मंगलवार, 1 नवंबर 2011

जन-स्वास्थ्य के संदर्भ में स्वास्थ्य प्रोन्नति और रोगों की रोकथाम में आयुष की भूमिका


पिछले २०-30 वर्षों में योग , आयुर्वेद , प्राकृतिक चिकित्सा को लेकर बहस- मुबाहिसे होते रहे हैं . प्रासंगिकता और महत्व पर शक -सुबहा भी होता रहा है . लेकिन बिना पर्याप्त शोध किये खारिज करने की प्रवृति कहा तक सही है ! लेकिन शोध -अनुसन्धान बताते हैं कि इन चीजों का अत्यंत महत्व है .
आयुर्वेद विश्व का प्राचीनतम जीवन-स्वास्थ्य एवं चिकित्सा शास्त्र है। इसकी उत्पत्ति वेदों से है। आयुर्वेद आयु का विज्ञान है। जीवन का विज्ञान । जीवन की रचना और आयुष का विज्ञान । शरीर-इन्द्रिय-सत्त्व-आत्मा के संयोग को आयु कहते हैं- शरीरेन्द्रिय सत्वात्म संयोगो धरि जीवितम्। आयुर्वेद नित्य एवं शाश्वत है -शाश्वतोअयं आयुर्वेद:। कतिपय आचार्यों ने आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद कहा है। कई आचार्य आयुर्वेद को पंचम वेद मानते हैं। आयुर्वेदीय संहिताओं में वैदिक विचार से सर्वथा भिन्न अनेक विचार तथा सिद्धान्त हैं। आयुर्वेद के मूलभूत त्रिदोष सिद्धान्त अर्थात् वात-पित्त-कफ की अवधारणा मौलिक अवधारणा है जिसका वैदिक वांग्मय में उल्लेख नहीं मिलता। आयुर्वेदीय संहिता काल तक तथा तदनन्तर आयुर्वेद क्रमश: विकसित होता एक संपूर्ण स्वास्थ्य व चिकित्सा विज्ञाान का स्वरूप धारण करता गया। आयुर्वेद, योग, प्राकृतिक चिकित्सा सहित वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों की गुणवत्ता व समृद्ध परंपरा पर प्रस्तुत है दो दिवसीय कांफ्रेंस की डॉ. सरताज अहमद की एक रिपोर्ट -

डॉ.सरताज अहमद

                                             इंडियन एसोसिएशन ऑफ प्रिवेन्टिव सोशल एंड मेडिसिन की उ.प्र-उत्तराखंड स्टेट चैप्टर की १४ वीं वार्षिक कांफे्रंस का दो दिवसीय आयोजन बीते १४-१५ अक्टूबर स्वामी विवेकानंद सुभारती विश्वविद्यालय के मेडिकल कॉलिज के कम्युनिटी मेडिसिन विभाग के तत्वावधान में संपन्न हुआ।
जन-स्वास्थ्य के संदर्भ में स्वास्थ्य प्रोन्नति और रोगों की रोकथाम में आयुष की भूमिका विषयक कंाफे्रंस का उद्देश्य आधुनिक एवं परंपरागत चिकित्सा प्रणाली पर हुए शोध कार्यों का ज्ञान अर्जन करने की सतत प्रक्रिया को सुदृढ़ बनाने तथा योग-आयुर्वेद का आधुनिक चिकित्सा पद्धति में परस्पर सामंजस्य होने की जानकारी प्राप्त करना था। कांफे्रंस में राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विशेषज्ञों एवं विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों के चिकित्सकों ने स्वास्थ्य लाभ पाने के महत्वपूर्ण तथ्यों पर सुचिंतित विमर्श किया।



उद्घाटन वक्तव्य में मुख्य अतिथि एसवीवाईएएसए विश्वविद्यालय बंगलुरू के कुलपति डॉ. एच. आर. नगेन्द्रा ने कहा कि बीमारियों के बढऩे का कारण ग्लोबल वार्मिंग, सामाजिक परिस्थितियां और जीवन-शैली में हो रहे परिवर्तन हैं। फलस्वरूप श्वसन रोग, हृदय रोग, कैंसर, उच्च रक्तचाप, मोटापा और मधुमेह जैसे रोग तेजी से बढ़ रहे हैं। ऐसी स्थिति में केवल एलौपैथी पर निर्भर रहना उचित नहीं। जरूरत है लोगों को निरोगी बनाने के लिए उपलब्ध सभी मान्यता प्राप्त चिकित्सा प्रणालियों का सहयोग लिया जाए। विदेशों में भी भारतीय चिकित्सा पद्धतियों का प्रचलन और महत्व बढ़ा है।

