सोमवार, 30 अप्रैल 2012

हिंद सिने जनक दादा साहब फाल्के


फिल्म के किसी दृश्य में एक बड़ा-सा सांप पर्दे पर छा जाता है जो लगातार दर्शकों की ओर बढ़ता चला जा रहा है। लोगों की घिग्घी बंध जाती हैं। भौंचक और भयातुर हो जाते हैं लोग। दादियां-नानियां अपने पैर कुर्सी पर कर लेती हैं, पर जो सयाने हैं , वे हंसते हैं। कहते हैं यह सिनेमा है। सिनेमा इसी तरह एक इंद्रजाल रचता है। समाज का आईना बन झलकता है। हम अपनी सुध-बुध खो पर्दे पर छाये रिश्ते-नातें, तो कभी खुद को ढूंढते हैं। चुपके-चुपके सिनेमा हमारे जीवन में उतर आता है। हम सिनेमाई अंदाज में रहने लगते हैं। सिनेमा वाले गाने गाते हैं। सिनेमा वालों की बातें करते हैं। किसी काले जादू के वशीभूत हो फिल्मी किरदारों संग हंसते हैं, गाते हैं, रोते हैं, सिटियां बजाते हैं----इस तरह सिनेमा मनोरंजन बन जाता है, ज्ञान बन जाता है। औपनिवेशिक भारत में दादा साहब फाल्के सिनेमा रचते हैं जो आज शिखर पर है। उस रचनात्मक सफर का सौंवा साल चल रहा है। भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में दादा साहब फाल्के के प्रयास, जुनून और रचनात्मकता को याद किया जाना इसलिए जरूरी है कि उन्होंने वह चीज हमें दी जो एक तरह से भारतीय पहचान से जुड़ा है। ९९ साल पहले जो उन्होंने शुरुआत की वह इतिहास ही नहीं हमारी भावनाओं से भी जुड़ा है । वह सर्जनात्मक संघर्ष , पहल हमारे लिए भावनात्मक मामला है।




‘‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट की तरह हम राम, कृष्ण, गोकुल और अयोध्या पर फिल्में बनायेंगे। ’’

धुंडीराज गोविंद फाल्के जिन्हें दादा साहब फाल्के के नाम से जानते हैं, भारत में सिनेमा के पर्दे को लेकर आते हैं और धीरे-धीरे यह शहरों, कस्बों और गांवों के ‘सिनेमाघरों’ में टंग जाता है। तब सिनेमा जीवन के सामानांतर चलने लगता है। दादा साहब एक निर्देशक, निर्माता, लेखक, कैमरामैन, मेकअप आर्टिस्ट, संपादक और कला निर्देशक का सम्मिलित नाम है। कह सकते हैं संपूर्ण सर्जनात्मकता। इनका जन्म नासिक से ३० किमी की दूरी पर ३० अपै्रल, १८७० को त्रयम्बकेश्वर में हुआ। १९१३ में उन्होंने भारत की पहली फिल्म बनाई। कुल दो दशकों में उन्होंने कुल 95 फिल्में और 26 लघु फि़ल्में बनाई। 1917 तक वे 23 फि़ल्में बना चुके थे। उन्होंने सिनेमा की शुरुआत कर भारत में क्रांति का सूत्रपात का किया। वह एक समृद्घ परिवार से आते थे और कहते हैं कि पैसे से लदी बैलगाडिय़ां घर आया करती थीं। पिता संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे, एलफिंस्टन कॉलेज के अध्यापक थे। लेकिन दादा साहब की रुचि कला विशेषत: पेंटिंग, थियेटर, जादू आदि में थी। पिता की तरह एक पुजारी बनने की जगह उन्होंने बंबई के प्रसिद्घ सर जे०जे० स्कूल ऑफ आर्ट में १८८५ में प्रवेश लिया। १८९० में जेजे स्कूल से पास होने के बाद कला भवन, बड़ौदा से कला की विधिवत शिक्षा ली। मूर्तिशिल्प, वास्तुशास्त्र (आर्किटेक्चर), पेंटिंग, फोटोग्राफी, ड्राईंग आदि की विधिवत शिक्षा ली। दादा साहब फाल्के सर्वगुण संपन्न व्यक्तित्व के मालिक थे।
फिल्में बनाने से पहले वह एक सधे हुए चित्रकार, फोटोग्राफर और मेकअप आर्टिस्ट थे। १९०८ में उन्होंने फाल्के आर्ट, प्रिंटिंग और इनगे्रविंग के कार्यों की शुरुआत की। फिल्मों की ओर रुझान इसी वजह से हुआ। अपने स्टूडियो के लिए जब वे कलर प्रिंटिंग का सामान लाने जर्मनी गए तो वहां ‘लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ नाम की फिल्म देखी। फिल्म देखकर वह काफी प्रभावित हुए। इस फिल्म ने उनके अंदर फिल्मों को लेकर संभावनाओं के प्रति हलचल भर दी।
उन्होंने भारतीय दर्शकों के लिए भारतीय थीमों पर फिल्में बनाने की ठानी। फिल्म टेक्नोलॉजी का ज्ञान प्राप्त करने और उससे जुड़े साजो-सामान लाने के लिए लंदन गए। यहां फिल्मकार और ‘बाईस्कोप’ पत्रिका के संपादक सेसिल हेपवर्थ से मिले जो कि ब्रिटिश फिल्म इंडस्ट्री के एक प्रमुख प्रोड्यूसर और संस्थापकों में से एक थे। सेसिल ने दादा साहब की बहुत मदद की। स्वदेश वापस आने पर इन्होंने फाल्के फिल्म्स की स्थापना की और भारत की पहली फूल-लेंथ फिचर फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाई। एक ऐसी राजा की कहानी जो सत्य के पथ पर चलता है । दुख-कष्टï सहकर भी वह सत्य की राह नहीं छोड़ता। यह फिल्म बंबई में ३ मई, १९१३ को मुम्बई के कोरनोनेशन सिनेमा में पहली बार सार्वजनिक रूप से दिखाई गई। फिल्म को अपार सफलता मिली। साथ ही दादा साहब के पास यूरोप से कई ऑफर भी आये। लेकिन उन्होंने भारत में ही रहने का निर्णय लिया।
राजा हरिश्चंद्र की ‘तारामती’ और मूंछ का सवाल
आज सिनेमा बाजार , प्रभाव , प्रसार , तकनीक की दृष्टि से शिखर पर है । सिनेमा के नायक-नायिकाएं आसमान छूते सितारे बन चुके हैं ! कोई भी रचना शुरुआती समय में कितने कंटकों और प्रयासों से परवान चढ़ती है इसे देखना हो तो दादा साहब के संघर्ष को देखें ।
दादा साहेब ने पहली फीचर फि़ल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ के लिए तैयारी की, तो फि़ल्म की नायिका उनके लिए गंभीर समस्या बन गई। राजा हरिश्चंद्र की पत्नी तारामती । दादा की इच्छा थी कि नायिका की भूमिका कोई स्त्री कलाकार ही करे। इसके लिए पहले उन्होंने नाटक मंडली से जुड़ी कुछ कलाकारों से बात की, लेकिन कोई कैमरे के सामने आने को तैयार नहीं । इसके लिए उन्होंने इश्तहार भी बंटवाए, लेकिन उसका भी कोई लाभ नहीं मिला। अंतत: कोठे वालियों के पास पहुंचे। उनसे हीरोइन बनने का आग्रह किया, लेकिन वहां भी कोई तैयार नहीं हुआ।
हारकर तारामती की भूमिका के लिए पुरुष कलाकार की तलाश शुरू हो गई। उस समय पुरुष कलाकार भी सिनेमा के लिए आसानी से मिल नहीं पाते थे । तभी एक दिन उन्हें एक रेस्तरां में एक रसोइया नजर आया। दादा ने उनसे बात की। काफी कहने-सुनने, समझाने के बाद वह काम करने के लिए तैयार हो गया। रिहर्सल के बाद जब शूटिंग का समय आया, तो रसोइये से उन्होंने कहा - कल से शूटिंग करेंगे, आप अपनी मूंछें साफ कराके आना।
दादा की यह बात सुनकर रसोइया, जो हीरोइन का रोल करने वाला था, चौंक गया। उन्होंने जवाब दिया - मैं मूंछें कैसे साफ करा सकता हूं! मूंछें तो मर्द-मराठा की शान हैं! दादा ने समझाया तारामती तो नारी है ..। फिर मूंछ का क्या है, शूटिंग पूरी होते ही रख लेना! काफ़ी समझाने के बाद रसोइया मूंछ साफ कराने के लिए तैयार हुआ। वह रसोइया, जो भारत की पहली फीचर फिल्म की पहली ‘हीरोइन’ का मूकाभिनय कर रहा था, का नाम सालुंके था। देविका रानी , मधुबाला से करीना तक की पूर्वज नायिका सालुंके !


