सोमवार, 29 नवंबर 2010
पृथ्वीराज कपूर ---उनकी कला को कभी भूला नहीं पाते....
कहते हैं कि मुम्बई की धरती पर कदम रखते ही पृथ्वीराज कपूर ने आसमान में हाथ उठाकर कहा- ‘‘हे ईश्वर, अगर तुमने मुझे यहां अभिनेता नहीं बनाया तो मैं तैर कर साथ समुंदर पार करूंगा और हॉलीवुड चला जाऊंगा। मेरे लिए कला एक तड़प है, स्पंदन है, जीवन है। मैं चाहता हूं कि कला जनजीवन का दर्पण बने, जिसमें लोग खुद को देख सकें, संवार सकें, सुंदर बन सकें, उन्नति कर सकें। सच्ची कला वह है जो जीवन को सही मायने में चित्रित करे।’’
शावर (अब पाकिस्तान में) जन्में, पृथ्वीराज कपूर ने अपने अभिनय करियर की शुरुआत थियेटर में काम करते हुये लीलापुर और पेशावर से की। 1920 के दशक में वे बंबई में ‘इम्पीरियल फिल्म कंपनी’ से जुड़े और फिल्म ‘सिनेमा गर्ल’ से धमाकेदार शुरुआत की। भारत की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ में महान अभिनय का प्रदर्शन कर अपनी अद्वितीय छा जाने वाली आवाज के लिये जाने गये। 1930 के पूरे दशक में कलकत्ता स्थित ‘न्यू थियेटर्स’ द्वारा प्रदर्शित फिल्मों में मुख्य भूमिकाएं निभाई। देबकी बोस द्वारा निर्देशित फिल्म ‘राजरानी मीरा’ पृथ्वीराज कपूर का बेमिसाल प्रदर्शन रही। इस फिल्म की सफलता के साथ ही एक अन्य सफल फिल्म ‘सीता’ की, जिसमें इन्होंने राम की भूमिका निभाई। न्यू थियेटर्स में इनकी अन्य बहुचर्चित फिल्म ‘विद्यापति’ थी, जिसमें देबकी बोस ने मिथिला के राजकवि की जीवनी को स्वरूप दिया।
1930 के दशक के अंत में पृथ्वीराज कपूर वापस बंबई आ गये। बंबई वापसी के बाद इन्होंने चंदूलाल शाह की रंजीत स्टूडियोज से प्रसारित दो सफल फिल्में ‘पागल’ और ‘अधूरी कहानी’ की। बाद के वर्षों में किसी भी स्टूडियो से न जुडक़र पृथ्वीराज कपूर ने स्वतंत्र अभिनेता की तरह काम करना प्रारंभ किया और सोहराब मोदी की ‘सिकंदर’ में एलेक्जेंडर द ग्रेट की भूमिका अदा की। मनोहर कद-काठी और असाधारण अभिनय प्रतिभा के बल पर ‘आवारा’ और ‘मुगले-आजम’ जैसी फिल्मों में राजसी ठाठ-बाट और पोशाक में खूब सजे साथ ही रजवाड़ों की शान का बेमिसाल अभिनय किया।
सिनेमा से जुड़ाव के साथ ही पृथ्वीराज कपूर का थियेटर की ओर भी समान रूप से लगाव रहा। फिल्मों से होने वाली अपनी आमदनी का उपयोग उन्होंने पृथ्वी थियेटर (1944) बंबई के निर्माण और विकास में किया। हिंदी स्टेज प्रोडक्शन्स को बढ़ावा देने में पृथ्वी थियेटर का योगदान रहा। अगले दशक तक पृथ्वी के नाटकों ने कई प्रतिभाओं को पहला मौका दिया जिनमें शामिल हैं- रामानंद सागर, शंकर-जयकिशन और राम गांगुली। उन्होंने अपने बेटों-राज, शम्मी और शशी को भी लॉन्च किया।