विशिष्ट अतिथि मणिपाल विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रसिद्ध विद्वान डॉ. बी. एम. हेगड़े ने अपने रोचक और सुचिंतित व्याख्यान में कहा कि विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों द्वारा रोगों का निवारण करने हेतु सभी चिकित्सा प्रणालियों को एक मंच पर लाने की जरूरत है। उनका कहना था कि हालांकि मेडिकल पाठयक्रमों में व्यापक परिवर्तन हो रहे हैं किन्तु रोगियों को संपूर्ण चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने के लिए आयुर्वेद, योग, युनानी और होम्योपैथी को साथ लेकर चलना होगा। नेशनल इंस्टिट्यूट हैल्थ एंड फैमली वेलफेयर, नई दिल्ली के डॉ. देवकी नंदन का कहना था कि मन के अंदर जो शत्रु हैं उस पर काबू करना है . उसको प्रार्थना करें कि हम सकारत्मक सोच से आगे बढें , आरोग्य की ओर बढें . इस ओर गुणात्मक शोध की जरुरत पर उन्होंने बल दिया . कुपोषण, संक्रमण, प्रदूषण और उन्मुक्त जीवन शैली से सामाजिक विकास में अवरोध उत्पन्न होता है, जिसके फलस्वरूप स्वस्थ जनजीवन के लिए चिकित्सा दिए जाने के क्षेत्र में जटिल समस्याएं आती हैं। उन्होंने रोगों के निदान के लिए दवाओं से अधिक जीवन शैली में परिवर्तन लाने, संतुलित आहार लेने, व्यायाम करने, स्वच्छता द्वारा संक्रामक रोगों की रोकथाम करने और प्रदूषण रहित जीवन को अपनाने पर जोर दिया। सुभारती विश्वविद्यालय मेडिकल कॉलिज के प्राचार्य डॉ. ए .के. अस्थाना ने कहा कि आयुर्वेद संपूर्ण चिकित्सा पद्धति है जिसमें मन-मस्तिष्क और आत्मा के संबंधों पर बल दिया गया है ।
सुभारती इंस्टीट्यूशन की संस्थापक एवं मेडिसिन की वरिष्ठ प्रोफेसर डॉ. मुक्ति भटनागर ने उद्घाटन समारोह में शिरकत करते हुए कहा कि मेरे जैसे मेडिसिन के अध्येता के लिए यह सुकूनदायक है कि पारंपरिक और वैकल्पिक चिकित्सा विज्ञान से जुड़े प्रख्यात विद्वानों के चिकित्सकीय हस्तक्ष्ेाप वाले विचारों को सुनने को मिल रहा है । यह सही है परस्पर अंतर्संवाद से चिकित्सा क्षेत्र में उन्नति होगी ।
पतंजलि योगपीठ, हरिद्वार के शोध निर्देशक डॉ. शेरली टेलिस का कहना था कि योग भारत की परम्परा में है। वैज्ञानिक रूप से हुए शोध कार्यों से स्पष्ट हुआ है कि योग का अपना विशेष महत्व है। इसके द्वारा सरल और जटिल रोगों को पूरी तरह से मिटाया जा सकता है। योग के प्रति सामाजिक जागरूकता और इसके प्रामाणिक सिद्धांतों को वर्णित करते हुए उनका मानना था कि प्रचलित चिकित्सा व्यवस्था में योग को शामिल किया जाना चाहिए।
पतंजलि योगपीठ के डॉ. नगेन्द्र नीरज ने कहा कि योग और आयुष द्वारा रोगों के निदान करने पर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सहमति की मोहर लग चुकी है। योगासन शरीर को स्वस्थ, लचीला, निरोग और चुस्त-दुरुस्त रखने वाली वैज्ञानिक पद्धति है। जिसका हितकारी प्रभाव शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। कांफे्रंस के अध्यक्ष प्रो.डॉ. राहुल बंसल ने आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा के महत्व और उपयोगिता को सविस्तार रेखांकित करते हुए कहा कि हमारा शरीर मन, मस्तिष्क और आत्मा के सामजंस्य और शुद्धि के सिद्धान्त पर आधारित है। योग विद्या सकारात्मक सोच और आरोग्य जीवन का मार्ग प्रशस्त करती है। आयुर्वेद ज्ञान का महासागर है जिसमें दैविक, भौतिक और अध्यात्मिक विषयों से सम्बंधित मानव जीवन के अनेक पहलुओं पर दार्शनिक, सैद्धान्तिक, नैतिक और पूर्ण स्वास्थ्य दिए जाने का विवरण है।
कांफ्रेंस के विभिन्न वैज्ञानिक सत्रों में आयुर्वेद एवं पब्लिक हैल्थ विषय पर विशेषज्ञों ने विचार व्यक्त किए।
के.जी.एम.यू. लखनऊ के प्रो. डॉ. वी.के. श्रीवास्तव, इंस्टीट्यूट ऑफ आयुर्वेद एंड इंटिग्रेटेड मेडिसिन के स्वास्थ्य निदेशक डॉ. जी.सी. गंगाधर, आयुर्वेद कॉलिज ऑफ हाडिया, इलाहाबाद के प्राचार्य डॉ. जी सी तोमर, के.एच.एच.सी. नई दिल्ली की डॉ. कटोच ने आयुर्वेद की उपयोगिता को विस्तार से बताया। विशेषज्ञों ने गंभीर रोगों के निदान के लिए आयुर्वेद अपनाने की अपील की। देहरादून की प्रो. डॉ. सुरेखा किशोर, सी.सी. आर.वाई.एन. नई दिल्ली के उपनिदेशक डॉ. राजीव रस्तोगी, शोध अधिकारी डॉ. एच. एस. वेदराज, डॉ. वी.पी. वेकेटेश्वर राव ने जन-स्वास्थ्य के लिए नैचरोपैथी के सकारात्मक प्रभाव पर अपने विचार प्रस्तुत किए। वक्ताओं का कहना था कि आयुष की भूमिका को जनस्वास्थ्य से जोडऩे और रोगों को मिटाने में नैचरोपैथी का महत्व है।
इनके अतिरिक्त अन्य अनेक महत्वपूर्ण बिंदुओं पर भी विशेषज्ञों ने अपनी राय दी। नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हैल्थ एंड फैमली वेलफेयर, नई दिल्ली की प्रो. डॉ. मधुलेखा भट्टाचार्य, मौलाना आजाद मेडिकल कालिज, नई दिल्ली की डॉ. एस. अनुराधा, लाला लाजपत राय मेडिकल कॅालिज, मेरठ के डॉ. हरवंश चोपड़ा ने एच.आई.वी. एड्स पर अपना व्याख्यान दिया। मुजफ्फरनगर मेडिकल कॉलिज के प्रो. डॉ. जी.वी.सिंह, एम.बी.आई. किट चेन्नई के निदेशक डॉ. डी. चन्द्रशेखर, एम्स नई दिल्ली के डॉ. उमेश कपिल ने कुपोषण की कमी के कारणों एवं निवारणों पर प्रकाश डाला। कॉलिज मैनेजमेंट हैल्थ ऑफ अरबन के निदेशक डॉ. सुब्रत माडल ने शहरी स्वास्थ्य पर विचार रखे तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन के डॉ. अरविंद माथुर ने प्रसव के दौरान होने वाली मौतों के कारणों एवं उससे बचाव पर व्यापक चर्चा की। कांफें्रस के सचिव डॉ .पवन पाराशर का कहना था कि पर्यावरण और स्वास्थ्य का परस्पर संबंध है। दूषित पर्यावरण का स्वास्थ्य पर असर पड़ता है। डॉ. भोलानाथ द्वारा आयोजित शोध-पत्र प्रस्तुति सत्र में डॉ. राहुल बंसल, डॉ. भावना पंत के निर्देशन में डॉ. कपिल गोयल, डॉ. अंकुर श्रीवास्तव, डॉ. पारूल शर्मा, डॉ. रंजिता, डॉ. अनुराधा, डॉ. सरताज अहमद(अध्येता मेडिकल सोसियोलोजी), डॉ. रश्मि, डॉ. धीरज, डॉ. मोनिका, डॉ. अनुज, डॉ. सौरभ, डॉ. गगन, डॉ. गुरमीत, डॉ. प्राची, डॉ. सुमोजित सहित देश के कई राज्यों के चिकित्सकों व परास्नातक छात्र-छात्राओं ने ओरल शोध व पोस्टर शोध-पत्र प्रस्तुतीकरण के माध्यम से स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर अपने शोध प्रस्तुत किए।
अलीगढ़ की प्रो. डॉ. जुल्फिया खान के कर - कमलों द्वारा स्मारिका का विमोचन किया गया। डॉ. मुक्ति भटनागर और कुलपति (लेफ्टिनेंट जनरल) डॉ. बी.एस. राठौर ने डॉ. अंकुर श्रीवास्तव व डॉ. भास्कर द्वारा तैयार की गई योग पर आधारित सी.डी. भी लांच की। कार्यक्रम की समाप्ति पर निदेशक जनरल चिकित्सा शिक्षा प्रो. सोदान सिंह ने कहा कि भारत में योग और आयुर्वेद का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। तमाम वैज्ञानिक शोधों और प्रामाणिक सिद्धान्तों के आधार पर आयुष के महत्व को स्वीकार किया जाने लगा है। इसमें योग और आयुर्वेद सबसे मजबूत पैथी के रूप में उभरा है। इसके लिए सरकारी और गैर सरकारी व अन्य चिकित्सा संस्थानों से सहयोग मिल रहा है। सुभारती मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य डॉ. ए.के अस्थाना ने कान्फ्रेंस में महत्वपूर्ण भागीदारी करते हुए इस तरह के विमर्श की जरूरतों पर बल दिया एवं इसके लिए हर संभव कोशिश को प्रोत्साहित किया।
देश भर से जुटे सभी विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों के विशेषज्ञों, विद्वानों ने योग-आयुर्वेद और आधुनिक चिकित्सा प्रणाली के सभी महत्वपूर्ण तथ्यों पर गहन विचार विमर्श के बाद एक मत हुए कि रोगों के निदान के लिए आधुनिक चिकित्सा पद्धति में योग-आयुर्वेद और नैचरोपैथी का समावेश आज की जरूरत है। बेहतर होगा की परम्परागत चिकित्सा पद्धतियों को आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था में सामंजस्य बनाकर सरल व जटिल रोगों की चुनौतियों से निपटा जाएं।


...तो समाज भी इन्हें नकार देगा




कालजयी लोकप्रिय कृति रागदरबारी (उपन्यास) के रचनाकार श्रीलाल शुक्ल के निधन के बाद मीडिया माध्यमों में भी थोड़ी-बहुत हलचल हुई। पत्र-पत्रिकाओं और खबरिया चैनलों आदि में रागदरबारी के अंश प्रस्तुत किए गए। कुछ हिन्दी समाचार पत्रों (अंगे्रजी अखबार हिन्दी वाले को क्यों छापेगा!) ने पूरी पैकेजिंग की। उन पर पूरे पृष्ठ दिए। हिन्दी समाज के राजनीतिकों को भी लगा कि जरूर यह व्यक्ति कोई बड़ा आदमी था सो लगे हाथ श्रद्धांजलि दी गई । चैनलों-अखबारों में शोक संवेदना दी गई ।

साहित्य समाज का दर्पण है यह कोई मुहावरा, सूक्ति या स्कूली निबन्ध का विषय नहीं है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों से जुड़े मीडिया संस्थानों, शैक्षिक संस्थानों, प्रशासकों, राजनीतिकों, इंजीनियर-डाक्टरों, व्यवसायियों आदि की अगर हम बात करें तो साहित्य-विचार के प्रति एक बहुत ही निराशाजनक (कारुणिक)परिदृश्य उभर कर सामने आता है। और जब अभिभावकों यानी बड़े -बुजुर्ग लोगों की बौद्धिक स्थिति सोचनीय हो तो फिर नई पीढ़ी और बच्चों की क्या बात की जाए! क्योंकि हमारे बच्चे हमीं से संस्कार-सरोकार ग्रहण करते हैं। (मोबाइल,इंटरनेट,फेशबुक ...दे सकते हैं तो संस्कार ने क्या बिगाड़ा है जी!)