फाल्के ने १९१७ में हिंदुस्तान फिल्म कंपनी की स्थापना की और फिर फिल्मों के प्रोडक्शन का दौर शुरू किया। फाल्के एक मेधावी फिल्म टेक्नीशियन थे। जिन्होंने फिल्मों में स्पेशल इफेक्ट्स के साथ कई प्रयोग किये। धार्मिक थीमों और ट्रीक फोटोग्राफी ने लंका दहन और श्रीकृष्ण जन्म जैसी फिल्मों से दर्शकों का मन मोह लिया। तब जबकि स्त्रियों के लिए ऐक्टिंग करना किसी अभिशाप से कम नहीं था। उस समय दादा साहब मोहिनी भस्मासुर में लीड रोल में किसी नारी चरित्र को लेकर आते हैं। बाल कृष्ण आधारित फिल्म ‘कालिया मर्दन’ में उनकी बेटी ने अभिनय किया था। ‘भस्मासुर मोहिनी’ में पहली बार महिलाओं, दुर्गा गोखले और कमला गोखले ने स्त्री किरदार निभाया। नहीं तो पुरुष ही महिला किरदार निभाते थे। कोई महिला कैमरे के सामने आने को तैयार नहीं होती थी। अंतिम मूक फि़ल्म ‘सेतुबंधन’ थी, जिसे बाद में डब करके आवाज़ दी गई।
दादा साहब ने जो एकमात्र बोलती फि़ल्म बनाई- ‘गंगावतरण’। गंगावतरण (१९३७) उनकी आखिरी फिल्म थी। इसके बाद इन्होंने फिल्में बनानी छोड़ दी। अंतिम दिनों में दादा साहब की आर्थिक स्थिति काफी दुर्बल हो गई थी। वी . शान्ताराम जैसे कुछ हितैषियों ने पहल कर उनके लिए मकान बनवाया। उनकी पत्नी ने अपने सारे गहने बेच दिये थे। दादा साहब नासिक के पास जहां रहते थे उसका नाम दिया गया था हिन्द सिने जनक आश्रण।
१९४४ में दादा साहब इस असार संसार से विदा हो गए। भारत सरकार ने १९६९ में इनके नाम पर दादा साहब फाल्के पुरस्कार देना शुरू किया जो आज भारतीय सिनेमा में किसी कलाकार को दिया जाने वाला सबसे बड़ा पुरस्कार है और हर कलाकार का सपना इस पुरस्कार को पाना है। बीते सालों में फिल्म निर्देशक परेश मोकाशी ने दादा साहब फाल्के पर मराठी फिल्म ‘हरिश्चंदाजी फैक्टरी’ बनाई जो आस्कर पुरस्कार सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म की श्रेणी में नामांकन के लिए भारत की ओर से औपचारिक रूप से भेजी गई। समय के साथ सिनेमा पूरी तरह बदल गया है। लोगों की पसंद और सिनेमा का स्तर दोनों बदल गया है । सिनेमा की भाषा, तकनीक और विषय बदल गए हैं। मूक से सवाक और अत्याधुनिक तकनीकी फिल्म संसार के सुहाने सफर में दादा साहब की प्रासंगिकता और जरूरत बनी रहेगी ।
भारतीय सिनेमा दादा साहब के सृजन सरोकार के बल पर हमेशा-हमेशा चमकता रहेगा। हम जानते हैं वे रहेंगे हमेशा-हमेशा , फिल्मों में ....यादों में ...जीवन में ।

फिल्मोग्राफी

राजा हरिश्चन्द्र (१९१३)

मोहिनी भष्मासूर (१९१३)

सावित्री सत्यवार (१९१४)

श्रीकृष्ण जन्म (१९१८)

कालिया मर्दन (१९१९)

सेतु बंधन (१९३२)

गंगावतरण (१९३७)



























बुधवार, 21 मार्च 2012

'भारत में धार्मिक-आध्यात्मिक एवं नैतिक शिक्षा'





