गुरुवार, 21 जुलाई 2011

नसीरुद्दीन शाह -- अभिनय की कसौटी

नसीरुद्दीन शाह  (जन्म: २० जुलाई-१९५०) -एक ऐसा अभिनेता जिसकी रग-रग में अभिनय बसता हो। बहुमुखी प्रतिभा के धनी शाह ने अपनी भूमिकाओं से सिनेमा- संसार को कलात्मक विस्तार दिया। सृजन विस्तार । चाहे वे स्टेज एक्टर हों या फिल्मी एक्टर... उन्होंने विभिन्न चरित्रों में अभिनय के नए-नए शेड्स दिए। तीन दशकसे अधिक के अपने क़लातमक़ करियर में हर तरह के किरदार में वे खूब जमे । ‘स्पर्श’ और ‘मासूम’ में उनके परफॉरमेंस को कैसे भुलाया जा सकता है।


बाराबंकी (उत्तर प्रदेश) में जन्मे नसीर ने जहां राष्टरीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) से थिएटर का प्रशिक्षण लिया, वहीं भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) से सिनेमा के गुर सीखे।

मशहूर फिल्मकार श्याम बेनेगल की फिल्म ‘निशान्त’, ‘मंथन’ और ‘भूमिका’ में नसीर ने अपने अभिनय द्वारा सहज ही ध्यान आकृष्ट किया। अपनी कलात्मकता को ऊंचाई दी। १९७० के दशक में समांतर सिनेमा आंदोलन के दौर में उनकी प्रतिभा को बड़ी सम्मानित पहचान मिली। साईं परांजपे के स्पर्श, सईद मिर्जा के अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है, गोविंद निहलानी के ‘आक्रोश’ और केतन महता के ‘मिर्च मसाले’ में नसीरुद्दीन शाह के चरित्र ने हिंदी सिनेमा को अभिनय की उल्लेखनीय छटा दी।

इसके अतिरिक्त व्यवसायिक फिल्मों ‘कर्मा’, ‘जलवा’ और ‘त्रिदेव’ आदि में भी अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया। मुख्य धारा की व्यवसायिक फिल्मों में हास्य से भिगी चारित्रिक और खल भूमिकाओं में भी वे अपने अभिनय को विस्तार और विविधता देते नजर आए। शाह ने हॉलीवुड में भी कुछ फिल्में की हैं। साथ ही मिर्जा गालिब और भारत एक खोज जैसे टीवी धारावाहिकों में भी काम किया है।

उन्हें सर्वश्रेष्टï अभिनय के लिए तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार मिले। १९८० में ‘आक्रोश’ १९८१ में ‘चक्र’ और १९८३ में ‘मासूम’ के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार विजेता बने। गौतम घोष के ‘पार’ में संजीदगीपूर्ण भावाभिनय के लिए उन्हें १९८४ वेनिस फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का वोल्पीकप मिला। इसी फिल्म पर वे १९८४ में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के रूप में राष्टï्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता भी बने।

नसीर का मन आज भी थिएटर में ही रमता है। वे अभिनय की तलाश में आज भी जिज्ञासु बने हुए हैं। नसीर ने कभी भी अपने कलाकार से समझौता नहीं किया। अच्छे चरित्र और बेहतरीन पटकथा की उनकी तलाश जारी है। वही किरदार चुनते हैं, जो उनहें छूते हैं कोई भी ऐसी फिल्म नहीं करते, जिसमें मजा न आए। नसीर का मानना है िक़ जब भी उन्होंने कोई भी फिल्म बेमन से की है, वह लोगों न॓ भी पसंद नहीं क़ी है। सृजन सरोकारों के समय वे हमेशा गतिशील बने रहें। जीवन की गति के साथ। तुम जियो हजारों साल...। जीवेत् शरद: शतम ।



फिल्मोग्राफी—

१९७५ : निशान्त

१९७६ : मंथन, भूमिका

१९७६ : मंथन, भूमिका

१९७७ : गोघूलि

१९७८ : जुनून

१९७९ : सुनयना, स्पर्श

१९८० : आक्रोश, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा

क्यों आता है, अंधेर नगरी, चक्र

१९८१ : सजा-ए-मौत, उमराव जान, आधारशिला

१९८२ : बेजुबान, बाजार, मासूम, स्वामी दादा

१९८३ : अद्र्ध सत्य, मंडी, वो सात दिन

१९८४ : पार्टी, पार

१९८५ : बहु की आवाज, गुलामी, मिर्च मसाला, त्रिकाल, खामोश

१९८६ : कर्मा, जलवा

१९८७ : इजाजत

१९८८ : जुल्म को जला दूंगा, हिरो हिरालाल

१९८९ : त्रिदेव, खोज

१९९० : चोर पे मोर

१९९१ : शिकारी, लिबास

१९९२ : विश्वात्मा, तहलका, चमत्कार

१९९३ : सर, कभी हां-कभी ना

१९९४ : मोहरा, द्रोहकाल

१९९५: नाजायज, टक्कर

१९९६ : चाहत, हिम्मत

१९९७ : लहू के दो रंग

१९९८ : सरफरोश

१९९९ : भोपाल एक्सप्रेस

२००० : गजगामिनी

२००१ : मोक्ष

१९७७ : गोघूलि

१९७८ : जुनून

१९७९ : सुनयना, स्पर्श

१९८० : आक्रोश, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा

क्यों आता है, अंधेर नगरी, चक्र

१९८१ : सजा-ए-मौत, उमराव जान, आधारशिला

१९८२ : बेजुबान, बाजार, मासूम, स्वामी दादा

१९८३ : अद्र्ध सत्य, मंडी, वो सात दिन

१९८४ : पार्टी, पार

१९८५ : बहु की आवाज, गुलामी, मिर्च मसाला, त्रिकाल, खामोश

१९८६ : कर्मा, जलवा

१९८७ : इजाजत

१९८८ : जुल्म को जला दूंगा, हिरो हिरालाल

१९८९ : त्रिदेव, खोज

१९९० : चोर पे मोर

१९९१ : शिकारी, लिबास

१९९२ : विश्वात्मा, तहलका, चमत्कार

१९९३ : सर, कभी हां-कभी ना

१९९४ : मोहरा, द्रोहकाल

१९९५: नाजायज, टक्कर

१९९६ : चाहत, हिम्मत

१९९७ : लहू के दो रंग

१९९८ : सरफरोश

१९९९ : भोपाल एक्सप्रेस

२००० : गजगामिनी

२००१ : मोक्ष



शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

मणि कौल : सिनेमा संसार की अप्रतिम उपलब्धि

25 DECEMBER 1944-6 JULY 2011
सिनेमा एक कला है। जीवन के विविध आयामों को पर्दे पर उकेरना निश्चित ही एक कठिन विधा है। जनमानस की कलात्मक अभिव्यक्ति सिनेमा को नया प्रारूप देती है। रंग देती है । जीवन देती है । कला के बहुरंगी रंगों में रंगकर अभिव्यक्तियां और भी मुखर हो उठती हैं। विविध सुरों-लयों-तालों में नाच-गाकर सिनेमाई छवियां तरंगित हो उठती हैं। पर्दे पर जीवन नये रूप में उभर आता है। कलात्मक फिल्में कला को सम्मान देने का नाम है। व्यवसायिक फिल्मों के समय में चमक-दमक और ग्लैमर से परे कला फिल्मों की सफलता एक चुनौती है। व्यवसायिक फिल्मों के साथ बदलती दर्शकों की पसंद के बीच जगह बनाना एक उपलब्धि है। ऐसी उपलब्धि और जगह महान निर्देशक ही बना पाते हैं। मणि कौल ऐसे ही महान निर्देशकों में थे जन्होंने कला और समानांतर फिल्मों की चुनौतियों को स्वीकारा ही नहीं जिया भी। विविध कला-प्रारूपों को सिनेमा में गूंथकर पर्दे पर ले आये। चित्रकला और मूर्तिकला के रंग भरे और गढ़े। संगीत, नृत्य, वाद्य-यंत्रों के साजो-सामान, सुर लहरियों, तालों-थपकियों को सिनेमा में नई जगह दिलाई। एकबहुआयामी सर्जकके रूप में मणि कौल ने जो कुछ दिया वह सिनेमा संसार की अप्रतिम उपलब्धि है।