हमारे जन माध्यमों यानी मीडिया माध्यमों का धर्म माना जाता है कि वह सूचना, शिक्षा और मनोरंजन (स्वस्थ) का प्रसार करे। लेकिन मीडिया भी बाजार और विज्ञापन कम्पनियों पर आश्रित होकर साहित्य सरोकार को फालतू मानने का काम करती है। यह एक भ्रम फैला दिया गया है कि जनसंचार के माध्यम लोगों की रुचियों के अनुसार ही प्रकाशन-प्रसारण करते हैं . और लोग मिशन, सरोकार में रुचि नहीं रखते! मानों जनता फिल्मकारों, सम्पादकों, मीडिया मालिकों के सामने धरना देकर कन्टेंट की मांग करती है। (काश! ऐसा होता) सिनेमा जैसे प्रभावशाली माध्यम को भी मनोरंजन तक सिमटाने का प्रयास किया जाता है. यह कहकर कि सिनेमा में पैसा बहुत लगता है इसलिए सरोकार जैसी बातों को लेकर ज्यादा आग्रह नहीं किया जा सकता। लेकिन अनेक ऐसी फिल्मों को लें तारे जमीं पर, आरक्षण, अपहरण, गंगाजल आदि (और भी अनेक भारतीय और विदेशी फिल्मों को लिया जा सकता है) जिसे जनता ने पसंद (बाजार के मानक पर) किया। मुनाफा दिया । सिनेमा जैसे ताकतवर माध्यम को सिर्फ मनोरंजन के हवाले नहीं किया जा सकता। यही बात पत्रकारिता, कला, सिनेमा और परंपरा सब पर लागू होती है। बाल गंगाधर तिलक ने तो गणपति उत्सव के अवसर पर लगने वाली मेले की भीड़ को स्वतन्त्रता आंदोलन से जोड़ लिया था।





अच्छी पत्रकारिता भी बिक सकती है यह कई बार साबित हुआ है। लेकिन बिना किसी वैज्ञानिक शोध-सर्वेक्षण के पूंजी संस्कृति में इस बात को जोर-शोर से दोहराया जाता है कि साहित्य-फाहित्य या सामाजिक सरोकार को कौन पढ़ता है जी! हिन्दी समाज के (डा. रामविलास शर्मा के शब्दों में हिन्दी जाति) पत्रकार, बुद्धिजीवी अपनी सांस्कृतिक जातीयता के मामले में या तो निरक्षर हैं या फिर वे उसे पेश करने में लजाते हैं! दिलीप पडगांवकर जब टाईम्स ऑफ इण्डिया जैसे प्रतिष्ठित (बाजार के पैमाने पर भी!) अखबार में बतौर संपादक मराठी के महान नाटककार पु.ल.देशपांडे पर सम्पादकीय दे सकते हैं तो हिन्दी का सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला दैनिक डा . शर्मा को संक्षिप्त में क्यों सिमट देता है। आखिर हिन्दी समाज के एंकर, रिपोर्टर, संपादक चाहे वह किसी भी भाषा और माध्यम के मीडिया में काम कर रहे हों वे अपने मनीषियों को क्यों नहीं खबरों में स्पेस देते। और यह बात हिन्दी समाज, संस्कृति और पत्रकारिता में कहीं ज्यादा घर कर गयी है। हिंदी अखबारों की रविवारी (संडे मैगजीन) सिनेमा -मनोरंजन के नाम पर बौधिक दरिद्रता परोस रहे हैं . कही झंकार -टंकार है तो कही मनोरंजन के नाम पर देह -दर्शन . इन्हें पता नहीं किसने बता दिया की हिंदी पट्टी के लोग जो गरीबी -बेकारी सहित अनेक समस्याओं से ग्रसित हैं वे साहित्य और अपने ही सरोकारों की नहीं पढ़ते –सुनते ?

अन्ना हजारे के जनवादी-गांधीवादी आन्दोलन को जिस तरह से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने कवरेज़ दिया वह कोई मीडिया की उदारवादी नीति , एहसान या सरोकारों के प्रति एकाएक फिसलन या दायित्वबोध के कारण नहीं सम्भव हुआ बल्कि उनके पूंजी बाजार के मानक पर भी अन्ना फिट और हिट थे। जनता ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना को यानी अपने को जगाया! विदेश की धरती की बात करें तो विलियम शेक्सपीयर की जन्म भूमि इंग्लैण्ड के सर्वाधिक दर्शनीय स्थलों में है। उनकी यादों को शानदार धरोहर बनाकर संजोया गया है। शब्दशिल्पी के किये को लेकर अभिमान है वही की जनता और सरकार को . लेकिन कालिदास, तुलसी और कबीर के साथ हमारा बर्ताव कैसा है यह सभी जानते हैं? वर्ष २००७ में जादुई यथार्थ (मैजिक रियलिज्म) के जादूगर यानी प्रसिद्ध लेखक गैब्रिएल गार्सिया मार्केज़ कोलंबिया में अपने गृहनगर (एराकटाका) लौटे तो लोगों ने उनका शानदार स्वागत किया था। यहां तक कि सैकड़ों लोग उनकी गाड़ी के साथ भागते हुए स्टेशन तक गए। वहां की सरकार उनके घर का जीर्णोद्धार कर रही है और एक संग्रहालय बनवा रही है । लेकिन देवकीनंदन खत्री (जिनकी चंद्रकान्ता को पढऩे के लिए हजारों लोगों ने हिन्दी सीखी), भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रेमचंद, प्रसाद, आचार्य शुक्ल सहित तमाम जाने -अनजाने मनीषियों से जुड़ी स्मृतियों के क्या हाल हैं यह किससे पूछा जाए? प्रेमचंद के बनाए घर को बचाया नहीं जा सका। अब वहां महल खड़ी कर दी जाए तो क्या? इसलिए जब तक समाज चेतना दुरुस्त नहीं हो जाती और लोग सर्जकों के किए-धरे का सांस्कृतिक गौरव मान कर सम्मान करना नहीं सीख जाते । मीडिया का इसमें अहम भूमिका है । अच्छी पत्रकारिता बिकती है। मुनाफा बटोर सकती है। टीआरपी बढ़ा सकती है। सरोकारी सिनेमा भी करोड़ों का मुनाफा कमा सकता है। और यदि जनता की रुचियों की आड़ में समाज, संस्कृति, सरोकार को हाशिए पर रखा जाता रहेगा तो समाज भी इन्हें नकार देगा। समर्थन नहीं देगा । मीडिया का एक काम रुचियों का परिष्कार करना भी है। हिन्दी समाज को अगर सभ्यता की कसौटी पर उन्नत करना है तो संास्कृतिक विकास जरूरी है। जाति-धर्म-क्षेत्र विमर्श की जगह जातीय विमर्श की ओर रुख करना होगा। जनमाध्यमों को यह दायित्व निभाना चाहिए। मॉल, बाजार और फार्मूला-वन, २०-२० पर इतराने-इठलाने के बावजूद भूख, गरीबी, बेकारी, राजनीति की फिसलन, भ्रष्टïाचार, अपराध जातीय अहंकार को अगर हम जारी रखे हुए हैं तो यह शोक का समय है न कि ब्रेकिंग-एक्सक्लूसिव के उल्लास का। आखिर बाजार के चोंचले पर गौरवान्वित होने के बजाय उन सांस्कृतिक संदेशों को फैलाने का आप काम क्यों नहीं करते जो कबीर, रैदास, तुलसी, जायसी, मीरा... से लेकर भारतेन्दु, आचार्य शुक्ल और तमाम शब्द शिल्पियों के सरोकारों से होकर गुजरता है। एक हस्तक्षेप और सभ्यता विमर्श बनकर।





अद्भुत साहित्य शिल्पी

                                                 श्रीलाल शुक्ल

जीवन को हंसी-ठिठोली में उड़ा देने का माद्दा पाठकों को भी जिंदा कर जाता है। उनके जीवनानुभवों को अपनी दिनचर्यायों में आसानी से खोज निकाल सकते हैं। राग दरबारी, गोदान और मैला आंचल की तरह ही कालजयी कृति है। उनकी लेखनी से झरता विनोद-व्यंग्य आम जन - जीवन का ही हिस्सा है। हंसी-ठिठोली और चुटीलापन उनके जीवन और साहित्य दोनों में घुला-मिला सा था। कुछ भी थोपा हुआ सा नहीं लगता। घटनाएं हमारे बीच से ही उठा ली गई लगती हैं। सहज भाषा और हल्की-फुल्की घटनाएं वर्षों तक घुमड़-घुमडक़र हमें गुदगुदाती हैं। जीवन की विडम्बनाएं, विद्रुपताएं समय के यथार्थ को ही चित्रित करता है। और साहित्य समाज का दर्पण बनकर उभर जाता है। आजादी के बाद ग्रामीण जीवन के यथार्थ को जिस तरह से उन्होंने दर्ज किया है वह आज बेहद प्रासंगिक है। श्रीलाल शुक्ल को कई-कई बार पढक़र हम बार-बार जी सकते हैं।







