हिन्दी के प्रगतिवादी समालोचक चंद्रबली सिंह 20 अप्रैल, 2011 को अपने जीवन-संघर्ष के 87 वर्ष पूरे
किये । उनके जैसे सहज-सरल सह्नद्य व्यक्तित्व की उपस्थिति सांस्कृतिक परिदृष्य के लिए भी विशेष महत्व की है । समकालीन समाज, राजनीति, इतिहास, साहित्य और संस्कृति पर उनकी दृष्टि हमेशा सचेत, सक्रिय और संघर्षशील रही है। हिन्दी के प्रतिभाशाली समालोचक चंद्रबली सिंह मार्क्सवादी समाज-दर्शन की गहरी समझ रखने वाले बौद्विक अध्येता और व्याख्याकार हैं। समाज से व्यक्ति का व व्यक्ति से समाज के परायेपन की भावना को कैसे खत्म किया जाये - यह कार्ल मार्क्स की चिंता थी, इसे चंद्रबली जी ने गहरे अर्थो में आत्मसात किया है । चंद्रबली जी अपनी सहजता और सादगी से कभी भी बड़प्पन या ऊँचाई का अभास नहीं होने देते। 20 अप्रैल , 1924 को गाजीपुर के रानीपुर (ननिहाल) में जन्मे चंद्रबली सिंह की शिक्षा उदय प्रताप इण्टर कालेज तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में संपन्न हुई। सन् 1994 में अंग्रजी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने बलवन्त राजपूत कालिज (आगरा) और उदय प्रताप स्नातकोत्तर महाविद्यालय में चालीस वर्षो तक अध्यापन किया।
जीवनधर्मी विवेक और जनधर्मी आलोचकीय चेतना के लिए जाने-जाने वाले चंद्रबली जी की पहली पुस्तक 1956 में लोक दृष्टि और हिन्दी साहित्य (आलोचनात्मक निबंधों का संकलन ) प्रकाशित हुई। 46 साल बाद दूसरी पुस्तक आलोचना का जनपक्ष (2003) प्रकाशित हुई। नोबेल पुरस्कार विजता चिली के विश्वविख्यात कवि पाब्लो नेरुदा (1904-1974) के जन्मशती वर्ष में उनके द्वारा किया गया अनुवाद पाब्लो नेरुदा कविता संचयन साहित्य अकादमी से 2004 में छपकर आया। इस अनुवाद का व्यापक स्वागत हुआ। सिर्फ हिन्दी में ही नहीं , बल्कि भारतीय भाषाओं के प्रबुद्ध साहित्यिकों ने भी चंद्रबलीजी के इसे गंभीर प्रयास बताया। भारत में चीली के राजदूत जार्ज हेन ने भी हिन्दू में लिखे अपने पाब्लो नेरूदा विषयक लेख में चंद्रबलीजी की अनुवाद का जिक्र किया। चर्चित आलोचक डा. नामवर सिंह ने लिखा है कि ऐसे काव्यात्मक स्तबक के लिए हिन्दी जगत अपने व्रिष्ठ जनवादी समालोचक के प्रति कृतज्ञ रहेगा। पाब्लो नेरुदा के अलावे उन्होंने नाजिम हिकमत, वाल्ट ह्रिटमैन, एमिली डिकिन्सन, ब्रेख्त, मायकोव्सकी, राबर्ट फ्रास्ट जैसे विख्यात विशिष्ट कवियों का भी अनुवाद किया है। चर्चित कथाकार काशीनाथ सिंह कहते हैं आलोचना के समानांतर उनका अनुवाद कार्य अद्भुत है और जिनके अनुवाद किये हैं, वे एक तरह के कवि नहीं हैं। प्रायः मार्क्सवादी समीक्षक आपाठय, दुर्गम खूसट और सठियाये हुए गद्य लिखते हैं, इससे मास्टर साहब (चंद्रबली जी) की समीक्षा दूर है।
अपने शुरुआती लेखकीय जीवन से ही वे कवियों की कृतियों एवं विविध काव्य-धाराओं पर लिखते रहे हैं। चंद्रबली सिंह की आलोचकीय दृष्टि को प्रख्यात समालोचक (स्व.) रामविलास शर्मा बखूबी महत्व देते थे। डॉ शर्मा चाहते थे कि चंद्रबलीजी अपनी प्रतिभा का पर्याप्त लेखकीय- उपयोग करें। उन्होंने अपनी एक पुस्तक भी ...भूतपूर्व आलोचक चन्द्रबलीजी को समर्पित की... । इस आत्मीयता में अप्रतिम मेघा के रहते हुए चन्द्रबली द्वारा कम लिखने के प्रति एक शिकायती प्रोत्साहन छिपा है।