भारतीय सिनेमा इतिहास के पुरोधाओं में शुमार ऋत्विक घटक के शिष्य और निर्देशक महेश कौल के भतीजे मणि कौल जटिल, वास्तविक और अद्वितीय सिनेमाई भाषा के विकास के लिए जाने गये। जोधपुर राजस्थान में जन्मे मणी कौल ने जयपुर युनिवर्सिटी तथा फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे से शिक्षा प्राप्त की। छोटी उम्र से ही सिनेमा की ओर रुझान रखने वाले मणि ने अपने करियर की शुरुआत छोटी-मोटी एक्टिंग असाइनमेंट्स और लघु फिल्मों के निर्देशन के साथ की। १९६९ में इन्होंने अपनी पहली फीचर फिल्म ‘उसकी रोटी’ बनाई, जिसे आज नये भारतीय सिनेमा आंदोलन के पथ-प्रदर्शक के तौर पर देखा जाता है। फिल्म की लघु वर्णनीय तथा प्रयोगात्मक शैली इसे भारतीय सिनेमा के स्थापित मूल्य से अलग करती है और इसने गम्भीर आलोचनात्मक समीक्षायें भी बटोरी। इस फिल्म को १९७० के सर्वश्रेष्ठ फिल्मफेयर क्रिटिक्स अवार्ड से सम्मानित किया गया।


कौल प्रयोगधर्मी निर्देशक थे और अपनी फिल्मों में हमेशा नई सम्भावनायें तथा उतकृष्टïतायें तलाशते रहते थे। ‘आषाढ़ का एक दिन’ (१९७१)तथा ‘दुविधा’(१९७३) इसी श्रेणी की फिल्में थी। ‘दुविधा’ ने मणी को १९७३ के सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी दिलाया। शास्त्रीय संगीत के राग ध्रुपद में मणी की गहरी अभिरुचि थी। इन्होंने डागर बंधुओं से इस राग की प्रेरणा भी ली। उनका वृत चित्र ‘ध्रुपद’ (१९८२) इस राग के स्पेसों और प्रकाश के विविध उपयोगों के संगीतमय आयाम को प्रदर्शित करता है। आगे चलकर नये निर्देशकों में भी मणी तथा ‘ध्रुपद’ के प्रति के विविध उपयोगों के संगीतमय आयाम को प्रदर्शित करता है। आगे चलकर नए निर्देशकों में भी मणी तथा ‘धु्रपद’ के प्रति विशेष अनुरक्ति देखी गई।

संगीत तथा कलाकारों के लिए लगाव कौल की फिल्मों में सहज ही नये निर्देशकों में भी मणी तथा ‘ध्रुपद’ के प्रति विशेष अनुशक्ति देखी गयी। लगाव कौल की फिल्मों में सहज ही दिख जाता है। सुप्रसिद्ध ठुमरी गायिका सिद्धेश्वरी देवी पर आघृत उनका फीचर ‘सिद्धेश्वरी’(१९८९) अपने तरह की अलग फिल्म है। फिल्म में सिद्धेश्वरी देवी के जीवन की विविध भाव भंगिमाओं, अवस्थाओं, पड़ावों तथा अलग फिल्म है। फिल्म में सिद्घेश्वरी देवी के जीवन की विविध भाव भंगमाओं, अवस्थाओं, पड़ावों तथा विशेषत: संगीत के माध्यमों द्वारा दर्शाया गया है। फिल्म देखकर ऐसा लगता है कि फिल्म ‘ठुमरी’ की ही संगीतमय लहरों की तरह सिद्धेश्वरी देवी की बानगी है। जिसमें संगीत तथा उनकी जीवनगाथा एकाकार-सी लगती है। इस फिल्म को (१९८९) का राष्ट्रीय कला फिल्म पुरस्कार मिला।

मणि की कला-मिमांसा संगीत तक ही सीमित नहीं रहती वरन् विभिन्न कला प्रारूपों को छूती हुई इनकी फिल्में में समाहित हैं। टेराकोटा मूर्तियों तथा परंपरा पर आघृत ‘मति मानस’ (१९८४) ने अपार प्रशंसा बटोरी। साथ ही मलिक मुहम्मद जायसी की एक कविता से अभिप्रेरित तथा संस्कृत साहित्य से ली गई एक प्रेम कहानी पर बनी फिल्म ‘द क्लाउड डोर’ ने भी विशिष्ट आलोचनात्मक समीक्षायें जुटाई। मणी कौल की आखिरी फीचर फिल्म विनोद कुमार शुक्ला लिखित ‘नौकर की कमीज’ (१९९८) रही। महान निर्देशक और कला प्रेमी मणी कौल की मृत्यु ६६ वर्ष की उम्र में ६ जुलाई, २०११ को हो गई। फीचर तथा डाक्यूमेंट्री दोनों ही तरह की फिल्में बनाने वाले मणि की फिल्मों में कला के विविध प्रारूप हमेशा मौजूद रहे। उनके वृत्तचित्रों तथा फीचरों की विभाजन रेखा भी काफी महीन होती थी। हमेशा उत्कृष्ट एवं कलात्मक फिल्में बनाने वाले कौल भारत में समानांतर फिल्मों के जनकों में शुमार नाम भर ही नहीं थे बल्कि एक महान सर्जक, गुरु, दोस्त और ईंसान भी थे। भारतीय सिनेमा को उनकी कमी हमेशा खलेगी। सचमुच कवि-कथाकार के उदय प्रकाश के शब्दों में- मणि कौल का जाना कला किरीÅ से एक मणि का कम हो जाना है।





गुरुवार, 9 जून 2011

जिंदगी की पुनर्रचना

                       चंद्रबली  सिंह
                            (20 अप्रैल,1924 -23 मई, 2011)