श्रीलाल शुक्ल (३१ दिसम्बर, १९२५ २८ अक्टूबर, २०११) सृजन-संसार का एक बड़ा नाम थे। एक अनमोल रतन। अब हमारे बीच वे नहीं हैं तो साहित्य जगत में एक स्तब्धता है। सन्नाटा है . लगता है औचक वे चले गए हैं! उनके जाने से साहित्याकाश में जो खालीपन नजर आ रहा है वह आसानी से नहीं भरा जा सकता। और जब यह बात कही जा रही है तो यह कोई रस्मी बात नहीं है! श्रीलाल शुक्ल हमारे गौरव और स्वाभिमान थे। प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु के बाद भारतीय आंचलिक परिवेश-गांव-गिरान की व्यथा-कथा और विडंबनाबोध को उन्होंने यथार्थवादी संवेदना दी। अद्भुत कथाभाषा, शिल्प के मार्फत उन्होंने अवध के जीवन का यथार्थ चित्रण किया। व्यंग्य-विनोद के कुशल शिल्पी शुक्लजी ने अपनी रचनाओं में जीवन को जिस तरह से रचा है वह बिना तलवे को कष्टï दिये, जीवन की बारीकियों को समझे संभव नहीं है। राग दरबारी में आजादी के बाद भारतीय समाज-संस्कृति में व्याप्त भ्रष्टïाचार, पाखंड, चापलूसी, विसंगतियों पर जो प्रहार किया गया है वह कथ्य और शिल्प दोनों स्तर पर साहित्य के आकाश में मील का पत्थर है। १९६९-७० में इस अनुपम कृति को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। वहीं श्रीलाल शुक्ल की रचनाधर्मिता को सिर्फ हिंदी जगत में ही नहीं बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं एवं विश्व साहित्य में भी विशिष्टï दर्जा मिला। अनेक देशी-विदेशी भाषाओं में अनुदित यह कृति हिंदी साहित्य की श्रेष्ठ कृतियों में शुमार है। बार-बार पढ़ी जाने वाली कृति। साहित्य अकादमी, व्यास सम्मान और जीवन के अंतिम दिनों में अस्पताल के बिस्तर पर सर्वोच्च साहित्य पुरस्कार ज्ञानपीठ सहित उन्हें जीवन में अनेक सम्मान-पुरस्कार मिले। हर उम्र और पीढ़ी के पाठकों में राग दरबारी की लोकप्रियता रही। श्रीलाल शुक्ल की तमाम रंग की कृतियों में जो विद्रूप उभरता है वह दरअसल हमारे समाज का एक ऐसा कटु यथार्थ हैं जिससे आम जीवन का संघर्ष उभर कर आता है। आज के संदर्भ में जबकि भ्रष्टïाचार और व्यवस्था के रोग आम आदमी को दाल-रोटी और उनके हक-हकूक से महरूम कर रहे हैं श्रीलाल जी का वह विनोद, मीठे-तीखे व्यंग्य से सिक्त सटीक प्रहार प्रासंगिक है। जिस तरह से उन्होंने ग्रामीण जीवन की विसंगतियों को सहजता के साथ उद्घाटित किया है वह सूक्ष्म अवलोकन के विनियोग शक्ति का ही परिणाम है। ग्रामीण जीवन के यथार्थ को जिस तरह से शैली-शिल्प, कथ्य और भाषा के मार्फत वह रचते हैं वह अद्भुत है। उनकी रचना गुदगुदाती हैं, चिकोटी काटती है और अपनी सहजता में ही समय में हस्तक्षेप करती है।

वह एक विरले सर्जक थे। उनकी कृतियां हमारे साथ हैं और जब तक शब्द हैं तब तक वे कभी नहीं मरेंगे। वह हमारे बीच भौतिक रूप में नहीं हैं लेकिन कृतियों में जिंदा रहेंगे हमेशा-हमेशा। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि!

प्रमुख रचनाएं

सूनी घाटी का सूरज, अज्ञातवास, राग दरबारी, सीमाएं टूटती हैं, मकान, आदमी का जहर, पहला पड़ाव, विश्रामपुर का संत (उपन्यास), अंगद का पांव, यहां से वहां, उमरावनगर में कुछ दिन (व्यंग्य)।






गुरुवार, 28 जुलाई 2011

हमारे समय की बौद्विक उपस्थिति : नामवर सिंह





 बरिष्ठ समालोचक डॉ. नामवर सिंह का हिन्दी आलोचना के विकास-विस्तार में महत्वपूर्ण योगदान है। वे हमारे समय की बौद्धिक उपस्थिति हैं। उन्हीं के शब्दों में—‘जिसमें सारा हिन्दी समाज शामिल मार्क्सवाद से शुरू करके अब तक की जीवन यात्रा में वे कई उपलब्धियों से लैस आलोचक हैं। वाराणसी से तीस मील दूर चंदौली जिले के छोटा-से गांव जीअनपुर में २८ जुलाई, १९२७ को उनका जन्म हुआ। हालांकि नामवर सिंह की पुस्तकों में १ मई (श्रम दिवस), १९२७ दर्ज है। हिंदी क्षेत्र में पुनर्जागरण के नायक के रूप में उन पर आयेजित ‘ नामवर के निमित’ (अमृतवर्ष-२००२) में असली जन्म दिन का लोगों को पता चला। पिता सागर सिंह किसान और शिक्षक थे। मां बागेशवरी देवी थीं। उनकी शिक्षा-दीक्षा वाराणसी में सम्पन्न हुई। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिंदी में एम. ए. (१९५१) और पी-एच.डी. की उपाधि (१९५६ में) प्राप्त की। पृथ्वीराज रासो:भाषा और साहित्य पर उनका शोध ग्रंथ काफी चर्चित रहा । आज भी इस पुस्तक की मौलिक दृष्टि की विशिष्ट पहचान है ।‘ हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग’ की भूमिका प्रो. पी.एल.वैद्य जैसे विद्वान ने लिखी थी। इसी दौरान 1९५३ से १९५९ तक उन्होंने विश्वविद्यालय में अध्यापन किया। वे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के प्रिय शिष्य रहे। द्विवेदी हिन्दी साहित्य के उस समय के सर्वाधिक यशस्वी प्रोफेसर थे। जोधपुर विश्वविद्यालय, सागर, कन्हैयालाल माणिक मुंशी हिंदी विद्यापीठ (आगरा), जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय तक के अकादमिक सफर में अनेक पड़ावों से गुजरते हुए उन्होंने कई जीवन उपलब्धियां अर्जित की। वे बेहद लोकप्रिय अध्यापक रहे। ‘अध्यापक हो तो नामवर जैसा’ उनके शिष्य आज भी कहते हैं। मध्यकालीन और आधुनिक साहित्य के बहुपठित विद्वान हैं। उनकी वक्तृता उन्हें कक्षाओं, सभागारोंं में हिट करती है। उनके शिष्यगण बताते हैं कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से जे.एन. यू. तक जहां भी रहे उनकी कक्षाएं खचाखच भरी रहती थीं। दूसरे विषयों के छात्र भी उनकी कक्षाओं के गेट-खिड़कियों पर खड़े होकर उन्हें सुनते थे । हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग,पृथ्वीराज रासो की भाषा, इतिहास और आलोचना, छायावाद, आधुनिक साहित्य की प्रवितियां, बकलम खुद, कविता के नये प्रतिमान, दूसरी परम्परा की खोज, वाद-विवाद संवाद आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। ‘दूसरी परंपरा की खोज’ उनकी अपनी लिखी प्रिय आलोचना पुस्तक है। उनका कहना है कि ‘दूसरी परंपरा का मतलब द्वितीय परंपरा नहीं बल्कि एक और परंपरा है। वह गणना के क्रम में दूसरी नहीं थी।’ इसके अलावा उन्होंने ‘जनयुग’ साप्ताहिक (१९६५-६७), ‘आलोचना ’ १९६७ - ९१ का संपादन किया। पुनर्प्रकाशित ‘आलोचना’ (२००० से) के भी वे प्रधान संपादक हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल संचयन चिंतामणि: भाग-३, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबन्ध संकलन, आधुनिक रूसी कविताएं, आज की हिन्दी कहानी,नवजागरण के अग्रदूत बालकृष्ण भट्ट आदि का भी उन्होंने संपादन किया है। समकालीन साहित्य की प्रवृतियों को लेेकर उन्होनें अनेक ‘विमर्श’ खड़े किये हैं। उनकी स्थापनाएं जितनी जीवंत और मौलिक होती हैं, उतनी ही विवादास्पद! वे चांैकाऊ स्थापनाओं ने लिए विख्यात रहे हैं। विचारों में वे अत्यंत प्रगतिशील रहे हैं। इसीलिए वे अपने साहित्य-चिंतन के प्रतिमानों को बार-बार रचते रहते हैं। अब यदि उनके ‘भक्तगण ’ उन्हें विचार और इतिहास के अंत की तरह आखिरी आलोचक साबित कर चुके हों या कर रहे हों तो इसमें नामवरजी क्या कर सकते हैं? लेकिन नामवरजी भी अपनी एक चौकाउं स्थापना में ‘आचार्य शुक्ल को ही एकमात्र आचार्य घोषित कर चुके हैं , अपने गुरु द्विवेदी जी को भी नहीं’ तो इसमें नामवरजी न आचार्य शुक्ल की प्रतिष्ठा बढ़ा रहे हैं और न ही उनको आखिरी आलोचक बताने वाले उनकी प्रतिष्ठा । ‘हंस’ संपादक राजेंद्र यादव के शब्दों में कहू तो ‘वचिक ही मौलिक है’ का धर्म निवाह रहे नामवर जी ‘दूसरी परंपरा की खोज’ करके भी यदि सिर्फ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को ही आचार्य मानते हांे, अपने गुरु को भी नही ंतो यह विड़म्बना ही है। ठीक वैसे ही जैसे कुछ उत्तर आधुनिक विमर्शियों ने उन्हें अतिंम आलोचक घोषित कर दिया था। अगर ऐसा है तो इसमे शुक्ल जी और नामवर जी ही कटधरे में खड़े होते हैं कि उनके बाद उनकी परंपरा ही टूट गई। तो यह हुई दूसरी खोज जहाँ एक बार आचार्य और आलोचक पैदा होने के बाद साहित्य की धरती ही बंजर हो गयी !