                                                  संगोष्ठी में मंचासीन गणमान्य

पिछले दिनों स्वामी विवेकानंद सुभारती विश्वविद्यालय मेरठ में एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में 'भारत में धार्मिक-आध्यात्मिक एवं नैतिक शिक्षा' पर व्यापक विचार-विमर्श हुआ । विविध क्षेत्रों के वक्ताओं ने सुचिंतित विचार प्रकट किये । मानवीय मूल्यों , सदाचरण , सांस्कृतिक पर्यावरण , परिवार , समाज , शिक्षा, मानवाधिकार आदि अनेक पक्षों-संदर्भों को रखते हुए विद्वान वक्ताओं ने मूल्य आधारिक नैतिक शिक्षा की जरूरत बताई जिससे क़ि राष्ट्र को मजबूती मिल सके ।
श्रीलंका से पधारे  मुख्य अतिथि आनन्दबोधि समाज के उपाध्यक्ष पन्नातिशा ने कहा कि वर्तमान समाज के पतन का कारण सांस्कृतिक प्रदूषण है। परिवार में सद्व्यवहार और सदाचरण खत्म होता जा रहा है। ऐसे में हमें सत्याचरण को अपने जीवन व्यवहार में उतारना चाहिए। श्रेष्ठ आचरण से ही विपत्तियों को दूर किया जा सकता है। इससे परिवार , समाज और राष्ट्र को दिशा दी जा सकती है ।
        पन्नातिशा स्वामी विवेकानन्द सुभारती विश्वविद्यालय के सरदार पटेल प्रेक्षागृह में आयोजित    राष्ट्रीय संगोष्ठी को बतौर मुख्य अतिथि संबोधित कर रहे थे।
स्वामी विवेकानन्द सुभारती विवि के सरदार पटेल सुभारती इंस्टिट्यूट ऑफ़ ला (विधि संकाय/कॉलेज) और युआंकर वैज्ञानिक एवं सामाजिक विज्ञान अनुसंधान, फाउंडेशन, हापुड के संयुक्त तत्वावधान में भारतीय समाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद नई दिल्ली की ओर से ‘भारत में धार्मिक एवम् नैतिक शिक्षा’ विषयक एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। श्री पन्नातिशा ने अपने संबोधन में आगे कहा कि न्याय और धर्म दोनों साथ-साथ चलते हैं । हमें अपने शिक्षकों के अच्छे गुणों को अपनाकर समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।
सुभारती संस्थापक डॉ. अतुल कृष्ण का कहना था कि बालक की प्रथम शिक्षा परिवार से शुरू होती है। ऐसे में माता-पिता का अपने कर्तव्यों का उचित निर्वहन का दायित्व बढ़ जाता है। हम आदर्श समाज की संकल्पना को तभी साकार कर सकते हैं , जब हम अपने जीवन में अध्यात्म का अनुसरण कर सद्व्यवहार एवं सदाचरण  करें। मीडिया एवं विधि के विद्यार्थियों को इस संदर्भ में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी।
दक्षिण कोरिया के सीओल स्थित हीडॉग कॉलेज के निदेशक एवं विशिष्ट अतिथि ली.चाई.रैन ने कहा कि यदि हमें विश्व में नागरिकों के मानवाधिकारों का संरक्षण करना है तो हमें अपनी शिक्षा को मूल्य आधारित बनाना होगा। कानून को हम तभी परिवर्तित कर सकते है, जब हमारा समाज शिक्षित होगा। बौद्धिक दर्शन के माध्यम से भी समाज को शिक्षित एवं जागरूक बनाया जा सकता है। विशिष्ट अतिथि अशोक मैत्रेय ने कहा कि भारत वर्तमान समय में अपराध, गरीबी, भ्रष्टचार, युवा असंतोष जैसी चुनौतियों से हम तभी निपट सकते हैं जब हम विद्यार्थियों -युवायों को अध्यात्मिक शिक्षा देंगे। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है।
प्रो. रमेश मदान ने राजनीतिक व्यवस्था में महिलाओं को और अधिक प्रतिनिधित्व दिए जाने की आवश्यकता पर जोर दिया।
उदघाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. अनीता शर्मा ने कहा कि हम अपने समाज में सौहार्द एवम् विकास तभी कर सकते हैं जब विधि शिक्षा को हम अनिवार्य करें। हमें विधि शिक्षा को प्रत्येक नागरिक के लिए अनिवार्य करना होगा। हमें चीन से शिक्षा लेनी चाहिए और कन्फूशियस के सिद्धांतों को अपनाना चाहिए।
सुभारती ला कॉलेज के प्राचार्य डॉ. वैभव गोयल भारतीय ने कहा कि हमें युवाओं को प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक आध्यात्मिक शिक्षा के माध्यम से चरित्र निर्माण में मदद करनी चाहिए।
सुभारती मेडिकल कॉलेज के कम्यूनिटी मेडिसन के विभागाध्यक्ष प्रो. डॉ. राहुल बंसल ने कहा कि किशोरों को बुरी प्रवृत्तियों को आध्यात्मिक शिक्षा के माध्यम से ही बचाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि विज्ञान ने भी अध्यात्म के महत्व को स्वीकार किया है।
डॉ.  मोहन गुप्त ने कहा कि धर्म को विज्ञान के साथ जोडऩे की जरूरत है। पदम् सिंह, डॉ. रानी तिवारी, मिस मुक्ता आदि ने भी विचार व्यक्त किए। तकनीकी सत्रों में विभिन्न शोधार्थियो ने अपने शोध पत्र प्रस्तुत किए। इससे पूर्व राष्ट्रीय गोष्ठी का शुभारम्भ मुख्य अतिथि पन्नातिशा, प्रो. ली.चाई रैन, डॉ.अतुल कृष्ण, प्रो. अनीता शर्मा, विभागाध्यक्ष पूर्वी एशियन अध्ययन केंद्र, दिल्ली विवि, डॉ रमेश मदान, उपनिदेशक अनुसंधान, भारतीय समाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली, डॉ. वैभव गोयल भारतीय प्राचार्य एवम् डीन, सुभारती लॉ कॉलेज, पत्रकार डॉ. अशोक मैत्रेय ने दीप प्रज्जवलित कर किया।
संगोष्ठी में सुभारती आन्दोलन के संस्थापक डा. अतुल कृष्ण, वरिष्ठ पत्रकार डा. अशोक मैत्रेय तथा सुभारती इन्स्टिटूशन की संस्थापक डा. मुक्ति भटनागर को (अनुपस्थिति में ) समाज -शिक्षा-संस्कृति में विशिष्ट अवदानों के लिए 'ग्लोबल इंटलैक्चुअल अवॉर्ड - 2012 ' कोरिया के समन्वयक ली.चाई.रैन व भारतीय समन्वयक हीरो हीतो द्वारा प्रदान किया गया। इसके अलावा इंटरनेशनल क्रिएटिव माइंड पुरस्कार- 2012 मानक रिसर्च फाउंडेशन, कोरिया के समन्वयक ली.चाई.रैन और हीरो हीतो द्वारा डा. वैभव गोयल भारतीय, डा. राहुल बंसल, डा. अनीता शर्मा, डा. रमेश मदान को दिया गया।
कार्यक्रम का संचालन मिस रीना विश्नोई ने किया। आभार प्रकाश डॉ. वैभव गोयल भारतीय ने  किया। सारिका त्यागी, मोहम्मद आरिफ , रश्मि सिंह राणा, शिप्रा, डॉ. सरताज अहमद , डॉ. मनोज कुमार त्रिपाठी, डॉ. अंकित हीरो हीतो, हरीश कुमार आदि का विशेष सहयोग रहा। डॉ. मनोज कुमार त्रिपाठी ने संगोष्ठी का प्रतिवेदन (रिपोर्ट ) प्रस्तुत किया । इस अवसर पर छात्र-छात्राएं एवं संकाय सदस्य तथा अनेक महत्वपूर्ण लोग उपस्थित थे ।

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

.‘...और प्राण’

खलनायक ‘खल’ छवि वाले नायक होते हैं। खलनायक ऊर्जा, उत्तेजना और भावावेग का समग्र होते हैं जो नायक को संघर्ष के लिए प्रेरित करते हैं। नायक को नायक बनाते हैं। खलनायक वह अंधेरी रात है, जिस पर विजय पाकर ही नायक चमकता है। विजय का प्रकाश । फिल्मों में खलनायकों का होना फिल्मों को एक नये हौसले से भर देता है। भारतीय सिनेमा में खलनायक दर्शकों का उत्साह, जोश-खरोश और छिपी भावनाओं की अभिव्यक्ति बनकर उभरते हैं। दर्शक नायक बन जाते हैं। ‘मार दो साले को....’, ‘और मारो.... और पीटो...’ जैसी आवाजों, सीटियों, तालियों के बीच दर्शक अपनी सीटों से खड़े हो-होकर हौसला आफजाई के क्रम में सिनेमाघर को हो-हल्ले से भर देते हैं । इस तरह खलनायक एक अदम्य वेग का संचार कर देते हैं। हारकर और पीटकर दर्शकों में विजय भाव भर देते हैं। कभी-कभी प्राण जैसे खलनायक सकारात्मक भूमिकाओं से खलनायक- नायक की नई छवि रच डालते हैं। 2010 में सीएनएन ने उन्हें एशिया के शीर्ष 25 सर्वकालिक अभिनेताओँ में रखा । 'विल्लैन ऑफ़ दी मिल्लेन्नियम ' ...प्राण सबके चहेते रहे हैं । 90 ' पार प्राण हिंदी सिनेमा के लिजेंड हैं ।



