मंगलवार, 1 नवंबर 2011

...तो समाज भी इन्हें नकार देगा




कालजयी लोकप्रिय कृति रागदरबारी (उपन्यास) के रचनाकार श्रीलाल शुक्ल के निधन के बाद मीडिया माध्यमों में भी थोड़ी-बहुत हलचल हुई। पत्र-पत्रिकाओं और खबरिया चैनलों आदि में रागदरबारी के अंश प्रस्तुत किए गए। कुछ हिन्दी समाचार पत्रों (अंगे्रजी अखबार हिन्दी वाले को क्यों छापेगा!) ने पूरी पैकेजिंग की। उन पर पूरे पृष्ठ दिए। हिन्दी समाज के राजनीतिकों को भी लगा कि जरूर यह व्यक्ति कोई बड़ा आदमी था सो लगे हाथ श्रद्धांजलि दी गई । चैनलों-अखबारों में शोक संवेदना दी गई ।

साहित्य समाज का दर्पण है यह कोई मुहावरा, सूक्ति या स्कूली निबन्ध का विषय नहीं है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों से जुड़े मीडिया संस्थानों, शैक्षिक संस्थानों, प्रशासकों, राजनीतिकों, इंजीनियर-डाक्टरों, व्यवसायियों आदि की अगर हम बात करें तो साहित्य-विचार के प्रति एक बहुत ही निराशाजनक (कारुणिक)परिदृश्य उभर कर सामने आता है। और जब अभिभावकों यानी बड़े -बुजुर्ग लोगों की बौद्धिक स्थिति सोचनीय हो तो फिर नई पीढ़ी और बच्चों की क्या बात की जाए! क्योंकि हमारे बच्चे हमीं से संस्कार-सरोकार ग्रहण करते हैं। (मोबाइल,इंटरनेट,फेशबुक ...दे सकते हैं तो संस्कार ने क्या बिगाड़ा है जी!)

हमारे जन माध्यमों यानी मीडिया माध्यमों का धर्म माना जाता है कि वह सूचना, शिक्षा और मनोरंजन (स्वस्थ) का प्रसार करे। लेकिन मीडिया भी बाजार और विज्ञापन कम्पनियों पर आश्रित होकर साहित्य सरोकार को फालतू मानने का काम करती है। यह एक भ्रम फैला दिया गया है कि जनसंचार के माध्यम लोगों की रुचियों के अनुसार ही प्रकाशन-प्रसारण करते हैं . और लोग मिशन, सरोकार में रुचि नहीं रखते! मानों जनता फिल्मकारों, सम्पादकों, मीडिया मालिकों के सामने धरना देकर कन्टेंट की मांग करती है। (काश! ऐसा होता) सिनेमा जैसे प्रभावशाली माध्यम को भी मनोरंजन तक सिमटाने का प्रयास किया जाता है. यह कहकर कि सिनेमा में पैसा बहुत लगता है इसलिए सरोकार जैसी बातों को लेकर ज्यादा आग्रह नहीं किया जा सकता। लेकिन अनेक ऐसी फिल्मों को लें तारे जमीं पर, आरक्षण, अपहरण, गंगाजल आदि (और भी अनेक भारतीय और विदेशी फिल्मों को लिया जा सकता है) जिसे जनता ने पसंद (बाजार के मानक पर) किया। मुनाफा दिया । सिनेमा जैसे ताकतवर माध्यम को सिर्फ मनोरंजन के हवाले नहीं किया जा सकता। यही बात पत्रकारिता, कला, सिनेमा और परंपरा सब पर लागू होती है। बाल गंगाधर तिलक ने तो गणपति उत्सव के अवसर पर लगने वाली मेले की भीड़ को स्वतन्त्रता आंदोलन से जोड़ लिया था।





अच्छी पत्रकारिता भी बिक सकती है यह कई बार साबित हुआ है। लेकिन बिना किसी वैज्ञानिक शोध-सर्वेक्षण के पूंजी संस्कृति में इस बात को जोर-शोर से दोहराया जाता है कि साहित्य-फाहित्य या सामाजिक सरोकार को कौन पढ़ता है जी! हिन्दी समाज के (डा. रामविलास शर्मा के शब्दों में हिन्दी जाति) पत्रकार, बुद्धिजीवी अपनी सांस्कृतिक जातीयता के मामले में या तो निरक्षर हैं या फिर वे उसे पेश करने में लजाते हैं! दिलीप पडगांवकर जब टाईम्स ऑफ इण्डिया जैसे प्रतिष्ठित (बाजार के पैमाने पर भी!) अखबार में बतौर संपादक मराठी के महान नाटककार पु.ल.देशपांडे पर सम्पादकीय दे सकते हैं तो हिन्दी का सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला दैनिक डा . शर्मा को संक्षिप्त में क्यों सिमट देता है। आखिर हिन्दी समाज के एंकर, रिपोर्टर, संपादक चाहे वह किसी भी भाषा और माध्यम के मीडिया में काम कर रहे हों वे अपने मनीषियों को क्यों नहीं खबरों में स्पेस देते। और यह बात हिन्दी समाज, संस्कृति और पत्रकारिता में कहीं ज्यादा घर कर गयी है। हिंदी अखबारों की रविवारी (संडे मैगजीन) सिनेमा -मनोरंजन के नाम पर बौधिक दरिद्रता परोस रहे हैं . कही झंकार -टंकार है तो कही मनोरंजन के नाम पर देह -दर्शन . इन्हें पता नहीं किसने बता दिया की हिंदी पट्टी के लोग जो गरीबी -बेकारी सहित अनेक समस्याओं से ग्रसित हैं वे साहित्य और अपने ही सरोकारों की नहीं पढ़ते –सुनते ?