आचार्य केशवप्रसाद मिश्र, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र जैसे अनेक मनीषियों से प्राप्त वैदुष्य-संस्कार तथा आधुनिक भाषाओं के साहित्य का गंभीर अध्ययन उनकी आस्वाद-क्षमता को विशिष्टï बनाता है। उनकी पारंपरिक और आधुनिक दृष्टिï उन्हें दूसरों से अलग करती हैं । पंडित रामअवतार शर्मा और आचार्य चंद्रधर शर्मा गुलेरी जैसे आधुनिक बोध वाले आचार्यों से भी वे खासा प्रभावित हैं। संस्कृत के इन परंपरावादी विद्वानों के आधुनिकता बोध , आचार्यत्व को नामवर सिंह सेमीनारों और लिखंत में उल्लेखित करते रहे हैं ।
नामवर जी ने अपनी क्षमता,मेधा की तुलना में कम लिखा है। वे ‘ वाचिक ही मौलिक है’ में अपार विश्वास करते हैं, यहां तक कि वह कहते हैं ‘ वे धन्य हैं जो अमर होने के लिए बोलते हैं पर मैं तो मर-मर के बोलना चाहता हूं। मेरे शुभचिंतक शिकायत करते हैं कि मैं आजकल लिखता नहीं, बोलता हूँ। उन्हंे शायद यह मालूम नहीं कि मैं बोलता ही नहीं, लोकार्पण भी करता रहता हूँ – (स्वयं को ग्रंथमोचक बताते हुए) . काशी (बनारस) उनको कचोटती रही है। वे अक्सर कहते हैं -(बाबा नागार्जुन के) उस बैल की तरह जो बेच दिया गया, अपने बथान तक बार-बार दौड़ता है। इसीलिए वे यहां आने का बहाना तलाशते रहते हैं। ‘तुम्हारी याद के जख्म भरने लगते हैं तो किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं।’ बनारस छूटने के बाद वे दिल्ली में स्टार-सुपर स्टार आलोचक बनकर साहित्य संसार में छा गए । बनारस छूटने का कारण वह ‘भैरवजी का सोटा’ (मान्यता है कि काशी के कोतवाल भगवान काल भैरव के आदेश के बिना काशी में वास संभव नहीं है । ) मानते हैं । वह कहते हैं ‘काशी बार-बार मुझे दुत्कारती है फिर भी मैं काशी का हूं।’ काशी को वे ब्राह्मïण और श्रमण संस्कृति और बहुलतावादी परम्परा का केन्द्र मानते हैं। इस्लाम, बौद्घ , जैन तथा सिख परंपरा को इस विरासत से काटना संभव नहीं है। नामवर की दुत्कार वाली शिकायत की उनकी वजहें रही है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से उनकी निकासी और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे समर्थ गुरु के स्नेह-आशीर्वाद के बावजूद हिन्दी विभाग में चयन न होना उनके दु:ख का कारण रहा है। १९५९ में वे चकिया चंदौली लोकसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिष्टï पार्टी के उम्मीदवार भी रहे जिसमें उन्हें असफलता मिली । बीएचयू से निकासी के कारणों में यह चुनाव माना जाता है । अभाव और बेकारी में शुरुआत का जीवन -( गर्वीली गरीबी वह) बिता चुके नामवर अब साहित्यिक जीवन उपलब्धियों की आलोचकीय समृद्घि से सम्पन्न हैं। ’हक अदा न हुआ’ नामवर जी की षष्टिपूर्ति पर लिखे भावनात्मक और महत्पूर्ण लेख मेें विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने लिखा है - मुझे याद है एक बार तो नामवर जी आदरणीय विजय शंकर मल्ल जी जैसा लम्बा कोट पहनकर इंटरव्यू देने गये। हम लोग आश्वस्त थे। केदारनाथ सिंह का विचार था कि जब ऐसा लम्बा कोट पहन कर गये हैं तब चयन होना निश्चित है। पर चयन श्री भोलाशंकर व्यास का हुआ। वहां तो द्विवेदी जी कुछ कर-धर नही पाये। मिलने पर नामवर जी को काफी ड़ांटा - अपनी किताबे क्यों नही ले गये। वहां पूछा गया, कौनसी किताबे लिखी हैं तो दिखाने को एक भी नहीं। ऐसे इंटरव्यू दिया जाता है ? क्या इससे यह ध्वनि नहीं निकलती है कि कम योग्य अभ्यर्थी का जुगाड़ या अन्य कारणों से चयन हो गया? आप ही बताइए विश्वनाथ जी, व्यासजी भी प्रतिभा, उपलब्धि -स्तर, शिक्षा के स्तर पर कहां कम थे? हालांकि व्यासजी हमेशा कहा करते थे कि काश , एक और सीट होती और नामवर भी यहां होते।
नामवर जी की मेधा, साफगोई और दृष्टि के व्यास जी कायल थे । लेकिन यह कहा जाना कि नामवर जी से कमतर का चयन हुआ सही नहीं है विश्वनाथ जी ने लिखा हैं वे दिन बहुत खराब थे। लगभग सात वर्षाे तक एम.ए., पी-एच.डी. छायावाद, हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, इतिहास और आलोचना, आधुनिक साहित्य की प्रवृतियां के लेखक डा. नामवर सिंह बेकार रहे।
साहित्य अकादमी (१९७१ में कविता के नए प्रतिमान),शलाका सम्मान(हिंदी अकादमी दिल्ली) सहित उन्हें अनेक पुरस्कार-सम्मान मिल चुके हैं। राजेन्द्र यादव के शब्दों में-‘‘सत्ता उनकी कमजोरी है। ... अनेक ऐसे उदाहरण हैं जब उन्होंने सत्ता में बैठे लोगों की आरतियां उतारी हैं।’’
नामवरजी ने जितना कुछ लिखा-पढ़ा है; आलोचना को समृद्धि दी है- वह हमारे लिए गौरवपूर्ण है। यह अलग बात है कि उनकी हर आलोचना को समालोचना की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता । कहीं -कहीं ज्यादा आशीर्वादी और पीठ ठोकी भूमिका में रहे हैं तो कहीं काफी आक्रामक और पूर्वाग्रही । यह हम नहीं कह रहे हैं बल्कि नामवर का आलोचना के कुशल पारखियों का कहना रहा है । बनारस में कई-कई बार उन्हें सुनने का मौका मिला । खचाखच भीड़-भाड़ में खड़े होकर, जमीन पर बैठकर भी या जगह के अभाव में खिड़कियों -दरवाजे पर खड़े होकर भी उन्हें सुनते हुए लोगों को देखा है । उनमें साहित्य-फाहित्य से दूर-दूर तक नाता न रखने वाले भी होते हैं। बस एक बार प्रेमचंद की १२५ वीं जयंती पर वाराणसी में आयोजित संगोष्ठी में लंका से यूपी कालेज तक सरकारी लक्जरी बस के इंतजाम यानी यातायात की बेहतरीन सुविधा के और नामवर, राजेंद्र यादव जैसे स्टार वक्ताओं को पता नहीं लोग उम्मीद के मुताबिक सुनने क्यों नहीं गए जितना अकेले नामवर जी को ही सुनने जाते थे । ‘वाद-विवाद-संवाद’ में रमने वाले नामवर सिंह शतायु हों।