मोहक , निश्छल मुस्कान और सरलता। सहज और अच्छे इंसान। मार्क्सवादी आस्था। दृढ़। जड़ नहीं। माने चंद्रबली सिंह । चंद्रबली जी ने अपनी सहजता, सरलता और सादगी से कभी भी बड़प्पन या ऊँचाई का आभास नहीं होने दिया। वे अपने से छोटे को भी सम्मान देते थे . मित्रवत पेश आते थे. उनका होना सिर्फ बनारस , हिंदी और विचार की दुनिया के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं था , बल्कि मानवीय संवेदना के लिए भी आस्वस्तिदायक था. 
उन्हें गोष्ठियों में सुनना अद्भुत था. ज्ञान -विचार की अनगिनत बातें और बातों की सार्थकता हर किसी को सुख देती थी. उनसे बोलने -बतियाने में हिचक नहीं होती थी . दूरी नहीं लगाती थी.  उनके पास जाने के लिए बहुत सोचना -समझना नहीं पड़ता था . वे सचमुच सरल थे . चालक , शातिर और 'मुख में राम बगल में छुरी ' वाले नहीं थे. विचार उनके लिए 'पोलिटिकली करेक्ट' मुदा नहीं था.
समकालीन समाज, राजनीति, इतिहास, साहित्य और संस्कृति पर सचेत दृष्टि रखने वाले प्रगतिवादी समालोचक चंद्रबली सिंह अब हमारे बीच नहीं हैं। पिछले कई वर्षों से  वे मौत से जूझ रहे थे। लंबे समय से अस्वस्थ थे। बिस्तर पर थे। उनमे अद्भुत जिजीविषा शक्ति थी।  वाराणसी के विवेकानंद नगर स्थित अपने आवास में शारीरिक लाचारी के बावजूद साहित्य के व्यापक परिपेक्ष्य  से जुड़ी चर्चाओं में मशगूल रहते थे।
समाज से व्यक्ति का व व्यक्ति से समाज के परायेपन की भावना को कैसे खत्म किया जाये-कार्ल मार्क्स की चिंता को उन्होंने गहरे अर्थों में आत्मसात् किया। मार्क्सवादी दर्शन के प्रति अंत तक उनका विश्वास बना रहा। यहां तक विश्वास कि दुनिया से मार्क्सवाद खत्म हो जाए, तब भी कहंूगा कि मैं मार्क्सवादी हूँ। विचलन और विचार के अंत वाले उत्तर आधुनिक समय में वे संघर्षशील वैचारिकता के साथ अडिग खडे़ थे।  कहते थे तुलसीदास के जाके प्रिय न राम वैदेही  की तरह मेरी वैचारिक दृढ़ता और प्रबल होती जा रही है। 1982 में वे जनवादी लेखक संघ (जलेस) के महासचिव चुने गए। उसके बाद अध्यक्ष पद पर पन्द्रह साल तक अपनी भूमिका का बखूबी निर्वाह करते रहे। जनवादी लेखक  संघ के संस्थापक  महासचिव के रूप में लेखकों  को संगठित और जनता के पक्ष में गोलबंद करने की उनकी भूमिका थी। कलमपत्रिका के संपादक भी रहे। जीवनधर्मी विवेक और जनधर्मी आलोचकीय चेतना के लिए जाने -जाने वाले चंद्रबली जी मनुष्यता के मोर्चे पर भी महान थे। चंद्रबली जी जनपक्षधर आलोचक होने के साथ विश्व कविता के महत्वपूर्ण अनुवादक थे।
रामविलास शर्मा  के निधन के बाद उनकी बरसी पर याद करने के बहाने उनके पूरे अवदान को ही संदेह के घेरे में रखे जाने के आलोचना’- समय में उन्होंने कहा था - आज रामविलास जी पर चारों ओर से हमले हो रहे हैं। एक तरफ से दिखाया जा रहा है कि उनका सारा लेखन मार्क्सवाद विराधी रहा है । उनकी नियत में ही संदेह प्रकट किया गया है। तमाम लोग उन पर लिख रहे हैं और लोग सोच रहे हैं कि चंद्रबली चुप क्यों हैं । मैं जवाब दूंगा। काश! स्वास्थ्य उनका साथ देता।
 बाबरी विध्वंश पर उन्होंने कहा था कि स्वयं मनुष्यता ने ढ़ेर सारी हार-जीत देखी है। वह कहते थे कि वर्तमान के यथार्थ का अगर हमने सामना करना नहीं सीखा, तो हम भविष्य नहीं बना सकते।
वह कहते थे कि हमारा काम यह है कि कवियों में जो जनवादी तत्व देखें उसे हम विकसित करने की कोशिश करें और जो जनविरोधी हैं उनके खिलाफ आवाज उठायें। कुल्हे के ऑपरेशन तथा बीमारी के बावजूद उनकी जिजीविषा अशक्ता में भी बरकरार थी। मित्रवत पुत्र डा. प्रमोद कुमार सिंह बब्बू जी का बिछुड़ जाना  भी रचनात्मक सक्रियता और वैचारिक दृढ़ता से ही सह्य हो पाया। रामविलास जी ने चंद्रबली जी की पत्नी के निधन पर एक पत्र लिखा था कि तुमने निराशा और मृत्यु का मुंह देख लिया है। लेकिन पराजय तुम्हारे लिए नहीं हैं।’ (डा. शर्मा का पत्र)। उनकी सृजन क्षमता  व्यक्तिगत जीवन के तमाम झंझावतों के बावजूद उसी जीवन दृव्य  से सिंचित  थी जिसमें मानव जीवन की बहतरी की चिंता है। इसीलिए वह कहते थे कि लेखक  को जिंदगी की पुनर्रचना करनी चाहिए। उनकी जैसी सरलता-सहजता  अब दुर्लभ होती जा रही है। वे भौतिक रूप से हमारे बीच नहीं है लेकिन वे अपने किये-धरे में हमेशा जीवित रहेंगे। उनका जीवन और साहित्य हमारे लिए प्रकाश स्तंभ है। 



 

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

समालोचक चंद्रबली सिंह



हिन्दी के प्रगतिवादी समालोचक चंद्रबली सिंह 20 अप्रैल, 2011 को अपने जीवन-संघर्ष के 87 वर्ष पूरे


किये । उनके जैसे सहज-सरल सह्नद्य व्यक्तित्व की उपस्थिति सांस्कृतिक परिदृष्य के लिए भी विशेष महत्व की  है । समकालीन समाज, राजनीति, इतिहास, साहित्य और संस्कृति पर उनकी दृष्टि हमेशा सचेत, सक्रिय और संघर्षशील रही है। हिन्दी के प्रतिभाशाली समालोचक चंद्रबली सिंह मार्क्सवादी समाज-दर्शन की गहरी समझ रखने वाले बौद्विक अध्येता और व्याख्याकार हैं। समाज से व्यक्ति का व व्यक्ति से समाज के परायेपन की भावना को कैसे खत्म किया जाये - यह कार्ल मार्क्स की चिंता थी, इसे चंद्रबली जी ने गहरे अर्थो में आत्मसात किया है । चंद्रबली जी अपनी सहजता और सादगी से कभी भी बड़प्पन या ऊँचाई का अभास नहीं होने देते। 20 अप्रैल , 1924 को गाजीपुर के रानीपुर (ननिहाल) में जन्मे चंद्रबली सिंह की शिक्षा उदय प्रताप इण्टर कालेज तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में संपन्न हुई। सन् 1994 में अंग्रजी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने बलवन्त राजपूत कालिज (आगरा) और उदय प्रताप स्नातकोत्तर महाविद्यालय में चालीस वर्षो तक अध्यापन किया।