अन्ना हजारे के जनवादी-गांधीवादी आन्दोलन को जिस तरह से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने कवरेज़ दिया वह कोई मीडिया की उदारवादी नीति , एहसान या सरोकारों के प्रति एकाएक फिसलन या दायित्वबोध के कारण नहीं सम्भव हुआ बल्कि उनके पूंजी बाजार के मानक पर भी अन्ना फिट और हिट थे। जनता ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना को यानी अपने को जगाया! विदेश की धरती की बात करें तो विलियम शेक्सपीयर की जन्म भूमि इंग्लैण्ड के सर्वाधिक दर्शनीय स्थलों में है। उनकी यादों को शानदार धरोहर बनाकर संजोया गया है। शब्दशिल्पी के किये को लेकर अभिमान है वही की जनता और सरकार को . लेकिन कालिदास, तुलसी और कबीर के साथ हमारा बर्ताव कैसा है यह सभी जानते हैं? वर्ष २००७ में जादुई यथार्थ (मैजिक रियलिज्म) के जादूगर यानी प्रसिद्ध लेखक गैब्रिएल गार्सिया मार्केज़ कोलंबिया में अपने गृहनगर (एराकटाका) लौटे तो लोगों ने उनका शानदार स्वागत किया था। यहां तक कि सैकड़ों लोग उनकी गाड़ी के साथ भागते हुए स्टेशन तक गए। वहां की सरकार उनके घर का जीर्णोद्धार कर रही है और एक संग्रहालय बनवा रही है । लेकिन देवकीनंदन खत्री (जिनकी चंद्रकान्ता को पढऩे के लिए हजारों लोगों ने हिन्दी सीखी), भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रेमचंद, प्रसाद, आचार्य शुक्ल सहित तमाम जाने -अनजाने मनीषियों से जुड़ी स्मृतियों के क्या हाल हैं यह किससे पूछा जाए? प्रेमचंद के बनाए घर को बचाया नहीं जा सका। अब वहां महल खड़ी कर दी जाए तो क्या? इसलिए जब तक समाज चेतना दुरुस्त नहीं हो जाती और लोग सर्जकों के किए-धरे का सांस्कृतिक गौरव मान कर सम्मान करना नहीं सीख जाते । मीडिया का इसमें अहम भूमिका है । अच्छी पत्रकारिता बिकती है। मुनाफा बटोर सकती है। टीआरपी बढ़ा सकती है। सरोकारी सिनेमा भी करोड़ों का मुनाफा कमा सकता है। और यदि जनता की रुचियों की आड़ में समाज, संस्कृति, सरोकार को हाशिए पर रखा जाता रहेगा तो समाज भी इन्हें नकार देगा। समर्थन नहीं देगा । मीडिया का एक काम रुचियों का परिष्कार करना भी है। हिन्दी समाज को अगर सभ्यता की कसौटी पर उन्नत करना है तो संास्कृतिक विकास जरूरी है। जाति-धर्म-क्षेत्र विमर्श की जगह जातीय विमर्श की ओर रुख करना होगा। जनमाध्यमों को यह दायित्व निभाना चाहिए। मॉल, बाजार और फार्मूला-वन, २०-२० पर इतराने-इठलाने के बावजूद भूख, गरीबी, बेकारी, राजनीति की फिसलन, भ्रष्टïाचार, अपराध जातीय अहंकार को अगर हम जारी रखे हुए हैं तो यह शोक का समय है न कि ब्रेकिंग-एक्सक्लूसिव के उल्लास का। आखिर बाजार के चोंचले पर गौरवान्वित होने के बजाय उन सांस्कृतिक संदेशों को फैलाने का आप काम क्यों नहीं करते जो कबीर, रैदास, तुलसी, जायसी, मीरा... से लेकर भारतेन्दु, आचार्य शुक्ल और तमाम शब्द शिल्पियों के सरोकारों से होकर गुजरता है। एक हस्तक्षेप और सभ्यता विमर्श बनकर।





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