वह भारत में सिनेमा के पुनर्जन्म का युग था। भारतीय सिनेमा नये रंग-रूप में अवतार ले रहा था। अब फिल्में बोलने लगी थीं। दर्शक कलाकारों की आवाजें सुन सकते थे। उन आवाजों में अपनी चेतना में छाये पात्रों को सुन सकते थे। अब तक मूक अभिनय करते कलाकारों का बोलना सचमुच सुखद था। दर्शक विस्मित थे। भाव-विभोर हो नये कलेवर में बोलती फिल्मों के संवाद सुन सकते थे। उन संवादों को दोहरा सकते थे। अभिनेताओं की आवाजों का अभिनय अपनी भाषा में कर सकते थे। इन फिल्मों का भारतीय परिदृश्य में आगमन किसी रहस्य की तरह था। कला के किसी रूप या जनसंचार के किसी माध्यम ने इतने कम समय में इतनी बड़ी क्रांति नहीं की थी। इन फिल्मों ने भारतीय सिनेमा को नया आयाम दिया। पृथ्वीराज कपूर ऐसे ही संवेदनशील समय के सशक्त अभिनेता थे। उन्होंने पहली ‘टॉकी’ फिल्म ‘आलम-आरा’ में अभिनय किया। सुंदर कद-काठी, आकर्षक व्यक्तित्व और रोबिली आवाज के साथ फिल्मों में छा गये। दर्शक उनके कायल हो गये।
कहते हैं कि मुम्बई की धरती पर कदम रखते ही पृथ्वीराज कपूर ने आसमान में हाथ उठाकर कहा- ‘‘हे ईश्वर, अगर तुमने मुझे यहां अभिनेता नहीं बनाया तो मैं तैर कर साथ समुंदर पार करूंगा और हॉलीवुड चला जाऊंगा। मेरे लिए कला एक तड़प है, स्पंदन है, जीवन है। मैं चाहता हूं कि कला जनजीवन का दर्पण बने, जिसमें लोग खुद को देख सकें, संवार सकें, सुंदर बन सकें, उन्नति कर सकें। सच्ची कला वह है जो जीवन को सही मायने में चित्रित करे।’’
शावर (अब पाकिस्तान में) जन्में, पृथ्वीराज कपूर ने अपने अभिनय करियर की शुरुआत थियेटर में काम करते हुये लीलापुर और पेशावर से की। 1920 के दशक में वे बंबई में ‘इम्पीरियल फिल्म कंपनी’ से जुड़े और फिल्म ‘सिनेमा गर्ल’ से धमाकेदार शुरुआत की। भारत की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ में महान अभिनय का प्रदर्शन कर अपनी अद्वितीय छा जाने वाली आवाज के लिये जाने गये। 1930 के पूरे दशक में कलकत्ता स्थित ‘न्यू थियेटर्स’ द्वारा प्रदर्शित फिल्मों में मुख्य भूमिकाएं निभाई। देबकी बोस द्वारा निर्देशित फिल्म ‘राजरानी मीरा’ पृथ्वीराज कपूर का बेमिसाल प्रदर्शन रही। इस फिल्म की सफलता के साथ ही एक अन्य सफल फिल्म ‘सीता’ की, जिसमें इन्होंने राम की भूमिका निभाई। न्यू थियेटर्स में इनकी अन्य बहुचर्चित फिल्म ‘विद्यापति’ थी, जिसमें देबकी बोस ने मिथिला के राजकवि की जीवनी को स्वरूप दिया।
1930 के दशक के अंत में पृथ्वीराज कपूर वापस बंबई आ गये। बंबई वापसी के बाद इन्होंने चंदूलाल शाह की रंजीत स्टूडियोज से प्रसारित दो सफल फिल्में ‘पागल’ और ‘अधूरी कहानी’ की। बाद के वर्षों में किसी भी स्टूडियो से न जुडक़र पृथ्वीराज कपूर ने स्वतंत्र अभिनेता की तरह काम करना प्रारंभ किया और सोहराब मोदी की ‘सिकंदर’ में एलेक्जेंडर द ग्रेट की भूमिका अदा की। मनोहर कद-काठी और असाधारण अभिनय प्रतिभा के बल पर ‘आवारा’ और ‘मुगले-आजम’ जैसी फिल्मों में राजसी ठाठ-बाट और पोशाक में खूब सजे साथ ही रजवाड़ों की शान का बेमिसाल अभिनय किया।
सिनेमा से जुड़ाव के साथ ही पृथ्वीराज कपूर का थियेटर की ओर भी समान रूप से लगाव रहा। फिल्मों से होने वाली अपनी आमदनी का उपयोग उन्होंने पृथ्वी थियेटर (1944) बंबई के निर्माण और विकास में किया। हिंदी स्टेज प्रोडक्शन्स को बढ़ावा देने में पृथ्वी थियेटर का योगदान रहा। अगले दशक तक पृथ्वी के नाटकों ने कई प्रतिभाओं को पहला मौका दिया जिनमें शामिल हैं- रामानंद सागर, शंकर-जयकिशन और राम गांगुली। उन्होंने अपने बेटों-राज, शम्मी और शशी को भी लॉन्च किया।
अद्भुत प्रतिभा के धनी पृथ्वीराज कपूर को 1969 में पद्म भूषण और 1972 में दादासाहब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया गया। साथ ही वे पहली फिल्म पर्सनालिटी रहे जो कि राज्य-सभा के लिये नामित हुये। पृथ्वीराज कपूर जीवनपर्यंत अपना काम करते रहे। तब तक जब तक कि 1972 में उनकी मृत्यु कैंसर से नहीं हो गई। कुछ लोग ऐसे ही होते हैं। चुपके-चुपके हमारे दिलों पर राज करने लगते हैं। अभिनय करते-करते गुजर जाते हैं। हम उन्हें और उनकी कला को कभी भूला नहीं पाते। उन्हें बार-बार याद करते हैं। नमन करते हैं।
सोमवार, 29 नवंबर 2010
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