अद्भुत प्रतिभा के धनी पृथ्वीराज कपूर को 1969 में पद्म भूषण और 1972 में दादासाहब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया गया। साथ ही वे पहली फिल्म पर्सनालिटी रहे जो कि राज्य-सभा के लिये नामित हुये। पृथ्वीराज कपूर जीवनपर्यंत अपना काम करते रहे। तब तक जब तक कि 1972 में उनकी मृत्यु कैंसर से नहीं हो गई। कुछ लोग ऐसे ही होते हैं। चुपके-चुपके हमारे दिलों पर राज करने लगते हैं। अभिनय करते-करते गुजर जाते हैं। हम उन्हें और उनकी कला को कभी भूला नहीं पाते। उन्हें बार-बार याद करते हैं। नमन करते हैं।
बद्रीनाथ शर्मा---सच्चे कलाकार ऐसे ही होते हैं।
बद्रीनाथ शर्मा ऐसे ही साउंड रिकॉर्डिस्ट थे। जिन्होंने जाने-माने फिल्म निर्माताओं के साथ काम किया। बी. एन. शर्मा का मूल जन्म स्थान भारत-पाकिस्तान सीमा पर स्थित अटारी था। वहाँ से वे दिल्ली आये, उनके पिता एक डॉक्टर थे। उनके पिता चाहते थे कि बद्रीनाथ शर्मा आगे पढ़ाई करें और कोई सम्मानजनक काम करें। लेकिन ऐक्ट्रेस लीला चिटनिस के सम्मोहन में बिंधे जवां बद्रीनाथ को कुछ और ही मंजूर था। वे फिल्मों में अपना भाग्य आजमाने बंबई चले गये। बंबई में बद्रीनाथ शर्मा को पहला काम रिकॉर्डिंग के सामानों को साफ करने का मिला। इस काम से इंजीनियरिंग का एक कोर्स किया और कोर्स की समाप्ति तक एक रिकॉर्डिस्ट के साथ सहायक का काम भी करने लगे। 1940 के मध्य तक बद्रीनाथ शर्मा एक स्वतंत्र साउंड रिकॉर्डिस्ट की तरह काम करने लगे।
अपने करियर में आगे बढ़ते हुये बी.एन.शर्मा ने साउंड मिक्सिंग और रिकॉर्डिंग की दुनिया में एक अलग पहचान बना ली। सुंदर साउंड ट्यूनिंग की उनकी क्षमता के कारण ही उन्होंने के. आसिफ, बिमल रॉय, ऋषिकेश मुखर्जी, गुलजार और ओ.पी. रलहान जैसे दिग्गज फिल्म-निर्माताओं के साथ काम किया। उन्होंने दादा कोंडके और सी. रामचंद्र जैसे निर्माताओं की क्षेत्रीय फिल्मों में भी काम किया। बी.एन. शर्मा की कला में पगी फिल्में अविस्मरणीय हैं। ‘मुगले-आजम’, ‘मधुमति’, ‘सुजाता’ और ‘बंदिनी’ जैसी फिल्मों की आवाजें आज भी हमारे दिलों पर राज करती हैं। इन फिल्मों से बी.एन. शर्मा की बहुआयामी प्रतिभा को भी आंका जा सकता है। हाँ, राजसी शानो-शौकत की धमक और साधारण भारतीय परिवेश की शांत आवाज सब इनकी कला में समाहित है।
बद्रीनाथ शर्मा साउंड रिकॉर्डिंग का काम 1991 में अपनी मृत्यु तक करते रहे। सच्चे कलाकार ऐसे ही होते हैं। ऐसे ही उनकी कला और उनका जीवन गुत्थम-गुत्था हो चलते रहते हैं। तभी तो सुन सकते हैं हम बद्रीनाथ शर्मा के दिलो-दिमाग, उनके जीवन, उनकी कल्पना और प्रकृति की आवाजें उनकी फिल्मों में। हर वह आवाज जो उन्होंने सुनी होगी उसे जादू के रेशमी धागों में पिरोकर अपनी फिल्मों में टाँक दिया और हम हो गये उनकी फिल्मों के कायल। उनके कायल। बार-बार उनकी कला में डूबी फिल्में देखने को मजबूर!! उनके गानें गाने को बेबस। भला देशभक्ति के रस में पगा उनका गाना ‘ऐ मेरे वतन के लोगों...’ किसने नहीं सुना होगा, साथ-साथ नहीं गाया होगा? रोया नहीं होगा?
