शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009
दीपावली
किसकी माँ हैं लक्ष्मी
यह उस नही ,उससे पहले वाली दीपावली की बात है (२००७) जब अर्थशास्त्रीय दृष्टि से लक्ष्मी मैया हमारे देश पर पुरी तरह से मेहरबान थीं । कृपा का आलम यह था कि शेयर बाज़ार और न जाने क्या क्या नित नै उंचायीयोँ को छू रहा था । भारतीय अर्थव्यवस्था कि विकास डर नौ फीसदी के पार चल रहा था। विदेशी मुद्रा भंडार २४७ अरब डॉलर जमा हो गया था। इन आर्थिक अकनोँ के बरक्स बीती साल की दीवाली ने सबको रुवांसा कर दिया । पता नही जानकर बताते हैं कि अमेरिका में कोई आर्थिक सुनामी लहर आयी और उसमे पुरा विश्व समा गया। कोई बाज़ार होता है जिसे शेयर कहते हैं, वह धणाम हो गया । बैंकिंग जैसी कोई व्यवस्था होती है , जो शक और शोक के दायरे में आ गई । तब से अब तक लक्ष्मीजी और चंचल हो गई हैं। हलाकि बताने वाले ये३ह अस्वस्ति देते हैं कि हमारी परमपरा में शुरू से ही बचत की आदत रही है , सो हमारे यहाँ उस तरह से लक्ष्मी कभी तंग नही हुई , जैसा की बताया जा रहा है।
और अगर लक्ष्मी नाराज चल रही हैं तो यह कोई नै बात नही है। वे शुरू से ही एक बड़ी आबादी से नाराज ही रही है। अरसे से हम लक्ष्मी और सरस्वती के भक्त रहे हैं --लेकिन हामी दरिद्र और निरक्षर बने हुए हैं। मानव विकास सूचकांक में हम बंगला देश भी पीछे हैं। ऐसा क्यों है? माँ लक्ष्मी की उदारता और कृपा दृष्टि चंद लोगों पार ही क्यों रहती है। 'असंख्यक इत्यादि जनों ' की दरिद्रता दूर करने में वे कोई रूचि क्यों नही लेती। फोर्ब्स patrika ke उजाले पनों पार धनिकों की सूचि में भारतीयों की बढ़त से अघाने बस के लिए हैं असंख्यक लोग। क्या इस समृधि और उसी अनुपात में बढाती गरीबी के बिच कोई नाता है क्या? अरब पतियों और ख्राब्पतियोँ की बढाती लिस्ट से हमारे जन-जीवन पार क्या कुछ फर्क पड़ता है न! आर्थिक उदारीकरण और भुमंदालिकरण के स्वप्नील संसार में बुध -गाँधी-आंबेडकर -लोहिया के दरिद्र नारायण कहा हैं ? आनंद प्रधान जैसे जानकर बताते हैं की आज एक आम भारतीय और सबसे धनिक आदमी की आय के बीच ९० लाख गुना का अन्तर आ चुका है। यह अन्तर उसी देश में है जिस देश में कभी बापू ने परतंत्र भारत को आजाद कराने के दौर में वायसराय की सैलरी पार सवाल उथया था की एक आम भारतीय नागरिक की तुलना में उनकी आमदनी पाँच हजार गुना अधिक कैसे हो सकती है?
ऐसे वर्गों को चिह्न जा सकता है जो अमूर्त किस्म के उदम (जो कही दिखता ही नही.....) के बल पार बहुत कम समय में लक्षमी के बढ़िया वाले कृपा पात्र बने। काले धन , पाप की कमाई सामाजिक प्रतिष्ठा और जनस्वीकृति हासिल कर रहे हैं। माँ लक्षी को चंद लोगों ने कब्जा लिया है। भ्रस्ताचारियोँ , शोषकों को नय्कत्वा प्रदान किया जा रह है। मीडिया और mahanth सभी ghul मिल गए हैं। काले धन कोई muda नही है।
दीपावली के prakash पर्व को prakhyat chintak vidyaniwas जी 'sarvamangal की akanksha का पर्व' कहते थे वह कुछ khas के mangal का क्यों होता जा रह है। ये रोशनी , ये patakhe , ये jagmagate shopin malls , ये samanti gift , ये ujalepan , धन pradarsan ...जन sewakoan
की shararati muskan और दीपावली की shubhkamnyein ...mei वे कहा हैं jinke mehanati hathoan ये sundetr dunia rachi- basi है । माँ लक्ष्मी से हर bar की भांति इस bar भी nihora है की asankhyak इत्यादि joan की दरिद्रता khtma करने की pratharna को ansuni करने के bajay apane agende में rakhane की की कृपा karein , इस bar नही तो agali bar जितना जल्दी हो सके उनकी जीवन की दीपावली prakash से dipt हो , jinhone apani श्रम -sanskriti के बल par यह sunder dunia banayi है। दिए की bati की लौ सभी तक पहुँच सके , इसमे सभी की samarthya bhar कोशिश jarur होनी चाहिए तभी deewapali happy होने की sarthakta sidh होगी।
बुधवार, 2 सितंबर 2009
गुरुवार, 20 अगस्त 2009
जसवंत के जीना
जसवंत वाले मसले पर अडवानी की क्या राय रही यह पता नही चल पाया। क्योकि वे जब से उदार और प्रोग्रेसिव हुए हैं तब से बीजेपी उनके हाथ से निकल चुकी है और संघ की बदौलत राजनाथ जैसे जूनियर उनके बराबरी में चल रहे हैं।
जसवंत जी को बहुत बहुत बधाई किताब के लिए नही (क्योकि मैंने पढ़ी नही ) इसलिए की बहुत कम लेखक इतने भाग्यशाली होते हैं की उसके लिखे को बैन कर दिया जाय। आज फिल्मकार क्या क्या जतन naही करते अपने फिल्मों को विवाद में घसीटे जाने के लिए।
भइया ! बीजेपी और संघ को तसलीमा और सलमान रुसदी के मसले पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की याद aane lagati hai . dohra charitra ,vichardhra ,suvidhabhgi -suvidhajivi stand sabhi daloan or netaoan ki niyati ban chuki hai. Loktanra amar rahe!
शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009
शुक्रवार, 7 नवंबर 2008
ओबामा की जीत के मायने
ओबामा को लेकर पुरी dunia में खासकर अफ्रीकी --एशियाई समाज -देश के लोगों me शुरू से ही विशेष रूचि रही or एक तरह से shubhkamnayein भी की वे ही चुने जायें । ओबामा का ब्लैक होना or व्हाइट का प्रथम नागरिक बनाना ameriki लोकतंत्र or जनता की भी जीत है। मीडिया के सभी माध्यमों me ओबामा ने जबरदस्त coverage पाया। मीडिया ने ओबामा के स्टारडम उनके प्रति जनता के सभी वर्गों me आकर्षण को विशेष रेखांकित किया।
क्या व्हाइट हाउस में ब्लैक ओबामा जब दाखिल होंगे तो अमेरिका बदल जाएगा । क्या उसकी 'दरोगा' संस्कृति (वर्चस्व) me एकाएक बदलाव ओ जाएगा ! अगर पुरी dunia इस रूप में ओबामा का स्वागत करेंगी तो शायद उसे निराशा ही मिलेगी । ओबामा की जीत में उनके स्टारडम से कही ज्यादा बुश की नीतिया , उनके शासन काल का योगदान है। मतलब की सत्ताविरोधी लहर । जिस तरह बुश अपनी युद्ध -नीतियों से जन -धन की हानि कर बैठे वह दिनोदिन उनकी अलोकप्रियता बढ़ा रही थी। एक ameriki कालमनिस्ट ने लिखा है की ' dunia ओबामा की जीत इसलिए चाहती है की वे ब्लैक हैं , पर ameriki उनकी jeet isliye chahte hain ki we republican नही'। इसका मतलब तो यही हुआ की ओबामा की जीत के उत्सव में बुश महाशय (रिपब्लिकन) की कई मोर्चें पर असफलता - अलोकप्रियता का भी योगदान है। ओबामा की वक्तृता और उनकी स्टारडम ने वहा के सभी वर्गों - वर्णों के लोगो को बेहद प्रभावित किया। अमरीकी युवा वर्ग में वे विशेष लोकप्रिय हैं । हिलेरी क्लिंटन से पार्टी लेबल पर जब वे दौड़ में आगे निकले तभी से उनका जलवा रहा । यदि वोट प्रतिशत के लिहाज़ से देखा जाए तो ओबामा के 'अश्वेत ' कितने हैं! इसलिए कोरी भावुकता से ओबामा के जीत को नही देखा जाना चाहिए। ओबामा ने जीत के बाद कहा की उनकी जीत उन लोगों के संदेहों का जवाब है जिनके मन में अमेरिकी जनता की समझ और सोच को लेकर हमेशा संदेह रहा है।
बुश महोदय ने अपनी शुभकामना में कहा की '' आप अमरीका को बुलंदी पर ले जाने के लिए निकल चुके हैं। ''
ओबामा को अभी अपनी पारी की शुरुआत करनी है । इसलिए एशियाई , अफ्रीकी और बाकी दुनिया का यह उम्मीद करना की ओबामा के सत्तासीन होते ही अमेरिका पुरी तरह 'उदार' हो जाएगा, भावुकता और भ्रम ही है ! अमेरिका की स्थापित परम्परावादी वर्चस्व की संस्कृति कम होने की रणनीति थोडी ही बदलनी है।
इसलिए ओबामा की जीत के मूल्यांकन में सावधानी बरतने की जरूरत है। मार्टिन लूथर किंग और लिंकन , कैनेडी के सपने के आलोक में ही यह मूल्यांकन होना चाहिए। अगर आप बहुत ब्लैक --ब्लैक करके ओबामा-ओबामा करेंगे तो यह भी एक तरह का 'नस्लवाद' ही होगा।
बुधवार, 24 सितंबर 2008
प्रभा खेतान की अनुपस्थिति का अर्थ
प्रभा खेतान नहीं रही , इस पर सहसा विश्वाश नहीं होता। वे हमारी ऎसी ही जरुरत बन गयी थीं। उनका अचानक यूँ चले जाना बेहद तकलीफदेह है । स्त्री विमर्श को अपनी मेधा और वैचारिक ऊष्मा से समृद्ध करने वाली प्रभा सही मायने में हिन्दी की साइमन दा बौया थीं । उनका लिखना जीवन से अलग नहीं था।
यह कहना नाकाफी है कि हम शोक संतप्त हैं । स्त्री लेखन ही नहीं समूची हिन्दी की जन संपृक्त धारा की क्षति है उनकी अनुपस्थिति ।
फिर डिटेल में कभी और ......