जीवनधर्मी विवेक और जनधर्मी आलोचकीय चेतना के लिए जाने-जाने वाले चंद्रबली जी की पहली पुस्तक 1956 में लोक दृष्टि और हिन्दी साहित्य (आलोचनात्मक निबंधों का संकलन ) प्रकाशित हुई। 46 साल बाद दूसरी पुस्तक आलोचना का जनपक्ष (2003) प्रकाशित हुई। नोबेल पुरस्कार विजता चिली के विश्वविख्यात कवि पाब्लो नेरुदा (1904-1974) के जन्मशती वर्ष में उनके द्वारा किया गया अनुवाद पाब्लो नेरुदा कविता संचयन साहित्य अकादमी से 2004 में छपकर आया। इस अनुवाद का व्यापक स्वागत हुआ। सिर्फ हिन्दी में ही नहीं , बल्कि भारतीय भाषाओं के प्रबुद्ध साहित्यिकों ने भी चंद्रबलीजी के इसे गंभीर प्रयास बताया। भारत में चीली के राजदूत जार्ज हेन ने भी हिन्दू में लिखे अपने पाब्लो नेरूदा विषयक लेख में चंद्रबलीजी की अनुवाद का जिक्र किया। चर्चित आलोचक डा. नामवर सिंह ने लिखा है कि ऐसे काव्यात्मक स्तबक के लिए हिन्दी जगत अपने व्रिष्ठ जनवादी समालोचक के प्रति कृतज्ञ रहेगा। पाब्लो नेरुदा के अलावे उन्होंने नाजिम हिकमत, वाल्ट ह्रिटमैन, एमिली डिकिन्सन, ब्रेख्त, मायकोव्सकी, राबर्ट फ्रास्ट जैसे विख्यात विशिष्ट कवियों का भी अनुवाद किया है। चर्चित कथाकार काशीनाथ सिंह कहते हैं आलोचना के समानांतर उनका अनुवाद कार्य अद्भुत है और जिनके अनुवाद किये हैं, वे एक तरह के कवि नहीं हैं। प्रायः मार्क्सवादी समीक्षक आपाठय, दुर्गम खूसट और सठियाये हुए गद्य लिखते हैं, इससे मास्टर साहब (चंद्रबली जी) की समीक्षा दूर है।


अपने शुरुआती लेखकीय जीवन से ही वे कवियों की कृतियों एवं विविध काव्य-धाराओं पर लिखते रहे हैं। चंद्रबली सिंह की आलोचकीय दृष्टि को प्रख्यात समालोचक (स्व.) रामविलास शर्मा बखूबी महत्व देते थे। डॉ शर्मा चाहते थे कि चंद्रबलीजी अपनी प्रतिभा का पर्याप्त लेखकीय- उपयोग करें। उन्होंने अपनी एक पुस्तक भी ...भूतपूर्व आलोचक चन्द्रबलीजी को समर्पित की... । इस आत्मीयता में अप्रतिम मेघा के रहते हुए चन्द्रबली द्वारा कम लिखने के प्रति एक शिकायती प्रोत्साहन छिपा है।
चन्द्रबली जी को भी यह पीड़ा तो है कि आलोचना की उनकी और किताबें होनी चाहिए थी .  ’भारत-भारती के सर्जक राष्ट़कवि मैथिलीशरण गुप्त (1886 - 1964) की रचऩाऒं एवं उनकी काव्य-दृष्टि तथा संवेदना को लेकर प्रगतिशील आलोचक अक्सरहां बेहद अनुदार रहे हैं। उन्हें पुनरुत्थनवादी और अंध हिन्दू राष्ट्रवादी के रूप में भी देखा जाता रहा है। चंद्रबली ही अपनी मौलिक दृष्टि से इसे नकारते हैं - गुप्त ही पुनरुत्थानवादी नहीं हैं - उनकी राष्ट्रीयता गांधी युग की राष्ट्रीयता है, जो धार्मिक पुट के बावजूद सांप्रदायिक वैमनस्य से मुक्त है, जिसमें वैष्णव उदारता है और जो देश के साथ-साथ सारी मानवता को प्यार कर सकती है। इस दृष्टि-संपन्त्रता के कारण ही उनका (चंद्रबली जी) समकालीन आलोचकों में एक अलग स्थान रहा है। रामविलास जी की तरह ही उन्होंने अपनी परंपरा का सावधान मुल्यांकन किया तथा पूरी जिम्मेदारी और दायित्व बोध से साहित्य समग्र में काम किया।
रामविलास शर्मा के निधन के बाद उनकी बरसी पर याद करने के बहाने उनके पूरे अवदान को ही संदेह के घेरे में रखे जाने के ’आलोचना’ समय में उन्हॉऩॆ कहा था - आज रामविलास जी पर चारों ओर से हमले हो रहे हैं। एक तरफ से दिखाया जा रहा है कि उनका सारा लेखन मार्क्सवाद विरोधी रहा है। ये कहने वाले ज्यादातर अपने को मार्क्सवादी कहते हैं। उनके नीयत में ही संदेह प्रकट किया गया। तमाम लोग उन पर लिख रहे हैं और लोग सोच रहे हैं कि चंद्रबली चुप क्यों हैं ? मै जवाब दूंग़ा।  उनका मानना है कि डा. शर्मा की बहुत सी मान्याताओं को मानें या न मानें लकिन व भारत में समाजवादी विचारो के लिए जीवन के अंतिम दिऩॊ तक संघर्ष कर रहे थे, इसके बारे में संदेह व्यक्त नहीं किया जा सकता। नवजागरण के नेताओं मे रामविलास जी का नाम सर्वप्रमुख रहेगा। ऐसा व्यक्ति ’रेनेसां’ काल में हुआ है कि एक ही व्यक्ति विविध क्षेत्रों में अपने व्यक्त्वि को फैलाया हुआ है। वे केवल (सीमित अर्थो में) साहित्यकार नहीं थे। ऐसा भी नहीं कि वह डा. शर्मा की सभी मान्यताओं से सहमत रहे हॉ ।

उन्होंने एक बेहद कड़ा असहमतिपरक-लेख रामविलास शर्मा पर लिखा है क्योंकि विचारो से कोई समझौता करना मैंने कभी नही सीखा। यह सही भी है क्योंकि अब तक का सर्वाधिक कडा सैद्वातिक असहमति वाला लेख चंद्रबली सिंह ने डॉ़ शर्मा पर ही लिखा है जो जनयुग (स़़. नामवर सिंह ) में तीन किस्तों में प्रकाशित हुआ था।