बाबूभाई मिस्त्री -----स्पेशल इफेक्ट एक्सपर्ट निर्देशक
भारतीय सिनेमा में स्पेशल इफेक्टस के प्रभाव की शुरुआत बाबूभाई मिस्त्री के ‘काले धागे’ के विभिन्न प्रयोगों के साथ होती है। बाबूभाई काले और अंधेरे दृश्यपटल के साथ काले धागों के अनोखे ट्रिक भरे प्रयोगों से गायब हो जाने, रूपांतरित होने, डबल एक्सपोजर जैसे कई इफेक्टस पैदा करते थे। कैमरे के साथ उनके प्रयोग कला की एक नई परिभाषा रच देते। अब सब कुछ संभव था। जहरीले साँपों के सिर पर मानव शीश का दिखना और आसमान से फरिश्तों का धरती को निहारना .. सबकुछ, बाबूभाई ने एनटी रामाराव को निर्देशित करने के साथ-साथ कल्याण जी को ‘सम्राट चंद्रगुप्त’ में ब्रेक दिया। उसके बाद कल्याण-आनंद जी की जोड़ी ने मदारी में उनके साथ काम किया लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने भी ‘पारसमणि’ में उनके साथ काम करना शुरू किया। बाबू भाई के सिनेमाई करियर की शुरुआत बतौर सिनेमेटोग्राफर होमी वाडिया के साथ हुई। ट्रिक फोटो ग्राफी के लिए वे प्रसिद्ध रहे। उनकी कला-कौशल मील का पत्थर है।
बाबूभाई मिस्त्री भारतीय सिनेमा के पहले और अग्रणी स्पेशल इफेक्ट एक्सपर्ट निर्देशक और कैमरामैन थे। १९३३ तक जबकि बाबूभाई की उम्र मात्र १७ वर्ष ही थी, इन्होंने स्पेशल इफैक्ट वाली कई फिल्मों में योगदान दिया। सूरत में जन्मे मिस्त्री गांव के स्टेज शो के लिये अपनी कला और क्षमता का प्रयोग किया करते थे। उनका फिल्मी कॅरियर कृष्णा फिल्म कंपनी से आरंभ हुआ, जिसके बाद एक पोस्टर पेंटर की तरह प्रकाश स्टूडियो से जुड़े। कैमरे के साथ उनके प्रयोग से प्रभावित निर्देशक विजय भट्ट ने बाबूभाई को हॉलीवुड की ‘द इन्विजिबल मैन’ से प्रभावित फैंटेसी फिल्म ‘ख्वाब की दुनिया’ में ट्रिक फोटोग्राफर के रूप में नियुक्त किया।
अगले सात दशकों तक कैमरे की उनकी कलात्मकता और जादू को ‘जंगल प्रिंसेज’, 'अलाद्दीन', ‘माया बाजार’ और ‘महाभारत’ जैसी अनेक फिल्मों में देखा जा सकता है। बाबूभाई मिस्त्री की पहली निर्देशित फिल्म वाडिया मूवीटोन्स की ‘मुकाबला’ थी। अभिनेत्री नादिया अभिनीत फिल्म ‘हन्टरवाली’ डबल रोल वाली पुरानी विशिष्ट फिल्मों में एक है। मिस्त्री को उनकी पौराणिक फैंटेसी वाली और स्टंट फिल्मों के लिये खासतौर से याद किया जाता है। इनमें रेसलर एक्टर दारा सिंह की फिल्म ‘किंग-कॉन्ग’ शामिल है।