प्राण साहब! यह फिल्म इण्डस्ट्री द्वारा उन्हें दिया गया सम्मान का नाम है। उनकी प्रभावी कला से आकर्षित लोग अपने बच्चों का नाम प्राण रखने लगे। उनका पसंदीदा शब्द ‘बरख़ुरदार’ लोगों की जुबान पर छा गया। प्राण साहब ने हिंदी फिल्म इण्डस्ट्री में छह दशक लंबा कॅरियर तय किया और ‘विलेन ऑफ द मिलेनियम’ से नवाजे गये। ‘हलाकू’ (1956), ‘जिस देश में गंगा बहती है’ (1960), ‘विक्टोरिया नं. 203’ (1972), ‘उपकार’ (1967), ‘पूरब और पश्चिम’, ‘जंजीर’ (1973), ‘अमर अकबर एंथनी’ (1977), और ‘डॉन’ (1978) जैसी यादगार फिल्में कर प्राण चाहनेवालों के जहन में बस गये।


हिंदी सिनेमा के सर्वाधिक मशहूर खलनायकों में एक प्राण कृष्ण सिकंद अपनी स्थिर आवाज, संकरी आंखों और हाव-भाव के विविधतापूर्ण प्रदर्शन के दम पर हिंदी सिनेमा के परिदृश्य पर छा गये। इनका जन्म एक संपन्न सिविल कॉन्टै्रक्टर के घर दिल्ली में हुआ। पिता का स्थानांतरण कई जगहों पर होता रहता था। इसी क्रम में प्राण ने अपना मैट्रिकुलेशन मेरठ से पूरा किया और फिर लाहौर में एक फोटो स्टूडियो के मैनेजर की तरह काम करने लगे। फिल्म लेखक मोहम्मद वाली के साथ उनकी एक आकस्मिक मुलाकात ने प्राण को पंजाबी फिल्म ‘यमला जाट’ (1940) में एक भूमिका निभाने का अवसर दिया। इसके बाद ‘चौधरी और खजांची’ जैसी फिल्मों ने इन्हें अजीत और के.एन.सिंह की तरह खलनायक की पहचान दिलाई। निर्माता दलसुख पंचोली ने ‘खानदान’ में नूरजहां के साथ मुख्य भूमिका दी।


फिल्म की सफलता ने प्राण को स्टार बना दिया। ‘खानदान’ की सफलता के बाद मिली हीरो की भूमिकाओं को इन्होंने अस्वीकार कर दिया, क्योंकि एक हीरो की तरह नाचने-गाने में असहज महसूस करते थे। 1947 में देश विभाजन के बाद प्राण बंबई चले आये। लाहौर में स्टार छवि के बावजूद भारतीय फिल्म राजधानी में काम ढ़ूंढऩे में नाकामयाब हो रहे थे कि लेखक सद्दात हसन मंटो और अभिनेता श्याम की मदद से बॉम्बे टॉकिज की फिल्म ‘जिद्दी’ में रोल मिल गया। फिल्म सफल रही। ‘गृहस्थी’, ‘अपराधी’ और ‘बड़ी बहन’ लगातार सफल फिल्में रहीं। अगले दो दशकों तक अपनी ब्लॉक बस्टर फिल्मों के साथ प्राण छाये रहे। जिनमें शामिल हैं- ‘आजाद’, ‘मधुमती’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’ तथा ‘राम और श्याम’।


अपनी भूमिकाओं में पेशेवर प्राण अपने कॉस्ट्यूम और मेक-अप का खास ध्यान रखते थे। अपनी हर फिल्म में विविध चरित्रों को रचते प्राण की हर फिल्म दिलकश अदाकारी से भरी होती। 1960 के पूर्व वर्षों में इन्होंने व्यंग्यात्मक खलनायकी का सूत्रपात ‘हाफ टिकट’ और ‘कश्मीर की कली’ जैसी फिल्मों से किया। मनोज कुमार की ‘उपकार’ में मलंग बाबा के रोल से इन्होंने नाटकीय छवियों संग अपनी प्रतिभा का जलवा बिखेरा। इस तरह की उनकी नई छवि वाली अन्य सफल फिल्में ‘जंजीर’, ‘कसौटी’ और ‘विक्टोरिया नं. 203’ रहीं।


प्राण की बायोग्राफी के नामित शब्द हैं ‘.....और प्राण’। यह इसलिये क्योंकि उनकी अधिकतर फिल्मों में कास्टिंग में उनका नाम ‘....और प्राण’ या कभी-कभी ‘‘...सबसे ऊपर प्राण’’ जैसे शब्दों में होता था। यह फिल्मकारों का उन्हें क्रे डिट और सम्मान देने का तरीका था। प्राण साहब का स्टाइलिस्ट अंदाज और विविध आयामों वाली उनकी छवि उन्हें औरों से अलग बनाती है। सकारात्मक सोंच वाले खलनायकों की उनकी भूमिका ने नई छवियां गढ़ी। 1970 के दशक में उनका कॅरियर अपने चरम पर था। फिल्म ‘डॉन’ में प्राण को अमिताभ बच्चन से कहीं अधिक पैसे मिले थे।
प्राण को उनकी बेहतरीन अदायगी के लिए कई पुरस्कार सम्मान मिले, जिनमें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए तीन फिल्म फेयर पुरस्कार सहित नागरिक सम्मान ‘पद्म भूषण’ भी शामिल है।
अमिताभ बच्चन ने बहुत सही कहा है कि 'चाहे तकनीक बदल जाएं, सिनेमा बदल सकता है, लेकिन प्राण हमेशा सिनेमा में योगदान के लिए याद किए जाते रहेंगे, प्रेरणा देते रहेंगे।' जी हाँ प्राण होने का यही मतलब है ।

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह : कहाँ तुम चले गए

                          

08  फरवरी 1941 --  10  अक्टूबर  2011                        


‘ये दौलत भी ले लो, शोहरत भी ले लो....वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी’ , ‘तुमको देखा तो ये ख्याल आया...जिंदगी धूप तुम घना साया’...‘होश वालों को खबर है ...जिंदगी क्या चीज है..’ इन्हें कौन नहीं गुनगुनाता होगा। उन्हें कौन नहीं जानता होगा! उनके गज़ल, गीत और भजन को कौन नहीं सुनता और गुनता है...! हमारे यौवन की पहली मदमस्त शाम को ही उनकी आवाज फिजा में तैर गई। हम अभी प्यार में डूबने ही वाले थे कि मद्धिम मधुर स्वर गुनगुनाने को आतुर हो उठे। सुंदर शब्द । मोहब्बत और जिंदगी के अनेक रंग । जीवन के सुनहरे रंग -- अचानक ही चंद पंक्तियों में अपना अक्स तलासने लगे। बचपन से लेकर बुढ़ा जाने तक में जीवन के असल मायने तलाशने लगे। हमें जब-तब गुनगुनाने लगे। कोमल, स्निग्ध और खनकती आवाज के कायल हो गए। गजलों के शौकीन हो गए। उनके ‘फैन’ हो गए। ऐसा ही होता है। जगजीत इसी तरह दिलों में उतरते हैं। गहरे दर्द और असीम खुशियों में हमारे अंदर गाते रहते हैं। हां, हमने जगजीत सिंह को देखा है। उन्हें सुना है। गुलाबी बचपन की हमारी यादों में जगजीत हैं। उनकी दिलकश आवाज केसरिया सुबहों के साथ ईश्वर को नमन है। शामें उनकी मखमली आवाज में विदाई का संगीत है। चाहने वाले इसी तरह भोर से राततलक उनकी आशिकी में डूबे रहते हैं। उनकी गजलें नशा बन छा जाती हैं। तभी तो सुनते हैं हम उन्हें अल्हड़ उम्र के पहले प्यार के साथ भी और मोहब्बत में मात खाने के बाद भी। प्यार और इश्क की गहनतम अनुभूति में भी उनकी आवाज कभी वासना नहीं बनती। अलौलिक बन जाती है। इसी तरह नासूर बनकर उभरता दर्द भी, हमें जिंदा ही कर जाता है। मोहब्बत को वह असीम अर्थ देते हैं।