नामवर के बोल
 भाषा की असली ताकत उसकी भद्रता,शिष्टïता और महानता का अहंकार नहीं बल्कि उसको बोलने वाली जनता होती है । -नामवर के निमित, कोलकाता , दिसम्बर, २००१

 वास्तविक आलोचक किसी एक कृति का मूल्यांकन करते समय परोक्ष रूप से साहित्य की समस्त कृतियों का मूल्यांकन करता है, यदि वह ऐसा नही करता तो वह मूल्यांकन ही नहीं है, और उसके अंतनिर्हित प्रतिमान में कही न कही असंगति है। - नामवर सिंह , इतिहास और आलोचना

 “मैं मार्क्सवादी हूँ पर कई प्रश्नों पर बार-बार सोचता हूँ। आज बदले हुए दौर में कई ऐसे प्रश्न हैं जिनका जबाब हमें मार्क्सवाद में नही मिलता।“
 उपन्यास अगर पाठ ही है, तो मर जायेगा। गोदान में गुठली है। ‘रस’ न हो तो कालजयी कृति हो ही नहीं सकता। युगों-युगों तक गोदान पढ़ा जाता रहेगा तो ‘रस’ के कारण, कलाकृति के कारण। क्योंकि वो वर्णन इतिहास, समाजशास्त्र में भी मिल जाएगा। बंधी-बंधायी विचारधारा के आधार पर न मूल्यांकन किया जाए। रचनाकार की कृति में जो राग बना है, उसको देखें। गोदान का यही बड़प्पन है। सीपीआई, सीपीएम,सीपीआई एमएल वाले अपनी-अपनी विचारधारा ढूंढ़े? गोदान विचारधारा को अतिक्रमित करता है। उसके मर्म को जानने के लिए विचारधाराओं के चक्कर में नहीं पडऩा चाहिए।
 ‘गोदान’ विशाल वाद्य वृंद्य है। सबने अपना-अपना सुर मिलाया है। जो लोग ‘गोदान’ में केवल दलित विमर्श देखते हैं, स्त्री विमर्श देखते हैं, यह देखना गोदान के टुकड़ों को देखना है। संपूर्ण की उपेक्षा करना है। गाय ‘गोदान’ में यदि रूपक है, प्रतीक है, अनेक आदर्शों का प्रतीक बन जाती है। होरी खुद गाय है। गाय की इच्छा रखने वाला खुद गाय है। गाय जानवर या संपत्ति नहीं है। उसके मरजाद, आत्मसम्मान का भी सूचक है। गाय के साथ जमीन भी जुड़ा, है, उसके समूचे मनुष्यत्व का प्रतीक है। उस दौर में प्रेमचंद का वह ‘स्वराज्य’ है। उसके सपने का अर्थ हमें खोजना चाहिए। प्रश्न कर रहा हूं...क्या गोदान प्रेमचंद के लिए वही है जो कैपिटल में माक्र्स के लिए ‘मनी’ थी। किस गांधी का उन्होंने अतिक्रमण नहीं किया? ‘गांधीवाद’ नहीं छौड़ा था इसकी और व्याख्या करनी चाहिए। प्रेमचंद को विचारधाराओं के फंडे में न बांधों। प्रगतिशीलों को और सावधानी बरतनी चाहिए।
                                   सीनेट हॉल , स्वतंत्रता भवन, बीएचयू, ६-११-२००५
 मेरी जानकारी में राजा शिव प्रसाद ’सितारे हिन्द’ को लेकर हिन्दी की यह पहली गोष्ठी है और खुशी की बात है कि काशी मे हो रही है। 1995 में उनके निर्वाण काल की शताब्दी मानायी जा सकती थी लेकिन उनको काशी भी भूल गयी और बाहर वाले भी भूल गये। इसे भूल सुधार के रूप में दर्ज किया जाना चाहिये तथा इस प्रयास के लिए समस्त हिन्दी जगत को वीरभारत का कृतज्ञ होना चाहिये।
 भारतेन्दू जैसा साहित्यकार 19वी सदी में कोई नही हुआ। राजा साहब का क्षेत्र अलग था। वे दूरदर्शी शिक्षा शास्त्री थे जिन्हंे साहित्य और संस्कृति से गहरा लगाव था। वीरभारत तलवार को सावधानी बरतनी चाहिये नही ंतो भूल सुधार के चक्कर में एक और गम्भीर भूल हो जायेगी। हिन्दू और मुस्लिम जैसे विषयों पर वीरभारत फिर से विचार करें नही तो भूल को दूरुस्त करने में एक और भूल होगी। वीरभारत को हजार फटकार लगाईए लेकिन अगर यह किताब नही आयी होती तो यह चर्चा भी नही होती। वीरभारत ने बनारसी रंग देख लिया। साहित्य का पानीपत बनारस है, वीरभारत को लड़ाई यहां जितनी पडेगी। जो सवाल खासतौर पर अवधेष प्रधान और बलराज पाण्डेय ने उठाए उसका जबाब दिया जाना चहिये था। तलवार ने पहले ही लिखा है कि राजा साहब को हिन्दी वाले खलनायक मानते हैं और बस वे ही एक उन्हें नायक मानते हैं।----15-09-2004, वाराणसी, डायमण्ड होटल, राजा शिव प्रसाद ’सितारे हिन्द’ और 19 सदी का हिन्दी गद्य




गुरुवार, 21 जुलाई 2011

नसीरुद्दीन शाह -- अभिनय की कसौटी

नसीरुद्दीन शाह  (जन्म: २० जुलाई-१९५०) -एक ऐसा अभिनेता जिसकी रग-रग में अभिनय बसता हो। बहुमुखी प्रतिभा के धनी शाह ने अपनी भूमिकाओं से सिनेमा- संसार को कलात्मक विस्तार दिया। सृजन विस्तार । चाहे वे स्टेज एक्टर हों या फिल्मी एक्टर... उन्होंने विभिन्न चरित्रों में अभिनय के नए-नए शेड्स दिए। तीन दशकसे अधिक के अपने क़लातमक़ करियर में हर तरह के किरदार में वे खूब जमे । ‘स्पर्श’ और ‘मासूम’ में उनके परफॉरमेंस को कैसे भुलाया जा सकता है।


बाराबंकी (उत्तर प्रदेश) में जन्मे नसीर ने जहां राष्टरीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) से थिएटर का प्रशिक्षण लिया, वहीं भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) से सिनेमा के गुर सीखे।

मशहूर फिल्मकार श्याम बेनेगल की फिल्म ‘निशान्त’, ‘मंथन’ और ‘भूमिका’ में नसीर ने अपने अभिनय द्वारा सहज ही ध्यान आकृष्ट किया। अपनी कलात्मकता को ऊंचाई दी। १९७० के दशक में समांतर सिनेमा आंदोलन के दौर में उनकी प्रतिभा को बड़ी सम्मानित पहचान मिली। साईं परांजपे के स्पर्श, सईद मिर्जा के अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है, गोविंद निहलानी के ‘आक्रोश’ और केतन महता के ‘मिर्च मसाले’ में नसीरुद्दीन शाह के चरित्र ने हिंदी सिनेमा को अभिनय की उल्लेखनीय छटा दी।

इसके अतिरिक्त व्यवसायिक फिल्मों ‘कर्मा’, ‘जलवा’ और ‘त्रिदेव’ आदि में भी अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया। मुख्य धारा की व्यवसायिक फिल्मों में हास्य से भिगी चारित्रिक और खल भूमिकाओं में भी वे अपने अभिनय को विस्तार और विविधता देते नजर आए। शाह ने हॉलीवुड में भी कुछ फिल्में की हैं। साथ ही मिर्जा गालिब और भारत एक खोज जैसे टीवी धारावाहिकों में भी काम किया है।

उन्हें सर्वश्रेष्टï अभिनय के लिए तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार मिले। १९८० में ‘आक्रोश’ १९८१ में ‘चक्र’ और १९८३ में ‘मासूम’ के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार विजेता बने। गौतम घोष के ‘पार’ में संजीदगीपूर्ण भावाभिनय के लिए उन्हें १९८४ वेनिस फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का वोल्पीकप मिला। इसी फिल्म पर वे १९८४ में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के रूप में राष्टï्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता भी बने।

