पधारे थे। हमेशा की भांति इस बार भी चर्चित कथाकार काशीनाथ सिंह का उनके पात्रों, कुपात्रों, सुपात्रों आदि ने वाराणसी में धूमधाम से जन्मदिन मनाया।



’अपना मोर्चा,’ ’कहानी उपखान,’ ’काशी का अस्सी,’ ’घर का जोगी जोगड़ा,’ ’रेहन पर रग्घू’ आदि पुस्तकों के रचनाकार काशीनाथ सिंह अपने पात्रों के समक्ष अक्सर (कई बार इस मौके पर दिल्ली कोलकाता भी चल बसे हैं फिर भी उनका जन्मदिन मना। उनके रहने या न रहने से जन्मदिन पर कोई फर्क नहीं पड़ता) साल की पहली तारीख को जन्मदिन मनाने के लिए मौजूद रहते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि जन्मदिन किसी होटल, सेमिनार हॉल या रेस्टोरैंट में नहीं मनाया जाता बल्कि भीड़ भरी सड़क पर स्थित चाय की दुकान (धुरी बदलती रही है.....) में मनाया जाता रहा है। इस बार भी उसी उत्साह के साथ उनके जन्मदिन को पात्रों और जन समुदाय ने इंज्वॉय किया। जन्मदिन पार्टी के लिए वही परम्परागत चूड़ा-मटर, चाय-पान और ’प्रसाद’। (जिसे दुनिया वाले 'शायद’ भांग कहते हैं....)



जातक, पंचतंत्र और लोक प्रचलित कथा शैलियां जैसे उनके कहानीकार के खून में है। उनके पाठक उन रचनाओं को पढ़ते हुए उन्हें देखते-सुनते भी हैं। लेखन के जरिए इस रचनाकार ने पाठकों की नई जमात तैयार की है। उनका चर्चित और निंदित उपन्यास ’काशी का अस्सी’ जिन्दगी और जिन्दादिली से भरा एक अलग किस्म का उपन्यास है (संस्मरण, रिपोर्ताज, कहानी के रूप में अस्सी को पढ़े लोग यह भी कहते हैं कि आलोचकीय दबंगई के कारण इसे उपन्यास घोषित किया गया) जिसका देश-विदेश की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है।



उनकी कहानी ’पांडे कौन कुमति तोहे लागी’ का प्रसिद्ध बंगाली अभिनेत्री निर्देशक ऊषा गांगुली ने ’काशीनामा’ नाम से नाट्य रूपान्तरण किया है जिसका देश के अनेक भागों में मंचन हुआ है। इसी तरह ’कौन ठगवा नगरिया लुटल हो’ का भी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों ने सफल नाट्य प्रस्तुति की है। अपने 73वें जन्मदिन पर काशीनाथ सिंह ने कहा कि सामान्य जनता व पाठकों के बीच से साहित्य गायब नहीं हुआ है, बशर्ते कि साहित्यकार जनता से जुड़ने का साहस रखें। ’अस्सी के डीह’ और ’विद्वान’ प्राचार्य डॉ. गया सिंह, प्रो. बलराज पांडेय, वाचस्पति, डॉ. सरोज यादव, डॉ. सुबेदार सिंह, नेता अशोक पांडेय आदि ने उपस्थित काशी को शुभ कामनाएं देते हुए अपने विचार व्यक्त किये।

                                                                     -----01-01-2010 ( खबर और सूत्रों पर आधारित )