उनकी प्रसिद्घ आलोचनात्मक फिल्मों में १९६३ की हिट फिल्म ‘पारसमणि’ थी जिसे प्यार, बदले और शान-ओ-शौकत की परीकथा मानी जाती है। मिस्त्री के कामों ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाई। उनके प्रशंसकों में प्रसिद्घ रूसी निर्देशक वेस्वोलोद पुदोव्किन भी शामिल है। सिनेमा में उनके योगदान और नाम की चर्चा फॉक्स स्टूडियोज के रिकार्डो में भी है। वे एक लम्बे समय तक अपना काम करते रहे। बाद के वर्षों में छोटे पर्दे के लिये भी अपना योगदान दिया। बाबूभाई भारतीय फिल्म इण्डस्ट्री में स्पेशल इफेक्ट्स और निर्देशन के पुरोधाओं में ही शुमार नहीं हैं बल्कि कम्प्यूटर और ग्राफिक्स के युग में भी पिछड़ते नजर नहीं आये। अपने काम के साथ तन्मयता और कला के प्रति समर्पण ऐसा ही होता है। हमें कभी पिछडऩे नहीं देता। तभी तो याद करते हैं हम बाबूभाई मिस्त्री को किसी सम्मोहन और जादू से घिरे स्पेशल इफेक्ट् के नये-नये प्रयोगों की ओर खींचे चले जाते हुये काले धागे के जादू -टोने से प्रभावित...।।
उनकी प्रमुख फिल्में ख्वाब की दुनिया - १९३७, जंगल प्रिंसेज - १९४२, अलाद्दीन - १९४५, नव दुर्गा - १९५३, मैजिक कार्पेट - १९६४, महाभारत संग्राम - १९६५, हर-हर गंगे - १९६८, संत रविदास की अमर कहानी - १९८३, माया बाजार - १९८९ और हातिमताई - १९९० शामिल हैं.
शनिवार, 27 नवंबर 2010
यहां 'पात्र' मनाते हैं 'लेखक' का जन्मदिन
अपने लेखक की रचनाओं की आलोचना-प्रशंसा करते हैं। पात्रों के साथ-साथ ’सुपात्र’ (संत, असंत, घोंघावसंत) भी होते हैं जन्मदिन मनाने वालो में जिन्हें पता नहीं ’काशी का अस्सी’ में गुरु ने छुआ या छुआया क्यों नहीं? कई लेखक-पाठक, प्रशंसक पहली जनवरी को मुम्बई, दिल्ली, लखनऊ, पटना, इलाहाबाद और न जाने कहां-कहां से इस अनूठे जन्मदिन में शिरकत करने के लिए आते हैं। बताते हैं कि इस बार प्रो. सत्यदेव त्रिपाठी, इन्दौर के मनोज ठक्कर, लखनऊ के वीके सिंह, युवा कथाकार शशिभूषण, लखीमपुर खीरी के देवेन्द्र पधारे थे। हमेशा की भांति इस बार भी चर्चित कथाकार काशीनाथ सिंह का उनके पात्रों, कुपात्रों, सुपात्रों आदि ने वाराणसी में धूमधाम से जन्मदिन मनाया।
’अपना मोर्चा,’ ’कहानी उपखान,’ ’काशी का अस्सी,’ ’घर का जोगी जोगड़ा,’ ’रेहन पर रग्घू’ आदि पुस्तकों के रचनाकार काशीनाथ सिंह अपने पात्रों के समक्ष अक्सर (कई बार इस मौके पर दिल्ली कोलकाता भी चल बसे हैं फिर भी उनका जन्मदिन मना। उनके रहने या न रहने से जन्मदिन पर कोई फर्क नहीं पड़ता) साल की पहली तारीख को जन्मदिन मनाने के लिए मौजूद रहते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि जन्मदिन किसी होटल, सेमिनार हॉल या रेस्टोरैंट में नहीं मनाया जाता बल्कि भीड़ भरी सड़क पर स्थित चाय की दुकान (धुरी बदलती रही है.....) में मनाया जाता रहा है। इस बार भी उसी उत्साह के साथ उनके जन्मदिन को पात्रों और जन समुदाय ने इंज्वॉय किया। जन्मदिन पार्टी के लिए वही परम्परागत चूड़ा-मटर, चाय-पान और ’प्रसाद’। (जिसे दुनिया वाले 'शायद’ भांग कहते हैं....)