इस विचलन के दौर में वे संघर्षशील वैचारिकता के साथ अडिग खडे हैं। उनका मानना रहा है कि तुलसी दास के जाके प्रिय ना राम बैदेही की तरह मेरी वैचारिक दृढ़ता और प्रबल होती जा रही है। बाबरी विधवंश पर उन्होने कहा था स्वयं मनुष्यता ने सारी हार और जीत देखी है। वे कहते हैं कि वर्तमान के यथार्थ का अगर हमनें सामना करना नहीं सीखा तो हम भविष्य नही बना सकते। प्रगतिशील आलोचना के स्थापत्य मे उनके अवदान का जिक्र करते हुए वरिष्ठ समीक्षक मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने लिखा है कि - एक जमाना था जब रामविलास शर्मा के बाद उन्हीं का नाम लिया जाता था और उस जमाने के लोग आज भी यह बताते हैं कि सृजनात्मक साहित्य के मर्म को पकडने और कलात्मक संवेदना की व्याख्या का जैसा औजार उनके पास रहा है, वैसा उनके समकालीनों में किसी के पास नहीं रहा हैं। प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नकेनवाद, नयी कविता, मुक्तिबोध, नेमिच्रंद्र जैन, गिरिजा कुमार माथुर, अज्ञेय, नागार्जुन,त्रिलोचन आदि पर उनकी आलोचनात्मक टिप्पणियां, निबंध और संदर्भ इसकी पुष्टि करते हैं। उनकी राय है कि हमारा काम यह है कि कवियों में जो प्रगतिशील व जनवादी तत्व देखें उसे हम विकसित करने की कोशिश करें और जो जनविरोधी हैं उसके खिलाफ आवाज उठायें। उम्र के इस पडाव पर भी उनकी चिंताएं, उर्वर हैं। प्रेमचन्द की 125 वीं जयन्ती के निमित्त लमही (वाराणसी) में आयोजित मुख्य कार्यक्रम में उन्होंने संगोष्ठी की अध्यक्षता की थी । 6 नवम्बर, 2005 को गोदान को फिर से पढ़ते हुए..... अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी (वाराणसी में आयोजित) के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता की थी । कुल्हे के आपरेशन के तथा बीमारी के बावजूद उनकी जिजीविषा अभी अशक्तता में भी बरकरार है। मित्रवत पुत्र (स्व.) डा. प्रमोद कुमार सिंह (बब्बू जी) का एकाएक बिछुड़ जाना रचनात्मक सक्रियता से ही सहय हो पाया। रामविलास जी ने डेढ़ दशक पहले एक पत्र में लिखा भी था कि ’.... तुमने निराशा और मृत्यु का मुंह देख लिया है लेकिन पराजय तुम्हारे लिये नही है, धाराशाई होने पर भी नहीं है। .... (चंद्रबली जी की पत्नी के निधन पर डा. शर्मा का पत्र)। उनकी सृजन-क्षमता व्यक्तिगत जीवन के तमाम झंझावतों के बावजूद उसी जीवन द्रव्य से सिंचित है जिसमें मानव जीवन की बेहतरी की चिंता है । इसलिए वे कहते है लेखक को जिंदगी की पुनर्रचना करनी चाहिए। वाराणसी के विवेकानंद नगर स्थित अपने आवास में शारीरिक लाचारी के बावजूद साहित्य के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जुडी चर्चाऒं में मशगूल रहते हैं। साहित्य और विचार की चेतना और संवेदना में कोई कमी नहीं आयी है .  बिस्तर तक सिमटे रहने के बावजूद उनकी जिजीविषा में कमी नहीं आयी .  वॆ अपने समय के जीवित इतिहास हैं। उनके जैसी सरलता-सहजता अब दुर्लभ होती जा रही है । काश ! इस पुनर्रचना से सिक्त उनके अधूरे तथा अप्रकाशित काम पूरे हो जाते तो हिन्दी साहित्य की समृद्वि होती। उनका सहज-आत्मीय व्यक्तित्व और कृतित्व हमारे लिये प्रेरणास्रोत है।

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

प्रेम न बाड़ी उपजै

महारास की अद्भुत बेला है। राधा-कृष्ण के रमने की बेला। प्रेम बन जाने का लक्ष्य। प्रिया-प्रीतम दोनों लुटे हुये हैं। श्री कृष्ण राधा बन गये हैं। राधा श्रीकृष्ण हो गईं हैं। दोनों ही एक-दूसरे की प्रतिकृति हो गये हैं। चहुँ दिशा में बस राधा-कृष्ण हैं। कृष्ण राधा हैं। कृष्ण की बंसी और मोरपंख राधिका के काजल और केशपाश में गुंथी कली से एकाकार हो गये हैं। संपूर्ण सृष्टि एकाकार हो गई है। भारतीय परिवेश में प्रेम यही है। प्रेम राधाभाव है। कृष्णभाव है। महाभाव है। समष्टि चेतना है। लूट जाना है। वंचित हो जाना है। बेखुद हो जाना है। मिट जाना है। और अगर ज्ञानेन्द्रपति की कविता के भावो मंे कहे तो ’दुनिया की नजर में बर्बाद, पर दिल की दौलत से मालामाल’... हेा जाना है।




कबीर, तुलसी, सूरदास, मीराबाई और राधा-कृष्ण, रति-कामदेव, शकंुतला-दुष्यंत भारतीय प्रेम की परम अभिव्यक्ति हैं। पराकाष्ठा हैं। लैला-मजनंू, हीर-रांझा, शीरीं-फरहाद, सोहनी-महींवाल, सस्सी-पुन्नू, सारंगा-सदावृक्ष, नल-दमयन्ती...... जैसी लोकगाथाएँ आज भी प्रासंगिक हैं। प्रेम की गली संकरी गली है। प्रेम की राह नाजुक राह है।



सृष्टि के आरंभ से ही चली आ रही प्रेमभावना हर दिल में व्याप्त होती है। संपूर्ण जगत इस मधुर भाव से आसक्त है। देशों-विदेशों -महादेशों का इतिहास और साहित्य प्रेम-कथाओं से अटा पड़ा है। वैलेन्टाइंस डे ऐसी ही महान प्रेम अभिव्यक्ति को सम्मान देने का दिन है। वैलेंटाइंस डे अनछुए अहसासों, नाजुक पलों को सलाम करने का दिन है। प्रेम के पुरोधा संत वैलेंटाइन को याद करने का, उन्हें नमन करने का दिन है। संकरी गलियों और नाजुक राहों से गुजरता प्रेम आज ग्लोबलाइज्ड हो गया है। वैश्विक गांव में मॉडर्न हो गया है। आज प्यार मोबाइल फोनों में है, रेडियो में है, टेलिविजन में है। पोस्टरों, बैनरों, सिनेमा, इंटरनेट में है। ऑरकुट में है। फेसबुक मे है। बाजार में है। इसकी स्वीकृति और व्यापक हुई है। भारत में वैलेंटाइन डे प्रेम माह बसंत में आता है। हमारे समाजिक परिवेश में यह दिन घुलता जा रहा है। बसंतोत्सव हो गया है। प्यार मस्त हो गया है। बेबाक हो गया है। किसिंग, चैटिंग, डेटिंग हो गया है। वैलेंटाइन्स डे़ हो गया है। प्रेम माह का गुलाबी रंग लाल गुलाब की पंखुड़ियों में समाता है और इजहार-ए-मोहब्बत बन खिल जाता है। मौसम की चुहल टेडी-बियर के नटखटपने में घुल-मिल जाती है। प्रेम पगी फिजाओं की मिठास चॉकलेट-कैंडियों में समा गई है। ऋतुराज की खुमारी और नशा युवा दिलों को मदहोश किये देता है। कहना नहीं होगा कि प्रेम की- प्यार की वास्तविक मर्यादा ही मदहोश हो गई है। परिभाषा ही बदल गई है। उर्दू की तरह खुबसूरत प्यार नये सामयिक संस्करण के दौर से गुजर रहा है एकदम खुला। सबके सामने। कॉमन।लोकल। ग्लोबल। विरोधी लाख नाक-भौं सिकोडे़ं। मगर यह प्रेम की नई बानगी है। नाटक है। खेल है। आज के व्यस्त समय और जीवन के बेरंग और बेमानी हो जाने के बीच का स्पेस ही तो प्रेम नहीं बनता जा रहा ? कहीं प्रेम हमारी प्रगति और आजाद खयाली का पर्याय तो नहीं बन रहा ? क्या प्रेम एक अवसर है, आइडिया है, समारोह है ? नहीं! प्यार सिर्फ प्यार है। अलौकिक अनुभुति है। यह अनुभुति जीवन को जड़ता से उबारती है। प्राणीमात्र को देह की भौतिक सीमाओं से परे- पार ले जाती है। पं0 विद्यानिवास मिश्र के शब्दो में “यही मानुष जन्म की सार्थकता है कि पुरूष नारी के लिये या नारी पुरूष के लिये जब आकर्षण से खिंचकर आकांक्षा करें, यह केवल प्यार का प्रारंभ हो, यह स्नेह की वह पहली बूंद हो जो पानी से भरी थाली में गिरती है तो फैलते- फैलते थाली की बारी तक चली जाती है और थाली को कितना भी धोइए थाली को छोड़ने के लिये तैयार नहीं होती, कुछ न कुछ लगी ही रहती है उल्टे धोने वाले हाथ को स्नेहिल कर देती है“