राजस्थान के श्रीगंगानगर में जन्मे जगमोहन का बचपन चार बहनों और दो भाईयों के भरे-पूरे परिवार में बीता। ज्योतिषी की सलाह पर जगमोहन जगजीत बन गए। घर पर सिर्फ ‘जीत’ ही थे। पिता सरदार अमर सिंह धीमान जहां सरकारी नौकरी में थे, वहीं मां बचन कौर घर-गृहस्थी में संभालने वाली धार्मिक महिला थीं। पिता जगजीत को प्रशासनिक अधिकारी बनाना चाहते थे। श्रीगंगानगर में जगजीत ने पंडित छगनलाल शर्मा से संगीत की प्रारंभिक शिक्षा ली। इसके बाद कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से इतिहास में एम. ए. किया। संगीत के सुरों में पूरी तरह रम चुके जगजीत की सुर -साधना को पिता का समर्थन भी मिला। उन्होंने पूरे छह साल तक सैनिया घराने के उस्ताद जमाल खां से ख्याल, ठुमरी और ध्रुपद की तालीम लेकर संगीत -साधना में रत हो गए। एक गज़ल गायक, म्यूजिक कम्पोजर , गीतकार, निर्देशक की भूमिका में वे जन-जन में लोकप्रिय रहे। गज़ल की दुनिया को उन्होंने एक बड़ा आकार दिया। आम आदमी से लेकर बौद्धिक वर्ग सभी तक गज़ल को लोकप्रिय बनाने में उनका महान योगदान है। ‘गजल सम्राट’ जगजीत सिंह गजल के पर्याय बन गए । सभी मानते-जानते हैं कि गजल  को दरबारों और बड़े लोगों की महफि़लों से निकाल कर सामान्य जन के बीच लोकप्रिय बनाने वालों जगजीत अग्रगण्य रहे।

जगजीत सिंह ने हिंदी, पंजाबी, उर्दू, बांग्ला, गुजराती, सिंधी और नेपाली आदि भाषा में ग़ज़ल, गीत और भजन , शास्त्रीय और लोक संगीत गाया है। ‘प्रेमगीत’ (१९८१), ‘अर्थ’ और साथ-साथ (१९८२) फिल्मों में एक संगीतकार और गायक के रूप में उनके संगीत ने असीम लोकप्रियता हासिल की। फिल्मकार महेश भट्ट स्वीकारते हैं कि ‘जगजीत के योगदान के बिना मेरी फिल्म ‘अर्थ’ करोड़ों लोगों के दिलों को छू नहीं पाती। दुश्मन, सरफरोश, तुम बिन और तरकीब जैसी फिल्मों में उनकी गज़़लें सबको भा गईं। उनके एलबम सभी उम्र के श्रोताओं-दर्शकों में छा गए। ‘अनफोरगेटेबल’, ‘फेस टू फेस’,‘क्राय फॉर क्राय’,‘सहर’, ‘मंतजिर’, ‘मरासिम’ और ‘सोच’ जैसे एलबमों की धूम मची। सभी सुनते हैं इन्हें। अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं को संगीतबद्ध करके ‘नई दिशा’ (१९९९) और ‘संवेदना’ (२००२) जारी किए। सुर सम्राज्ञी लता मंगेशकर के साथ ‘सजदा’ एलबम कम्पोज़ किया। उन्होंने ‘मिर्जा गालिब’ तथा ‘कहंकंसा’ जैसे टी. वी. धारावाहिकों की संगीत रचना की। उनके भक्ति संग्रह ‘मां, हरे कृष्णा, हे राम’ और ‘मन जीते जग जीते’ आदि भी खूब लोकप्रिय हुए। जगजीत सिंह सालों तक अपने पत्नी चित्रा सिंह के साथ जोड़ी बना कर गाते रहे। दोनों पति पत्नी ने मिल कर कई बेमिसाल प्रस्तुतियां दीं । 1990 में एक हादसे इस पुत्र विवेक को खो दिया। चित्रा (दत्त) सिंह इस हादसे से कभी नहीं उबर पाईं और उन्होंने गाना बंद कर दिया। जगजीत-चित्रा ने आखिरी संयुक्त एल्बम ‘समवन समवेयर’ पेश किया उसके बाद से जगजीत केवल अकेले गा रहे थे।

जगजीत सिंह उन कुछ चुनिंदा लोगों में से एक रहे जिन्होंने प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (१८५७) की १५० वीं वर्ष गांठ के अवसर पर संसद सदस्यों और राष्ट्रपति , प्रधानमंत्री एवं अन्य प्रमुख श्रोताओं की उपस्थिति में जगजीत सिंह ने बहादुर शाह जफर की रचना ‘लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में’... प्रस्तुत किया।

महान शायर मिर्जा गालिब के सृजन को लोकप्रिय बनाने में उनके उल्लेखनीय योगदानों के लिए १९९८ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पद्म भूषण, संगीत नाटक अकादमी, लता मंगेशकर सम्मान सहित देश-दुनिया के अनेक पुरस्कार-सम्मान उन्हें मिले। लेकिन सबसे बड़ा सम्मान जनता का प्यार रहा जिससे वह व्यक्तिगत जीवन के दुख-दर्द को सह सके। संगीत सृजन ने उन्हें दुखों से पार जाने की शक्ति दी।

जगजीत सिंह उन संस्कारों में रचे-बसे शख्स थे जिन्हें कागज की कश्ती और बारिश के पानी के साथ-साथ बचपन की यादों में अक्सर गुरुजन और यार दोस्त याद आते हैं। फुरसत के लमहों में की गई शरारतें और अनेक बातें जेहन में आती हैं। कहते हैं सृजन और रचना नष्ट नहीं होती। शब्द कभी मरते नहीं। आवाजें अखिल ब्रहमांड में सदैव गूंजती रहती हैं। जगजीत जैसे सर्जक कभी नहीं मरते। वे भौतिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं लेकिन ग़ज़ल, गीत और भजन में गूंजते रहेंगे हमेशा-हमेशा... हिन्दुस्तानी गज़ल गायकी में जगजीत सिंह के योगदानों को भुलाया नहीं जा सकता।