जातक, पंचतंत्र और लोक प्रचलित कथा शैलियां जैसे उनके कहानीकार के खून में है। उनके पाठक उन रचनाओं को पढ़ते हुए उन्हें देखते-सुनते भी हैं। लेखन के जरिए इस रचनाकार ने पाठकों की नई जमात तैयार की है। उनका चर्चित और निंदित उपन्यास ’काशी का अस्सी’ जिन्दगी और जिन्दादिली से भरा एक अलग किस्म का उपन्यास है (संस्मरण, रिपोर्ताज, कहानी के रूप में अस्सी को पढ़े लोग यह भी कहते हैं कि आलोचकीय दबंगई के कारण इसे उपन्यास घोषित किया गया) जिसका देश-विदेश की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है।
उनकी कहानी ’पांडे कौन कुमति तोहे लागी’ का प्रसिद्ध बंगाली अभिनेत्री निर्देशक ऊषा गांगुली ने ’काशीनामा’ नाम से नाट्य रूपान्तरण किया है जिसका देश के अनेक भागों में मंचन हुआ है। इसी तरह ’कौन ठगवा नगरिया लुटल हो’ का भी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों ने सफल नाट्य प्रस्तुति की है। अपने 73वें जन्मदिन पर काशीनाथ सिंह ने कहा कि सामान्य जनता व पाठकों के बीच से साहित्य गायब नहीं हुआ है, बशर्ते कि साहित्यकार जनता से जुड़ने का साहस रखें। ’अस्सी के डीह’ और ’विद्वान’ प्राचार्य डॉ. गया सिंह, प्रो. बलराज पांडेय, वाचस्पति, डॉ. सरोज यादव, डॉ. सुबेदार सिंह, नेता अशोक पांडेय आदि ने उपस्थित काशी को शुभ कामनाएं देते हुए अपने विचार व्यक्त किये।
-----01-01-2010 ( खबर और सूत्रों पर आधारित )
शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009
दीपावली
किसकी माँ हैं लक्ष्मी
यह उस नही ,उससे पहले वाली दीपावली की बात है (२००७) जब अर्थशास्त्रीय दृष्टि से लक्ष्मी मैया हमारे देश पर पुरी तरह से मेहरबान थीं । कृपा का आलम यह था कि शेयर बाज़ार और न जाने क्या क्या नित नै उंचायीयोँ को छू रहा था । भारतीय अर्थव्यवस्था कि विकास डर नौ फीसदी के पार चल रहा था। विदेशी मुद्रा भंडार २४७ अरब डॉलर जमा हो गया था। इन आर्थिक अकनोँ के बरक्स बीती साल की दीवाली ने सबको रुवांसा कर दिया । पता नही जानकर बताते हैं कि अमेरिका में कोई आर्थिक सुनामी लहर आयी और उसमे पुरा विश्व समा गया। कोई बाज़ार होता है जिसे शेयर कहते हैं, वह धणाम हो गया । बैंकिंग जैसी कोई व्यवस्था होती है , जो शक और शोक के दायरे में आ गई । तब से अब तक लक्ष्मीजी और चंचल हो गई हैं। हलाकि बताने वाले ये३ह अस्वस्ति देते हैं कि हमारी परमपरा में शुरू से ही बचत की आदत रही है , सो हमारे यहाँ उस तरह से लक्ष्मी कभी तंग नही हुई , जैसा की बताया जा रहा है।