वैलेंटाइन सप्ताह चल रहा है। प्रेम के नाम एक सप्ताह। एक सप्ताह जमीन से ऊपर चलने का। स्वयं को अनुभव करने का एक सप्ताह। गुलाबांे, चॉकलेटों, टेडी बियरों, लुभावने गिफ्ट्स, आकर्षक ऑफरों का महकता, गुनगुनाता, प्यार लुटाता, मिठास लुटाता सप्ताह। आकर्षण सहज मानवीय स्वभाव है। प्यार चिरस्थायी अनुभव। उत्साह और मौज की अभिव्यक्ति शीघ्रता, तत्परता और उत्तेजनाओं से बची रहे। जीवन की केसरी सुरभि पूर्ण विकसित हो जाए। मन की अभिव्यक्ति पवित्र अभिव्यक्ति बन जाए। मर्यादा का सीमोल्लंघन प्रेम का पतन है। प्रेम प्रतीकों का अपमान है। हुल्लड़बाजी, सस्ती-मस्ती, लंपटता प्रेम नहीं। प्रेम सुबास बिखेरे तो प्रेम है। प्रेम चाहना नहीं। न्योछावर हो जाना है। प्यार महज ऐन्द्रिक व्यापार न बन जाये। उपभोक्ता-संस्कृति की बलि न चढ़ जाये।



बसंत की शुरूआत है ठंढ की मारी, झुलसी, पीत पŸिायां झड़ रही हैं। पŸिायों के विरह से ठूंठ हुये पेड़ की तरह की हम आसक्त न हो जाएं। प्रेम पगी नयी पŸिायां हमारे प्यार को फिर से हरा कर देंगी। प्रेम को महसूसना जरूरी है। प्रेम परितृप्ति बनकर समस्त सृष्टि की प्यास बुझा रहा है। हमारे अंदर ऐसी परितृप्ति ऐसी प्यास उमड़े तो प्रेम है। वैलेंटाइन डे है। हर दिन है। हर पल है। हर क्षण है। प्रेम कलुषित न होने पाये। तभी संत वैलेंटाइन को सच्ची श्रच्दांजली है। यह सबका है, सबके लिए है और उल्लास से भरा है। इसे बदरंग और बाजारू बनने से बचाना है और बचना है।

                                                                       सविता पाण्डेय

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

हमारे ख्वाबों में खनकता घुँघरू :वैजयंती माला


भारतीय सिनेमा में वैजयंती माला नया इतिहास लेकर आती हैं। दक्षिण भारत का नमकीन पानी रग-रग में समाये वैजयंती माला नृत्य में थिरकते हुए पांव बंबई सिनेमा जगत में हौले-हौले रखती हैं और सिने-जगत उनके घुंघरुओं की आवाज से खनक उठता है। धीरे-धीरे यह खनक दर्शकों के बीच पहुंच जाती है। और दर्शक शास्त्रीय-नृत्य के मोहपाश में बंध-से जाते हैं। हमारे सामने और ख्‍वाबों में एक अकेला घुंघरू खनक उठता है। एक जोड़ी आँखों का नृत्यभरा अभिनय और दो थिरकते कदम हमारे अंदर नई ऊर्जा का संचार करने लगते हैं। यह नई ऊर्जा हमारा रोम-रोम कंपा देती है और हम नृत्य संग झूम उठते हैं। सिनेमा को लय-ताल संग पिरोकर चमकती आंखों से देखने लगते हैं। वैजयंतीमाला के नृत्य में सधे हुए पांव नई बानगी लिखते हैं। उनके नृत्य को ध्यान में रखकर स्क्रिप्‍ट लिखे जाने लगे और हम फिल्मों संग झूमने के आदी हो गए। इस तरह वैजयंती माला एक नई परंपरा रच डालती हैं।






कुशल अभिनेत्री और नृत्यांगना वैजयंती माला का जन्म मद्रास, तमिलनाडु में हुआ। दक्षिण से आकर बंबई फिल्म इंडस्ट्री में भाग्य चमकाने वाली पहली अभिनेत्रियों में ये एक हैं। वैजयंती माला ने अपने कॅरियर की शुरुआत निर्देशक एमवी रमन की तमिल फिल्म ‘वझकाई’ से की। हिंदी फिल्मों की शुरुआत 1951 में फिल्म ‘बहार’ से की। नंदलाल जसवंतलाल की फिल्म ‘नागिन’ ने उन्हें शीर्ष पर पहुंचा दिया। ‘मन डोले मेरा तन डोले...’ गाने में उनके सर्प-नृत्य ने जैसे एक इतिहास रच डाला। भरतनाट्यम की अपनी ट्रेनिंग का उपयोग वैजयंतीमाला ने अपनी लगभग सभी मुख्य फिल्मों में किया। जैसे-‘देवदास’, ‘न्यू देल्ही’ और ‘गंगा-जमुना’, जिनमें उनकी नृत्य प्रतिभा को ध्यान में रखकर ही स्क्रिप्‍ट लिखे गये। इस तरह फिल्मों में नृत्य को स्थान दिलाने की परंपरा हेमा मालिनी, जयाप्रदा और श्रीदेवी सरीखी अभिनेत्रियों ने आगे बढ़ाई और डांसर एक्ट्रेस में परिणत हो गईं।



दिलीप कुमार के साथ वैजयंती माला ने अद्भुत सफल ऑन-स्क्रीन जोड़ी बनाई और उनके साथ ‘नया दौर’, ‘गंगा-जमुना’ और ‘मधुमती’ जैसी हिट फिल्मों में दिखीं। इनकी अन्य सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में ‘ज्वेल थीफ’ और ‘संगम’ शामिल हैं। इन्होंने तीन बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार जीता। 1958 में ‘साधना’ के लिये 1961 में ‘गंगा-जमुना’ के लिये और 1964 में ‘संगम’ के लिये। बाद में वैजयंती माला राजनीति से जुड़ीं और 1984 में संसद सदस्य बनीं। 1995 में इन्हें लाइफटाइम अचिवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया गया। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘बॉन्डिंग-अ मेम्योर’ भी लिखी, जिसमें अपने बचपन से अब तक की तस्वीर उकेरी है। अभिनेत्री सह नृत्यांगना की निर्मित उनकी छवि अब नया कलेवर धारण कर चुकी है। यह छवि अब शास्त्रीय नृत्य से डिस्को थेक तक का सफर तय कर चुकी है।