सोमवार, 14 नवंबर 2011

...एक मेरा पक्ष नि:सन्देह




अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे।


तोडऩे ही होंगे मठ और गढ़ सब।


पहुंचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार।

हिन्दी कविता के विशिष्ट कवि गजानन माधव मुक्तिबोध (१३ नवम्बर १९१७-११ सितम्बर १९६४) की ये पंक्तियां इसलिए भी आज मौजूं हैं कि अभिव्यक्ति पर सवाल हैं और सवाल उठाने वाले संदिग्ध हो जाते हैं, करार दे दिये जाते हैं। उन पर दिग्विजयी प्रहार होता है । सवाल उठाते ही धरपकड़ की कार्रवाई -कार्यवाही शुरू हो जाती है । हर समय में अभिव्यक्ति के खतरे इन्हीं परिस्थितियों में मनीषियों और समाज शिल्पियों ने उठाया है। कबीर भी सैंकड़ों साल पहले पंडे-पुरोहितों की धार्मिक नगरी काशी (वाराणसी) में पाखंड, दोमुंहापन और सत्ता-संस्कृति के विरुद्घ अभिव्यक्ति के खतरे को सत्साहस के साथ उठा रहे थे। यहीं नहीं कबीर से भी हजारों साल पहले नहीं सुनने के बावजूद सुनाये जाने की बात महाभारतकार व्यास जी कर रहे थे। वह उस समय के हिसाब से अभिव्यक्ति के खतरे के समान ही था। सच को बयां करना था । महाभारतकार कहते हैं कि ‘मैं हाथ उठा-उठा के कहता हूं किन्तु मेरी कोई सुनता नहीं। धर्म के रास्ते पर चलकर अर्थ और काम का निपटारा क्यों नहीं किया जाता।’ सनद रहे उस समय भी जब समय काफी (आज की तुलना में) सात्विक और सकारात्मक था। उस समय भी एक कवि मनीषी की चिन्ता के केन्द्र में यह था कि अर्थ और काम का निपटारा धर्म के रास्ते पर चलकर नहीं किया जा रहा है!

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि धर्म सिर्फ धार्मिक अर्थों से सिक्त नहीं है। नैतिकता, ईमानदारी, सद्मार्ग, उत्तरदायित्वबोध वह मूल्य हैं जिनके रास्ते ही व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का कल्याण हो सकता है। आज के संदर्भ में देखें तो हम समाज, संस्कृति और राष्ट्र के लिए अपनी प्रतिभा का कितना सदुपयोग कर रहे हैं इसे लिया जा सकता है। तिहाड़ की शोभा बढ़ा रहे तमाम माननीय हों या समर्थ और शक्तिशाली लोग हों उनकी वर्तमान दशा का सबसे बड़ा कारण तो यही है न कि उन्होंने धर्म और नैतिकता तथा मानवीय मूल्यों का ध्यान नहीं रखा। इसका परिणाम यह है कि वह जिस चीज के लिए अधर्म यानी भ्रष्टाचार, अनैतिकता या उत्तरदायित्वहीनता का सुख ले रहे थे, वह भी उन्हें नहीं मिला!

तो चाहे व्यास हों, ऋग्वैदिक ऋषि हों या फिर कबीर, रैदास, तुलसी.....भारतेन्दु, प्रेमचन्द.. सभी अपने-अपने समय में अभिव्यक्ति के खतरे उठाकर जनमूल्यों को, समय के यथार्थ को सचेत अभिव्यक्ति दे रहे थे। वह एक प्रतिरोध भी था और एक हस्तक्षेप भी। कहन अलग-अलग शैली-शिल्प में थे। हम जिन मुक्तिबोध की बात कर रहे थे वह भी अपनी कविताओं के माध्यम से अपने समय की बेचैनी को ही जीवन और अर्थ दे रहे थे। दो सौ से अधिक रची उनकी कविताएं कवि -आलोचक और मुक्तिबोध को नजदीक से बांचने वाले अशोक वाजपेयी के शब्दों में- ‘हमें खबरदार करती हैं जिससे हम अपनी भागीदारी को ठीक से समझ-बूझ सकें।’ आधुनिक हिन्दी साहित्य और काव्यालोचना को गहरे अर्थों में प्रभावित करने वाले मुक्तिबोध का जीवन और रचना एक-दूसरे में पूरी तरह समाहित हो गया है। अनेक संकटों और दुरभिसंधियों से जूझने-टकराने के बावजूद वह अभिव्यक्ति के खतरे उठाते हैं। प्रसिद्घि, पुरस्कार और बौद्घिक छद्म से दूर मुक्तिबोध हमें इसलिए प्रेरित करते हैं कि वह ‘भूल-गलती’ को भी जीवन के सरोकारों से सिक्त करते हैं। एक प्रखर बुद्घीजीवी और दार्शनिक दृंिष्टï वाले सर्जक के रूप में वे चाहे ‘ब्रह्मïराक्षस’ लिख रहे हों या ‘अंधेरे में’ , ‘भूल गलती ’ या फिर ‘मुझे पुकारती हुई पुकार’ ...वह गहरे नैतिक बोध से ही हमें अनुप्राणित करते हैं। अपने समय की बेचैनी को, यथार्थ को जो उन्होंने रचा आगे चलकर भारतीय सामाजिक प्रयोगशाला में समाज ने सच ठहराया। वह विश्वामित्र की तरह ‘नई सर्जना’ करते हैं। नये भारत की तलाश करते हैं। मनुष्यता की पहचान करने वाले मुक्तिबोध दरअसल स्वार्थी, फ्राड, अमानवीय, सुविधाजीवी-सुविधाभोगी सौन्दर्यबोधि व्यवस्था प्रतिमान को ध्वस्त करते हैं और जीवन की असल सुन्दरता का नया प्रतिमान रचते हैं। वे ‘असंख्यक इत्यादि-जनों’ (ईटीसी) की बात करते हैं, उनकी ओर से बात करते हैं तभी तो उनका भी एक पक्ष होता है-‘धरती के विकासी द्वन्द्व क्रम में, एक मेरा पक्ष नि:सन्देह’। सही भी है कि ऋग्वैदिक ऋषियों, व्यास, कबीर और अन्य अनेक मनीषियों की तरह हर कवि का, सर्जक का एक पक्ष होता है। वह निष्पक्ष इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि जीवन की पक्षधरता जरूरी है। ऐसे समय में जबकि झूठों पर एक बड़ी आबादी को पोसा जाता है। उन्हें नून-तेल-लकड़ी यानी जरूरी जीवन की जरूरतों से वंचित कर दिया जाता है ऐसे समय में निष्पक्षता अमूर्त नहीं हो सकती। एक ईमानदार बुद्घिजीवी, लेखक, पत्रकार, संस्कृति कर्मी, सामाजिक कार्यकर्ता ‘चुनी हुई चुप्पियों’ का हिस्सदार नहीं हो सकता।
विचार आते हैं’ शीर्षक कविता की पंक्तियां हैं- विचार आते हैं-/ लिखते समय नहीं/ बोझ ढोते वक्त पीठ पर/...विचार आते हैं/ लिखते समय नहीं /...पत्थर ढोते वक्त... / पीठ पर उठाते वक्त बोझ... पीठ कच्छप बन जाते हैं/समय पृथ्वी बन जाता है।

एक जोड़ी पहाड़ी आंखों के लाल डोरे

                                                    08-09-1926---05-11-2011
 एक जोड़ी पहाड़ी आंखों के लाल डोरे और दो हाथों की थपकियों का सम्मोहन हमें खींच-सा लेता है। कहते हैं कि असम का जादू कभी खाली नहीं जाता! भूपेन दा की आवाज में ऐसी ही जादुई कशिश थी। उनके सुरों संग हमेशा ही कोई वाद्य बजता-सा लगता तुरही या कि बांसुरी या कि कोई धीमा शंखनाद का स्वर हमारे दिलों की हूक बन जाता था। एक कली दो पत्तियों का प्रदेश अपनी गरम सुगंध से छा जाता है। दादा का संगीत चाय की प्यालियों-सा घर-घर पहुंच जाता है। एकसफल जीवन कईयों को जीवट कर जाता है। उनके गीत जीवन के गीत हैं असमिया माटी के सौंदर्य से परिपूर्ण।