नसीर का मन आज भी थिएटर में ही रमता है। वे अभिनय की तलाश में आज भी जिज्ञासु बने हुए हैं। नसीर ने कभी भी अपने कलाकार से समझौता नहीं किया। अच्छे चरित्र और बेहतरीन पटकथा की उनकी तलाश जारी है। वही किरदार चुनते हैं, जो उनहें छूते हैं कोई भी ऐसी फिल्म नहीं करते, जिसमें मजा न आए। नसीर का मानना है िक़ जब भी उन्होंने कोई भी फिल्म बेमन से की है, वह लोगों न॓ भी पसंद नहीं क़ी है। सृजन सरोकारों के समय वे हमेशा गतिशील बने रहें। जीवन की गति के साथ। तुम जियो हजारों साल...। जीवेत् शरद: शतम ।



फिल्मोग्राफी—

१९७५ : निशान्त

१९७६ : मंथन, भूमिका

१९७६ : मंथन, भूमिका

१९७७ : गोघूलि

१९७८ : जुनून

१९७९ : सुनयना, स्पर्श

१९८० : आक्रोश, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा

क्यों आता है, अंधेर नगरी, चक्र

१९८१ : सजा-ए-मौत, उमराव जान, आधारशिला

१९८२ : बेजुबान, बाजार, मासूम, स्वामी दादा

१९८३ : अद्र्ध सत्य, मंडी, वो सात दिन

१९८४ : पार्टी, पार

१९८५ : बहु की आवाज, गुलामी, मिर्च मसाला, त्रिकाल, खामोश

१९८६ : कर्मा, जलवा

१९८७ : इजाजत

१९८८ : जुल्म को जला दूंगा, हिरो हिरालाल

१९८९ : त्रिदेव, खोज

१९९० : चोर पे मोर

१९९१ : शिकारी, लिबास

१९९२ : विश्वात्मा, तहलका, चमत्कार

१९९३ : सर, कभी हां-कभी ना

१९९४ : मोहरा, द्रोहकाल

१९९५: नाजायज, टक्कर

१९९६ : चाहत, हिम्मत

१९९७ : लहू के दो रंग

१९९८ : सरफरोश

१९९९ : भोपाल एक्सप्रेस

२००० : गजगामिनी

२००१ : मोक्ष

१९७७ : गोघूलि

१९७८ : जुनून

१९७९ : सुनयना, स्पर्श

१९८० : आक्रोश, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा

क्यों आता है, अंधेर नगरी, चक्र

१९८१ : सजा-ए-मौत, उमराव जान, आधारशिला

१९८२ : बेजुबान, बाजार, मासूम, स्वामी दादा

१९८३ : अद्र्ध सत्य, मंडी, वो सात दिन

१९८४ : पार्टी, पार

१९८५ : बहु की आवाज, गुलामी, मिर्च मसाला, त्रिकाल, खामोश

१९८६ : कर्मा, जलवा

१९८७ : इजाजत

१९८८ : जुल्म को जला दूंगा, हिरो हिरालाल

१९८९ : त्रिदेव, खोज

१९९० : चोर पे मोर

१९९१ : शिकारी, लिबास

१९९२ : विश्वात्मा, तहलका, चमत्कार

१९९३ : सर, कभी हां-कभी ना

१९९४ : मोहरा, द्रोहकाल

१९९५: नाजायज, टक्कर

१९९६ : चाहत, हिम्मत

१९९७ : लहू के दो रंग

१९९८ : सरफरोश

१९९९ : भोपाल एक्सप्रेस

२००० : गजगामिनी

२००१ : मोक्ष



शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

मणि कौल : सिनेमा संसार की अप्रतिम उपलब्धि

25 DECEMBER 1944-6 JULY 2011
सिनेमा एक कला है। जीवन के विविध आयामों को पर्दे पर उकेरना निश्चित ही एक कठिन विधा है। जनमानस की कलात्मक अभिव्यक्ति सिनेमा को नया प्रारूप देती है। रंग देती है । जीवन देती है । कला के बहुरंगी रंगों में रंगकर अभिव्यक्तियां और भी मुखर हो उठती हैं। विविध सुरों-लयों-तालों में नाच-गाकर सिनेमाई छवियां तरंगित हो उठती हैं। पर्दे पर जीवन नये रूप में उभर आता है। कलात्मक फिल्में कला को सम्मान देने का नाम है। व्यवसायिक फिल्मों के समय में चमक-दमक और ग्लैमर से परे कला फिल्मों की सफलता एक चुनौती है। व्यवसायिक फिल्मों के साथ बदलती दर्शकों की पसंद के बीच जगह बनाना एक उपलब्धि है। ऐसी उपलब्धि और जगह महान निर्देशक ही बना पाते हैं। मणि कौल ऐसे ही महान निर्देशकों में थे जन्होंने कला और समानांतर फिल्मों की चुनौतियों को स्वीकारा ही नहीं जिया भी। विविध कला-प्रारूपों को सिनेमा में गूंथकर पर्दे पर ले आये। चित्रकला और मूर्तिकला के रंग भरे और गढ़े। संगीत, नृत्य, वाद्य-यंत्रों के साजो-सामान, सुर लहरियों, तालों-थपकियों को सिनेमा में नई जगह दिलाई। एकबहुआयामी सर्जकके रूप में मणि कौल ने जो कुछ दिया वह सिनेमा संसार की अप्रतिम उपलब्धि है।

भारतीय सिनेमा इतिहास के पुरोधाओं में शुमार ऋत्विक घटक के शिष्य और निर्देशक महेश कौल के भतीजे मणि कौल जटिल, वास्तविक और अद्वितीय सिनेमाई भाषा के विकास के लिए जाने गये। जोधपुर राजस्थान में जन्मे मणी कौल ने जयपुर युनिवर्सिटी तथा फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे से शिक्षा प्राप्त की। छोटी उम्र से ही सिनेमा की ओर रुझान रखने वाले मणि ने अपने करियर की शुरुआत छोटी-मोटी एक्टिंग असाइनमेंट्स और लघु फिल्मों के निर्देशन के साथ की। १९६९ में इन्होंने अपनी पहली फीचर फिल्म ‘उसकी रोटी’ बनाई, जिसे आज नये भारतीय सिनेमा आंदोलन के पथ-प्रदर्शक के तौर पर देखा जाता है। फिल्म की लघु वर्णनीय तथा प्रयोगात्मक शैली इसे भारतीय सिनेमा के स्थापित मूल्य से अलग करती है और इसने गम्भीर आलोचनात्मक समीक्षायें भी बटोरी। इस फिल्म को १९७० के सर्वश्रेष्ठ फिल्मफेयर क्रिटिक्स अवार्ड से सम्मानित किया गया।


कौल प्रयोगधर्मी निर्देशक थे और अपनी फिल्मों में हमेशा नई सम्भावनायें तथा उतकृष्टïतायें तलाशते रहते थे। ‘आषाढ़ का एक दिन’ (१९७१)तथा ‘दुविधा’(१९७३) इसी श्रेणी की फिल्में थी। ‘दुविधा’ ने मणी को १९७३ के सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी दिलाया। शास्त्रीय संगीत के राग ध्रुपद में मणी की गहरी अभिरुचि थी। इन्होंने डागर बंधुओं से इस राग की प्रेरणा भी ली। उनका वृत चित्र ‘ध्रुपद’ (१९८२) इस राग के स्पेसों और प्रकाश के विविध उपयोगों के संगीतमय आयाम को प्रदर्शित करता है। आगे चलकर नये निर्देशकों में भी मणी तथा ‘ध्रुपद’ के प्रति के विविध उपयोगों के संगीतमय आयाम को प्रदर्शित करता है। आगे चलकर नए निर्देशकों में भी मणी तथा ‘धु्रपद’ के प्रति विशेष अनुरक्ति देखी गई।