आज अभिनेत्रियों का संगीत के सुरों में ताल मिलाना अवश्यंभावी सा है। वैजयंती माला नृत्य को इसी तरह सिनेमा की जान बना देती हैं। अभिनेत्रियां उनकी परंपरा को जीने लगती हैं। लेकिन, अप्सराओं के घुंघरुओं सी खनक हमारे ख्यालों में खनकती रहे और अभिनय आंखों के सामने नाचता रहे, ऐसा तो वैजयंती माला के नृत्य में सधे हुये पांव ही कर सकते हैं।



इनकी प्रमुख फिल्‍में 1951 में बहार, 1952 में अंजाम, 1953 में लड़की, 1954 में नागिन, 1955 में देवदास, 1956 में ताज, 1957 में नया दौर, 1958 में मधुमती, 1959 में पैगाम, 1961 में गंगा-यमुना, 1962 में रंगोली, 1964 में संगम, 1965 में नया कानून, 1966 में आम्रपाली, 1967 में ज्वेल थीफ, 1968 में साथी, 1969 में प्रिंस और 1970 में गंवार शामिल है.



शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

अभी तो वे जवान हैं .......

एक जनवरी काशीनाथ सिंह के जन्‍मदिन पर : काशीनाथ सिंह का लेखन गांव-जवार की बोली-वाणी से संचालित होता है। उनकी भाषा में जिंदगी और जिन्दादिली से भरे हुए भाव अनिवार्य रूप से मौजूद हैं। ग्लोबल दुनिया में उनकी भाषा ग्लोबल नहीं, गर्वीली है। वहां जीवन हू-ब-हू उसी रूप में मौजूद है जिसमें कि असल जीवन सांस लेता है। हंसी-मजाक, भदेसपन, व्यंग्य-विनोद, टिटकारी, चुहलपन, गाली-गलौज, खिलंदड़पन अंदाज से सराबोर भाषा को अगर असल रूप में न देखा जाए तो लगेगा कि अरे यह तो किशोरचित हरकतें हैं, जिसे बुढ़ापे में भी काशीनाथ अंजाम दे रहे हैं। पर यदि समय-समाज के बदलाव और अपने समय से जूझने और बूझने के उद्यम के रूप में देखेंगे तो लगेगा की अरे यही तो हम सोच रहे थे।





वह समय-संस्कृति को जीवन की आंख से आंकते हैं। उन्हें कबीर की तरह चिंता है कि ‘ठगवा नगरिया को लूट न ले जाए।’ ‘कौन ठगवा नगरिया लूटल हो’- में जो उन्होंने हमारी हंसी-खुशी को छीन लेने वाले, ईश्वर को गुलाम बनाने वाले, बाजार परोसने वालों को जीवन के नजरिये से चिन्हित किया है, वह अपने कथ्य और शिल्प में अद्भुत है। राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों ने इसका नाट्य मंचन भी किया है। जीवन की संस्कृति के रंग को वे बहुत ‘वैचारिकता की राजनीति’ में न जाकर उसी जीवन को उसके असल संदर्भ से देखते हैं। और तब लगने लगता है कि सिद्धांत में नहीं, बल्कि जनजीवन के व्यवहार में वे वैश्वीकरण, बाजार और बाजारूपन के खिलाफ हो-हल्ला बोलते हैं। अब यह भी कहा जाता है कि वैचारिकता उनके लिए बस किताबी मामला रह गया है। उनकी 60वीं वर्षगांठ पर प्रो. बलराज पांडे ने अपने गुरु को इस रूप में देखा था (उस कार्यक्रम में ‘प्रतिपक्ष’ नहीं था)- ‘जीयनपुर (काशीनाथ जी का गांव) की नागफनी के फल से निकला रसवाला लाल रंग अब सिर्फ पुस्तक तक ही सिमट कर रह गया है, व्यवहार जगत से उसका कोई रिश्ता शेष न रहा।’



काशीनाथ के लिए लिखना जीवन से अलग नहीं है (इसका मतलब यह नहीं कि दूसरों के लिए लिखना जीवन से अलग है)। गांव-गंवई और हमारे जीवन की आत्मा का अपहरण करने वाली डॉलर संस्कृति को वे ‘पूतना की गोद’ कहते हैं। ‘काशी का अस्सी’ के ‘संतों, असंतों और घोंघाबसंतों का अस्सी’ में ग्लोबलाइजेशन को जिस अंदाज में उनके पात्र ने समझाया है उसे सिर्फ बतकही या खाली दिमाग शैतान का समझना भारी भूल होगी। ...‘‘ है हमारी हैसियत एक बार भी अमेरिका जाने की? हमारा घर उनका घर है लेकिन उनका घर उन्हीं का घर है, हमारा-तुम्हारा नहीं। ... कल बनारस को चमकाएंगे, परसों दिल्ली को ठीक करेंगे, नरसों पूरे देश को ही गोद ले लेंगे और झुलाएंगे-खेलाएंगे अपनी गोदी में! यह बाद में पता चलेगा कि हम किसकी गोद में हैं- जसोदा मइया की कि पूतना की? ’’



चाहे वे लाई चना खा रहे हों या चूड़ा-मटर या चाय-पान पी-खा रहे हों, उनके लिए सबसे बड़ी बात है सहजता। उनसे बतियाने में ज्यादा ‘लहटम-पहटम’ नहीं करना पड़ता। हालांकि उनके वर्तमान और ‘भूत’ संगी-साथी के अनुभव इसके गवाही नहीं देते। काशी के जितने भी रंग और रूप हों, लेकिन उन्हें पढ़ते-सुनते हुए और थोड़ा बहुत बतियाते हुए यह लगा कि उनकी लेखनी की बतकही में जीवन से जूझना और बूझना अनिवार्य रूप से शामिल है। वहां बदलाव की ‘गदगदाहट’ और विकास की ‘खिलखिलाहट’ को जानने-बूझने की पहल है। उसे आम आदमी की जमीन पर उसकी मेहनत की कसौटी पर समझने की चाह है।



एक और बात जो उनमें खास है वह यह कि काशी के रंग चाहे जितना ‘पोलिटिकली करेक्ट’ हों, लेकिन वह काफी साफ है। वहां झोल-झाल नहीं है। (लेकिन उनके एक जीते-जागते पात्र की मानें तो वहां झोल-झाल के अलावा कुछ नहीं है!) अगर कहीं मुंहदेखी बात कर रहे हों, आशीर्वादी मुद्रा में हों या बचके निकल जाने वाले हों, सतर्की हों- काफी साफ और सचेत रंग हैं उनके! एक चीज जो इन सब के बावजूद खास है वह है उनका घनघोर साहस। उस साहस में कहीं से कटुता या उपद्रव नजर नहीं आता। बहुत शान्त, विनम्र और विचारणीय तथा स्पष्ट नजरिये के साथ वे बात रखते हैं।



याद है स्व. विद्यानिवास मिश्र की जयंती (14 जनवरी) पर उनके भाषण की। बहुत खुलकर पंडित जी से नामवर जी के दोस्ताना और परिवार की निकटता और पंडित जी के ‘जातिवाद’ (पंडित जी पर जातिवादी आरोप निराधार हैं ) को उन्होंने रखा और कहा कि पंडित जी का जो विचलन रहा उस पर बहस होनी चाहिए। उनके वैचारिक-रचनात्मक विकास क्रम को देखा जाना चाहिए। पंडित जी के आकाश को और ज्यादा खुला बहसतलब और गर्म रखनी चाहिए। काशी नाथ जी ‘परिस्पंद’ (विनिमि का निवास) में जब ये बोल रहे थे तो कहीं से उदण्‍ड और उपद्रवी या चोट पहुंचाने वाले नहीं दिखे, क्योंकि उनका सत्साहस सचमुच धरती पर था। पंडित जी के अवदानों को लेकर गंभीर था। यह अलग बात है कि कहने वाले यह भी चुपके से बोल पड़े कि क्या विद्यानिवास जी की उपस्थिति में भी काशीनाथ उतने ही सत्साहसी दिखते!