भूपेन दा नहीं हैं। वे अनन्त आकाश में विलीन हो गये। ‘दिल हूम-हूम करे’, गंगा और बिहू के गीतों में जो चिरजीवी-कालजयी दिलों को छू जाने वाली आवाज है, वह अब हमसे जुदा हो गई। हजारिका की मद्धिम-खनकती सम्मोहक आवाज तमाम आवाजों में हमेशा विलक्षणता का एहसास कराती रही हंै। उन्होंने आजीवन संगीत को जन-जन तक पहुंचाया वह भारतीय सांस्कृतिक पर्यावरण की एक बड़ी उपलब्धि है। उनके जैसे संगीत साधक की अनुपस्थिति ने हमें बेजार कर दिया है।

असम के सादिया में जन्मे हजारिका पर ‘होनहार विरवान के होत चीकने पात’ की उक्ति पूर्णत: चरितार्थ होती है। बचपन में ही अपना पहला गीत रचा और दस वर्ष की आयु में उसे गाया। यही नहीं १९३९ में १२ वर्ष की आयु में असमिया फिल्म ‘इंद्रमालती’ में अपनी विलक्षण प्रतिभा को दर्शाया। महामना पं. मदन मोहन मालवीय के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से १९४६ में राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर (एम.ए.) की उपाधि प्राप्त की। न्यूयार्क स्थित कोलम्बिया विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। अब जब वे नहीं हैं तो संगीत के रूप में उनकी दिल और दिमाग को जोश, जिन्दगी और सोच देती अनमोल स्वर कृतियां हैं जो हमें हमेशा जिन्दा रखेंगी। उनकी उपस्थिति संगीत की वह विलक्षण गौरवशाली उपस्थिति थी, जो जिन्दगी को नए-नए अर्थ देती है। संस्कृति पुरुष के जाने से लगता है हमारा मन और लगातार उनकी विलक्षणता से संपन्न धरती विरान हो गई। वह एक ऐसे अनमोल सर्जक जो रचना को ईश्वरीय मानते थे। वह खुद गीत लिखते थे, संगीतबद्ध करते थे और गाते थे। कविता, पत्रकारिता, गायन, फिल्म निर्माण आदि अनेक क्षेत्रों में हजारिका का अनूठा रचाव हमें सांस्कृतिक-बौद्धिक मजबूती प्रदान करता है। उन्हें सिर्फ असमिया ही नहीं बल्कि भारतीय मन-प्राण का विलक्षण दूत कहा जा सकता है।

‘गांधी टू हिटलर’ फिल्म में बापू के प्रिय भजन ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ में आवाज देने वाले हजारिका की शख्सियत जहां असमिया लोगों के दिलों में रची बसी थी वहीं उन्हें दक्षिण एशिया के सांस्कृतिक दूतों में से एक माना जाता है। जो उन्होंने संगीत के सुरों को एक विस्तृत आकाश दिया। वह हमारे सांस्कृतिक गौरव थे। जिनको देखने के लिए आम लोग उमड़ पड़ते थे। अखिल असम छात्र संघ ने उनकी प्रतिमा का उन्हीं से उद्घाटन कराया था। असम साहित्य सभा के भी अध्यक्ष रहे। यह सर्वविदित हैं असमिया जनता भूपेन हजारिका सहित साहित्य-कला के महान मनीषियों पर जान छिडक़ती है। भूपेन दा ऐसे ही रचनाकार थे जो असम और असम के पार पूरी दुनिया के संगीत प्रेमियों के लिए प्रिय थे। यह अलग बात है कि उन्हें बेतहासा चाहते हुए भी उनकी राजनीतिक आकांक्षा-महत्वाकांक्षा को जनता ने समर्थन नहीं दिया। राजनीति के विचलन और फिसलन के दौर में शायद जनता अपने प्रिय संगीतकार को किसी ‘धारा’ में नहीं बहने देना चाहती थी। वह सबके थे। वैचारिक साम्राज्यवाद के प्रवक्ताओं ने उन पर कड़े प्रहार किये। भूपेन दा ने भी जनता के फैसले को सम्वेदनशीलता से लेते हुए अपने को राजनीति से अलग कर लिया।

भूपेन हजारिका के न होने का एहसास हमें अब होगा जबकि वह हमसे भौतिक रूप से काफी दूर हो गये हैं। उनके शब्द, उनकी अनुगूंज बरकरार है। वह हमेशा-हमेशा हमें गौरवान्वित और अनुप्राणित करते रहेंगे। उनकी सृजनधर्मिता के आकाश में गौरव के क्षण भारतीयता को भी जीवन देते रहेंगे। भूपेन दा हमारी संस्कृति के अनमोल रतन के रूप में याद आते रहेंगे क्योंकि किसी भी देश, समाज और सभ्यता की सर्वोच्च तत्व है संस्कृति। उन्हें हमारी विनम्र श्रद्धांजलि। उनको प्रणाम।

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

रंगमंच, सिनेमा, पृथ्वीराज




३ नवम्बर जन्म दिवस पर


 भारतीय सिनेमा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर पृथ्वीराज कपूर ने भारतीय सिनेमा या कहें मंच कला को बहुत बड़ा योगदान दिया। विधिवत रूप से भारत की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा (१९३१)’ से अभिनय की शुरुआत करने वाले पृथ्वीराज कपूर ने अपना पूरा जीवन रंगमंच और सिनेमा को समर्पित कर दिया। रंगमंच और सिनेमा के क्षेत्र में उनके महान अवदान हैं। कला को जीवन मानकर जीनेवाले पृथ्वीराज के महत्व को जानने के लिए उनकी संघर्ष- साधना और ललक को देखना होगा । आज हम उन्हें क्यों याद करें यह जानने के लिए उस ललक को , जीवन के लय और समर्पण को समझना होगा ।

                                     हिंदी फिल्म इण्डस्ट्री में लगातार पाँच पीढी तक काम करने वाला अकेला परिवार । हिंदी सिनेमा के साथ इस परिवार का जुड़ाव बिशेश्वर नाथ कपूर के साथ होता है,जो पृथ्वीराज कपूर के पिता थे,उन्होंने अपना नाम बिशेश्वर मल से बदल कर बिशेश्वर नाथ रखा था। इसी तरह पृथ्वी ने इसकी जगह राज का प्रयोग किया। यह राज अगले जेनेरेशन तक चला बलबीर राय बाद में राज कपूर और शमशेर राज बाद में शम्मी कपूर। बिशेश्वर नाथ ने ‘आवारा’ फिल्म में एक छोटी सी भूमिका निभाई थी। पृथ्वीराज कपूर से लेकर अब करिश्मा और करीना तक इस खानदान का काम जारी है। आज कपूर परिवार की पांचवी पीढ़ी हिन्दी सिनेमा की दुनिया में सक्रिय है।