संगीत तथा कलाकारों के लिए लगाव कौल की फिल्मों में सहज ही नये निर्देशकों में भी मणी तथा ‘ध्रुपद’ के प्रति विशेष अनुशक्ति देखी गयी। लगाव कौल की फिल्मों में सहज ही दिख जाता है। सुप्रसिद्ध ठुमरी गायिका सिद्धेश्वरी देवी पर आघृत उनका फीचर ‘सिद्धेश्वरी’(१९८९) अपने तरह की अलग फिल्म है। फिल्म में सिद्धेश्वरी देवी के जीवन की विविध भाव भंगिमाओं, अवस्थाओं, पड़ावों तथा अलग फिल्म है। फिल्म में सिद्घेश्वरी देवी के जीवन की विविध भाव भंगमाओं, अवस्थाओं, पड़ावों तथा विशेषत: संगीत के माध्यमों द्वारा दर्शाया गया है। फिल्म देखकर ऐसा लगता है कि फिल्म ‘ठुमरी’ की ही संगीतमय लहरों की तरह सिद्धेश्वरी देवी की बानगी है। जिसमें संगीत तथा उनकी जीवनगाथा एकाकार-सी लगती है। इस फिल्म को (१९८९) का राष्ट्रीय कला फिल्म पुरस्कार मिला।

मणि की कला-मिमांसा संगीत तक ही सीमित नहीं रहती वरन् विभिन्न कला प्रारूपों को छूती हुई इनकी फिल्में में समाहित हैं। टेराकोटा मूर्तियों तथा परंपरा पर आघृत ‘मति मानस’ (१९८४) ने अपार प्रशंसा बटोरी। साथ ही मलिक मुहम्मद जायसी की एक कविता से अभिप्रेरित तथा संस्कृत साहित्य से ली गई एक प्रेम कहानी पर बनी फिल्म ‘द क्लाउड डोर’ ने भी विशिष्ट आलोचनात्मक समीक्षायें जुटाई। मणी कौल की आखिरी फीचर फिल्म विनोद कुमार शुक्ला लिखित ‘नौकर की कमीज’ (१९९८) रही। महान निर्देशक और कला प्रेमी मणी कौल की मृत्यु ६६ वर्ष की उम्र में ६ जुलाई, २०११ को हो गई। फीचर तथा डाक्यूमेंट्री दोनों ही तरह की फिल्में बनाने वाले मणि की फिल्मों में कला के विविध प्रारूप हमेशा मौजूद रहे। उनके वृत्तचित्रों तथा फीचरों की विभाजन रेखा भी काफी महीन होती थी। हमेशा उत्कृष्ट एवं कलात्मक फिल्में बनाने वाले कौल भारत में समानांतर फिल्मों के जनकों में शुमार नाम भर ही नहीं थे बल्कि एक महान सर्जक, गुरु, दोस्त और ईंसान भी थे। भारतीय सिनेमा को उनकी कमी हमेशा खलेगी। सचमुच कवि-कथाकार के उदय प्रकाश के शब्दों में- मणि कौल का जाना कला किरीÅ से एक मणि का कम हो जाना है।





गुरुवार, 9 जून 2011

जिंदगी की पुनर्रचना

                       चंद्रबली  सिंह
                            (20 अप्रैल,1924 -23 मई, 2011)



मोहक , निश्छल मुस्कान और सरलता। सहज और अच्छे इंसान। मार्क्सवादी आस्था। दृढ़। जड़ नहीं। माने चंद्रबली सिंह । चंद्रबली जी ने अपनी सहजता, सरलता और सादगी से कभी भी बड़प्पन या ऊँचाई का आभास नहीं होने दिया। वे अपने से छोटे को भी सम्मान देते थे . मित्रवत पेश आते थे. उनका होना सिर्फ बनारस , हिंदी और विचार की दुनिया के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं था , बल्कि मानवीय संवेदना के लिए भी आस्वस्तिदायक था. 
उन्हें गोष्ठियों में सुनना अद्भुत था. ज्ञान -विचार की अनगिनत बातें और बातों की सार्थकता हर किसी को सुख देती थी. उनसे बोलने -बतियाने में हिचक नहीं होती थी . दूरी नहीं लगाती थी.  उनके पास जाने के लिए बहुत सोचना -समझना नहीं पड़ता था . वे सचमुच सरल थे . चालक , शातिर और 'मुख में राम बगल में छुरी ' वाले नहीं थे. विचार उनके लिए 'पोलिटिकली करेक्ट' मुदा नहीं था.
समकालीन समाज, राजनीति, इतिहास, साहित्य और संस्कृति पर सचेत दृष्टि रखने वाले प्रगतिवादी समालोचक चंद्रबली सिंह अब हमारे बीच नहीं हैं। पिछले कई वर्षों से  वे मौत से जूझ रहे थे। लंबे समय से अस्वस्थ थे। बिस्तर पर थे। उनमे अद्भुत जिजीविषा शक्ति थी।  वाराणसी के विवेकानंद नगर स्थित अपने आवास में शारीरिक लाचारी के बावजूद साहित्य के व्यापक परिपेक्ष्य  से जुड़ी चर्चाओं में मशगूल रहते थे।
समाज से व्यक्ति का व व्यक्ति से समाज के परायेपन की भावना को कैसे खत्म किया जाये-कार्ल मार्क्स की चिंता को उन्होंने गहरे अर्थों में आत्मसात् किया। मार्क्सवादी दर्शन के प्रति अंत तक उनका विश्वास बना रहा। यहां तक विश्वास कि दुनिया से मार्क्सवाद खत्म हो जाए, तब भी कहंूगा कि मैं मार्क्सवादी हूँ। विचलन और विचार के अंत वाले उत्तर आधुनिक समय में वे संघर्षशील वैचारिकता के साथ अडिग खडे़ थे।  कहते थे तुलसीदास के जाके प्रिय न राम वैदेही  की तरह मेरी वैचारिक दृढ़ता और प्रबल होती जा रही है। 1982 में वे जनवादी लेखक संघ (जलेस) के महासचिव चुने गए। उसके बाद अध्यक्ष पद पर पन्द्रह साल तक अपनी भूमिका का बखूबी निर्वाह करते रहे। जनवादी लेखक  संघ के संस्थापक  महासचिव के रूप में लेखकों  को संगठित और जनता के पक्ष में गोलबंद करने की उनकी भूमिका थी। कलमपत्रिका के संपादक भी रहे। जीवनधर्मी विवेक और जनधर्मी आलोचकीय चेतना के लिए जाने -जाने वाले चंद्रबली जी मनुष्यता के मोर्चे पर भी महान थे। चंद्रबली जी जनपक्षधर आलोचक होने के साथ विश्व कविता के महत्वपूर्ण अनुवादक थे।
रामविलास शर्मा  के निधन के बाद उनकी बरसी पर याद करने के बहाने उनके पूरे अवदान को ही संदेह के घेरे में रखे जाने के आलोचना’- समय में उन्होंने कहा था - आज रामविलास जी पर चारों ओर से हमले हो रहे हैं। एक तरफ से दिखाया जा रहा है कि उनका सारा लेखन मार्क्सवाद विराधी रहा है । उनकी नियत में ही संदेह प्रकट किया गया है। तमाम लोग उन पर लिख रहे हैं और लोग सोच रहे हैं कि चंद्रबली चुप क्यों हैं । मैं जवाब दूंगा। काश! स्वास्थ्य उनका साथ देता।
 बाबरी विध्वंश पर उन्होंने कहा था कि स्वयं मनुष्यता ने ढ़ेर सारी हार-जीत देखी है। वह कहते थे कि वर्तमान के यथार्थ का अगर हमने सामना करना नहीं सीखा, तो हम भविष्य नहीं बना सकते।
वह कहते थे कि हमारा काम यह है कि कवियों में जो जनवादी तत्व देखें उसे हम विकसित करने की कोशिश करें और जो जनविरोधी हैं उनके खिलाफ आवाज उठायें। कुल्हे के ऑपरेशन तथा बीमारी के बावजूद उनकी जिजीविषा अशक्ता में भी बरकरार थी। मित्रवत पुत्र डा. प्रमोद कुमार सिंह बब्बू जी का बिछुड़ जाना  भी रचनात्मक सक्रियता और वैचारिक दृढ़ता से ही सह्य हो पाया। रामविलास जी ने चंद्रबली जी की पत्नी के निधन पर एक पत्र लिखा था कि तुमने निराशा और मृत्यु का मुंह देख लिया है। लेकिन पराजय तुम्हारे लिए नहीं हैं।’ (डा. शर्मा का पत्र)। उनकी सृजन क्षमता  व्यक्तिगत जीवन के तमाम झंझावतों के बावजूद उसी जीवन दृव्य  से सिंचित  थी जिसमें मानव जीवन की बहतरी की चिंता है। इसीलिए वह कहते थे कि लेखक  को जिंदगी की पुनर्रचना करनी चाहिए। उनकी जैसी सरलता-सहजता  अब दुर्लभ होती जा रही है। वे भौतिक रूप से हमारे बीच नहीं है लेकिन वे अपने किये-धरे में हमेशा जीवित रहेंगे। उनका जीवन और साहित्य हमारे लिए प्रकाश स्तंभ है।