और अगर लक्ष्मी नाराज चल रही हैं तो यह कोई नै बात नही है। वे शुरू से ही एक बड़ी आबादी से नाराज ही रही है। अरसे से हम लक्ष्मी और सरस्वती के भक्त रहे हैं --लेकिन हामी दरिद्र और निरक्षर बने हुए हैं। मानव विकास सूचकांक में हम बंगला देश भी पीछे हैं। ऐसा क्यों है? माँ लक्ष्मी की उदारता और कृपा दृष्टि चंद लोगों पार ही क्यों रहती है। 'असंख्यक इत्यादि जनों ' की दरिद्रता दूर करने में वे कोई रूचि क्यों नही लेती। फोर्ब्स patrika ke उजाले पनों पार धनिकों की सूचि में भारतीयों की बढ़त से अघाने बस के लिए हैं असंख्यक लोग। क्या इस समृधि और उसी अनुपात में बढाती गरीबी के बिच कोई नाता है क्या? अरब पतियों और ख्राब्पतियोँ की बढाती लिस्ट से हमारे जन-जीवन पार क्या कुछ फर्क पड़ता है न! आर्थिक उदारीकरण और भुमंदालिकरण के स्वप्नील संसार में बुध -गाँधी-आंबेडकर -लोहिया के दरिद्र नारायण कहा हैं ? आनंद प्रधान जैसे जानकर बताते हैं की आज एक आम भारतीय और सबसे धनिक आदमी की आय के बीच ९० लाख गुना का अन्तर आ चुका है। यह अन्तर उसी देश में है जिस देश में कभी बापू ने परतंत्र भारत को आजाद कराने के दौर में वायसराय की सैलरी पार सवाल उथया था की एक आम भारतीय नागरिक की तुलना में उनकी आमदनी पाँच हजार गुना अधिक कैसे हो सकती है?
ऐसे वर्गों को चिह्न जा सकता है जो अमूर्त किस्म के उदम (जो कही दिखता ही नही.....) के बल पार बहुत कम समय में लक्षमी के बढ़िया वाले कृपा पात्र बने। काले धन , पाप की कमाई सामाजिक प्रतिष्ठा और जनस्वीकृति हासिल कर रहे हैं। माँ लक्षी को चंद लोगों ने कब्जा लिया है। भ्रस्ताचारियोँ , शोषकों को नय्कत्वा प्रदान किया जा रह है। मीडिया और mahanth सभी ghul मिल गए हैं। काले धन कोई muda नही है।
दीपावली के prakash पर्व को prakhyat chintak vidyaniwas जी 'sarvamangal की akanksha का पर्व' कहते थे वह कुछ khas के mangal का क्यों होता जा रह है। ये रोशनी , ये patakhe , ये jagmagate shopin malls , ये samanti gift , ये ujalepan , धन pradarsan ...जन sewakoan
की shararati muskan और दीपावली की shubhkamnyein ...mei वे कहा हैं jinke mehanati hathoan ये sundetr dunia rachi- basi है । माँ लक्ष्मी से हर bar की भांति इस bar भी nihora है की asankhyak इत्यादि joan की दरिद्रता khtma करने की pratharna को ansuni करने के bajay apane agende में rakhane की की कृपा karein , इस bar नही तो agali bar जितना जल्दी हो सके उनकी जीवन की दीपावली prakash से dipt हो , jinhone apani श्रम -sanskriti के बल par यह sunder dunia banayi है। दिए की bati की लौ सभी तक पहुँच सके , इसमे सभी की samarthya bhar कोशिश jarur होनी चाहिए तभी deewapali happy होने की sarthakta sidh होगी।