उसकी आँखों में ढेर सारे सपने थे। अभिनय के जीवंत सपने। कला के प्रति अगाध आकर्षण समेटे पेशावर के एक पुलिस सब इंस्पेक्टर दीवान बशेश्वरनाथ कपूर का बेटा अपनी कला को मायने देने बंबई आया। पिता चाहते थे कि बेटा कानून की पढ़ाई करे। मगर लाहौर के लॉ कॉलेज में दाखिला लेने वाले कलाकार की नियति को कुछ और ही मंजूर था। वे पहले वर्ष में ही फेल हो गये। मातृ स्वरूपा बुआ से ७५ रुपये लेकर बंबई की धरती पर कदम रखा। संघर्ष से जूझते कलाकार ने जानी-मानी फिल्म पत्रिका ‘फिल्म इंडिया’ के संपादक की टिप्पणी पढ़ी- ‘उन पठानों के लिये यहां कोई जगह नहीं जो यह समझते हैं कि वे यहां अभिनेता बन जायेंगे’। तब पठानों के सशक्त व्यक्तित्व को कला-क्षेत्र में संजीदगी से नहीं लिया जाता था। ३ नवंबर, १९०६ को पेशावर में जन्में पृथ्वीराज कपूर को यह बात गवारा नहीं हुई। असली पठान ने जवाब दिया - ‘‘बाबूराव, इस पठान को चुनौती मत दो। यदि मेरे लिये भारतीय फिल्मों में कोई जगह नहीं है तो मैं सात समंदर पार करके हॉलीवुड जाऊंगा और वहां जाकर अभिनेता बनूंगा।’’ ग्रीक नायकों की सी कद-काठी वाले इस अभिनेता ने पीछे मुडक़र नहीं देखा और भारतीय सिनेमा के इतिहास में दर्ज नाम बन गया। रोबीली अवाजा, बेजोड़ संवाद अदायगी और अद्भुत अभिनय के दम पर पृथ्वीराज कपूर ने कला को नई ऊंचाईयाँ दीं। पृथ्वीराजकपूर के लिए कला का एक बड़ा अर्थ है। जो जीवन से घुलमिल गया है- ‘‘मेरे लिए कला एक तड़प है, स्पन्दन है, जीवन है। मैं चाहता हूँ कि कला जनजीवन का दर्पण बने, जिसमें लोग खुद को देख सकें, सँवार सकें, सुन्दर बन सकें, उन्नति कर सकें। सच्ची कला वह है, जो जीवन को सही मायने में चित्रित करे।’’ पृथ्वीराज कपूर की ये पंक्तियां उनकी कला प्रतिबद्धता की एक बानगी है। अमिट जिजीविषा की बानगी है ।

अभिनय उनका जीवन था। कॉलेज के दिनों से ही नाटकों में हिस्सा लेते रहे। ‘राइडर्स टू दी सी’ नामक नाटक में नोरा नामक लडक़ी का इतना प्रभावी अभिनय की कि लोग दंग रहे गये। स्त्री ओर पुरूष दोनों ही किरदारों में ढल जाते पृथ्वीराज ने कालेज के दिनों में ही अभिनय का तकनीकी बारीकियों सीख लीं। सब कुछ ऊपर वाले बंबई आकर पर छोड़ते हुए इम्पीरियल स्टूडियों में बतौर ‘एक्सट्रा’ कलाकार के रूप में काम शुरू किया। ‘चैलेंच वेडिंग नाइट’ और ‘दाँवपेंच’ सरीखी कई मूक फिल्मों में छोटी-छोटी भूमिकायें कीं। सधी आवाज और रंगमंच से जुड़े अनुभवों ने लोगों में उनके प्रति आकर्षण भरा। उन्होंने कई मूक फिल्मों में काम किया। एक्सट्रा से हीरों बनने का मौका अचानक और औचक ही आ गया। ‘सिनेमा गर्ल’ का हीरो निर्देशक बीपी मिश्र की कसौटी पर खरा नहीं उतर पा रहा था। उस दिन सेट पर बैठे एक्सट्रा कलाकारों की ओर इशारा कर नायिका अर्मेलिन से कहा-‘इन लडक़ों में से जिसे पसंद करेगी उसे ही हीरो बना देंगे।’ अर्मेलिन ने पृथ्वीराज की ओर इशारा कर दिया और पृथ्वी हीरो बन गये। बीपी मिश्रा को इनकी अदायगी पसंद आयी। फिल्म भी चल निकली और पृथ्वीराज कपूर की किस्मत का सितारा चमक उठा। उन्हें फिल्में मिलने लगीं। पारिश्रमिक की रकम भी बढ़ती गई। १९३१ में भारत की पहली सवाक फिल्म ‘आलम आरा’ में इन्होंने नायिका के पिता का रोल निभाया। ‘राजरानी मीरा’ (१९३३) ‘सीता’ (१९३४), ‘जोशेवतन’ (१९३५),‘मंजिल’ (१९३८), ‘विद्यापति’ (१९३८), जैसी कई महत्वपूर्ण फिल्मों में दिखे। इन फिल्मों ने उनकी अलग पहचान की गढ़ डाली। ‘मुगल-ए-आजम’ तो उनके लिए मील का पत्थर साबित हुईं। फिल्मों में बढ़ती शोहरत और शान के बावजूद भी रंगमंच के प्रति पृथ्वीराज की ललक बनी रही । नाटकों के प्रति उनकी प्यास कभी बुझी नहीं । सिनेमा में बढ़ती लोकप्रियता के साथ ही रंगमंच की दुनिया से अलग नहीं हुए । रंगमंच के प्रति लगाव और बंचैनी की तुष्टिï के लिए उन्होंने १५ जनवरी १९४४ को पृथ्वी थिएटर की स्थापना की । ९ मार्च १९४५ को बंबई के रॉयल ऑपेरा में मंचित शकुंतला नाटक की खूब चर्चा हुई । इस नाटक में नायिका का संवाद ‘‘ जब देश जागते हैं तो उन्हें तलवारों की लोरियों से नहीं सुलाया जा सकता । कौमों के बलबले तलवारों की धारें भी कुंद नहीं कर सकती । ताकत की चक्की में सचाई नहीं पीसी जा सकती ’’ सहित इसी सरीखे संवादों ने विदेशी शासन को छलनी कर दिया। प्रदर्शन रोके जाने लगे । धमकियां दी जाने लगी । मगर पृथ्वी नहीं माने । पांच दशकों के भीतर की सर्वक्षेष्ठ नाटï्य कृति को देख सरदार वल्लभ भाई पटेल की आखों से आंसू बह निकले। इसे बेटे राजकपूर ने पिता को दिखाया और कहा ‘देखिये पापा पत्थर रो रहा है। ’ सिकंदर (१९४१), शालीमार(१९४२), आंख की शर्म (१९४३) जैसी फिल्में और दीवार, पठान, गन्धार जैसे नाटक सामानान्तर चल रहे थे। सोहराब मोदी की फिल्म सिंकदर (1941) में उन्होंने महत्वपूर्ण अदाकारी की। ‘मुगल-ए-आजम’ के शहंशाह के रूप में उनका अभिनय कितना जीवंत था। पृथ्वी थियेटर (1944) की स्थापना कर उन्होंने रंगमंच को महान योगदान दिया। उन्हें १९५४ में संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप, १९६९ में पद्मभूषण और १९७१ में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। आठ वर्षों तक वे राज्य सभा के सदस्य रहे। 29 मई 1972 को वे इस दुनिया से विदा हो गये। वह हमारे लिए प्रेरक बने रहेंगे ।
                                                                              --- सविता पांडेय