खैर कहने-समझने वाले तो जो कहना है कहेंगे ही। लेकिन काशीनाथ के लिए अस्सी, बनारस, जनजीवन और जनसंस्कृति, गंगा का मतलब है जिंदगी की गलियों में खुली आंखों और नंगे तलवे चलना। ‘...अरे भारतेन्दु, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, द्विवेदी ऐसा कौन है जिसे तंग मिजाज, संकीर्ण, दकियानूस, चक्करदार पथरीली गलियों ने भटकाने और भरमाने की कोशिश न की हो।’ और गंगा का उनके लिए मतलब है- अप्रतिहत गति, सतत प्रवाह, कलकल उच्छल जीवन, खुला आकाश, हवा, आवेग, प्रकाश, अछोर, अनंत विस्तार...। और अस्सी? तो भाई ‘जिसने अस्सी घाट का पानी पी लिया, उसके लिए दुनिया जहान का पानी खरा है।’ औघड़-संस्कृति की जायज-नाजायज औलादों की राष्‍ट्र भाषा से चुहेड़ों और चुडुक्कों का अड्ड़ा गुलजार रहता है। (साभार-सविनय काशीनाथ जी)



काशीनाथ जैसे चुहल, चिकोटी काटने वाले कुशल किस्सागो में बनारस की गलियां, मोहल्ले और मस्ती से भरी जीवन संस्कृति रची-बसी हई है। उनका गद्य भारतेन्दु की तरह ‘हँसमुख गद्य’ है। उनके गुरु विजय शंकर मल्ल ने भारतेन्दु के गद्य को हँसमुख कहा है। अपने गुरुओं के संस्मरण में भी काशीनाथ चुहल और चिकोटी काटने में परहेज नहीं करते, चाहे ‘वेज’ हो या ‘नॉनवेज।’ ‘‘गुरुदेव कौ अंग उर्फ बुढ़वा मंगल’’ को देख लिजिए- ‘‘मल्ल जी के बदन पर एक लम्बा भूरा कोट रहता था। यही भूरा कोट पहनकर सन् 48 में हिन्दी विभाग आए और यही पहने-पहने 81 में रिटायर हो गये।’’ चाहे डॉ. बच्चन सिंह हो या मल्ल जी या अन्य गुरु काशीनाथ ने सबसे रचना की जमीन पर बकझक एवं चुहल की है। और अपने संस्मरणों में वे गुरुओं को उसी अंदाज में बांचते हैं जैसे कॉलेज-हॉस्टल के लडक़े-लड़कियों की गॉसिप में गुरुगण चर्चा में रहते हैं।



इस मामले में वे अलग हैं कि कलम की जमीन पर वे ‘मैनेज’ नहीं होते। (चोप्प.. कौन कहता है!) ‘‘यह जरूर है कि तुम्हारे पास रायफल है लेकिन- मैं मुसकुराता हूं और अपनी जेब से एक कोरा पन्ना निकालता हूं- ‘मेरा मोर्चा यह है। यह कागज जिस पर मैं तुम-जैसों को तो क्या, अपने और अपनों को भी माफ करना नहीं जानता!’’ (अपना मोर्चा)। लेकिन अस्सी के धुरी के नागरिकों का यह भी आरोप है कि बहुचर्चित कृति ‘काशी का अस्सी’ को ही लें तो उन्होंने अस्सी को केन्द्र में रखकर बनारस और दुनिया के रंग को दिखाया है वह सिर्फ एक पक्ष है। अनेक ऐसे रंग हैं जिसे जान-बूझकर छोड़ या छेड़ दिया गया है। ‘हंस’, ‘कथादेश’, ‘तद्भव’ आदि पत्र-पत्रिकाओं में कथा रिपोर्ताज, संस्मरण, कहानी के रूप में अलग-अलग छपने वाली सामग्री को ‘आलोचकीय दबंगई’ (नामवरी) के कारण साहित्य अकादमी पुरस्कार आदि के लिए जान-बूझकर उपन्यास घोषित कर दिया गया। अब एक संत (पढ़े असंत) की मानें तो काशीनाथ की जगह अगर दूसरा ऐसा करता (जो कि करता ही नहीं) तो कब के साहित्य के घर से बहरिया दिया गया होता!



उनके जन्मदिन 01 जनवरी पर जो हो-हपड़, उत्सव बनारस के अस्सी के चाय दुकान में (धुरी बदलती रही है... कभी पप्पू के यहां तो कभी पोई के यहां..) होता है, चाय-पान, चूड़ा-मटर और ‘प्रसाद’ (दुनिया वाले नासमझी के कारण शायद इसे भांग कहते हैं) के साथ न जाने कहां-कहां से आकर लेखक और साहित्य प्रेमी काशीनाथ के सजीव पात्रों के साथ जन्मदिन मनाते हैं। अब यह कोई मायने नहीं रखता कि वे हैं या नहीं। बनारस से कभी-कभार उसी टैम उनके चल बसने के बाद भी लोग धूम-धाम से काशीनाथ की रचनात्मकता, विषय-संदर्भ और समझदारी-नासमझी की पड़ताल करते हैं। बहस, नोंक-झोंक, के ‘समीकणों’ चुहल, उलाहना, प्रशंसा और ‘मलाई-बरफ’ सब कुछ चलता है।



उनके घनघोर आलोचक, प्रशंसक, वंदक.. साहित्य प्रेमी, पात्र-कुपात्र, संत-असंत, घोंघावसंत सभी अपने लेखक के जन्म दिन को आशीर्वाद-शाप दे-दाकर सेलिब्रेट करते हैं। ‘वकील’ लेकर भी आते हैं, वकील माने ‘भंगाचार्य’ प्रो. चौथीराम यादव। उनकी उपस्थिति में भी किसी चीज की परवाह नहीं करते उनके पात्र। अब जैसे वकील (काशी के मुखर पात्र) विरेन्द्र श्रीवास्तव को ही लें- ‘‘हमहन के बातचीत-बतकही अउर गाली-गोन्हर को लिख-लाखकर काशीनाथ प्रसिद्घि का मजा मार रहे हैं और ‘रायल्टी’ बटोर रहे हैं। गुरु हमलोगों को क्या मिला?’’ ऐसे हैं काशी और काशी के पात्र। जीवन ग्लोबलाइजेशन के समीकरणों से नहीं चलता, सरोकारों की जमीन पर चलता है। जी!