चन्द्रबली जी को भी यह पीड़ा तो है कि आलोचना की उनकी और किताबें होनी चाहिए थी . ’भारत-भारती के सर्जक राष्ट़कवि मैथिलीशरण गुप्त (1886 - 1964) की रचऩाऒं एवं उनकी काव्य-दृष्टि तथा संवेदना को लेकर प्रगतिशील आलोचक अक्सरहां बेहद अनुदार रहे हैं। उन्हें पुनरुत्थनवादी और अंध हिन्दू राष्ट्रवादी के रूप में भी देखा जाता रहा है। चंद्रबली ही अपनी मौलिक दृष्टि से इसे नकारते हैं - गुप्त ही पुनरुत्थानवादी नहीं हैं - उनकी राष्ट्रीयता गांधी युग की राष्ट्रीयता है, जो धार्मिक पुट के बावजूद सांप्रदायिक वैमनस्य से मुक्त है, जिसमें वैष्णव उदारता है और जो देश के साथ-साथ सारी मानवता को प्यार कर सकती है। इस दृष्टि-संपन्त्रता के कारण ही उनका (चंद्रबली जी) समकालीन आलोचकों में एक अलग स्थान रहा है। रामविलास जी की तरह ही उन्होंने अपनी परंपरा का सावधान मुल्यांकन किया तथा पूरी जिम्मेदारी और दायित्व बोध से साहित्य समग्र में काम किया।
रामविलास शर्मा के निधन के बाद उनकी बरसी पर याद करने के बहाने उनके पूरे अवदान को ही संदेह के घेरे में रखे जाने के ’आलोचना’ समय में उन्हॉऩॆ कहा था - आज रामविलास जी पर चारों ओर से हमले हो रहे हैं। एक तरफ से दिखाया जा रहा है कि उनका सारा लेखन मार्क्सवाद विरोधी रहा है। ये कहने वाले ज्यादातर अपने को मार्क्सवादी कहते हैं। उनके नीयत में ही संदेह प्रकट किया गया। तमाम लोग उन पर लिख रहे हैं और लोग सोच रहे हैं कि चंद्रबली चुप क्यों हैं ? मै जवाब दूंग़ा। उनका मानना है कि डा. शर्मा की बहुत सी मान्याताओं को मानें या न मानें लकिन व भारत में समाजवादी विचारो के लिए जीवन के अंतिम दिऩॊ तक संघर्ष कर रहे थे, इसके बारे में संदेह व्यक्त नहीं किया जा सकता। नवजागरण के नेताओं मे रामविलास जी का नाम सर्वप्रमुख रहेगा। ऐसा व्यक्ति ’रेनेसां’ काल में हुआ है कि एक ही व्यक्ति विविध क्षेत्रों में अपने व्यक्त्वि को फैलाया हुआ है। वे केवल (सीमित अर्थो में) साहित्यकार नहीं थे। ऐसा भी नहीं कि वह डा. शर्मा की सभी मान्यताओं से सहमत रहे हॉ ।
उन्होंने एक बेहद कड़ा असहमतिपरक-लेख रामविलास शर्मा पर लिखा है क्योंकि विचारो से कोई समझौता करना मैंने कभी नही सीखा। यह सही भी है क्योंकि अब तक का सर्वाधिक कडा सैद्वातिक असहमति वाला लेख चंद्रबली सिंह ने डॉ़ शर्मा पर ही लिखा है जो जनयुग (स़़. नामवर सिंह ) में तीन किस्तों में प्रकाशित हुआ था।
इस विचलन के दौर में वे संघर्षशील वैचारिकता के साथ अडिग खडे हैं। उनका मानना रहा है कि तुलसी दास के जाके प्रिय ना राम बैदेही की तरह मेरी वैचारिक दृढ़ता और प्रबल होती जा रही है। बाबरी विधवंश पर उन्होने कहा था स्वयं मनुष्यता ने सारी हार और जीत देखी है। वे कहते हैं कि वर्तमान के यथार्थ का अगर हमनें सामना करना नहीं सीखा तो हम भविष्य नही बना सकते। प्रगतिशील आलोचना के स्थापत्य मे उनके अवदान का जिक्र करते हुए वरिष्ठ समीक्षक मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने लिखा है कि - एक जमाना था जब रामविलास शर्मा के बाद उन्हीं का नाम लिया जाता था और उस जमाने के लोग आज भी यह बताते हैं कि सृजनात्मक साहित्य के मर्म को पकडने और कलात्मक संवेदना की व्याख्या का जैसा औजार उनके पास रहा है, वैसा उनके समकालीनों में किसी के पास नहीं रहा हैं। प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नकेनवाद, नयी कविता, मुक्तिबोध, नेमिच्रंद्र जैन, गिरिजा कुमार माथुर, अज्ञेय, नागार्जुन,त्रिलोचन आदि पर उनकी आलोचनात्मक टिप्पणियां, निबंध और संदर्भ इसकी पुष्टि करते हैं। उनकी राय है कि हमारा काम यह है कि कवियों में जो प्रगतिशील व जनवादी तत्व देखें उसे हम विकसित करने की कोशिश करें और जो जनविरोधी हैं उसके खिलाफ आवाज उठायें। उम्र के इस पडाव पर भी उनकी चिंताएं, उर्वर हैं। प्रेमचन्द की 125 वीं जयन्ती के निमित्त लमही (वाराणसी) में आयोजित मुख्य कार्यक्रम में उन्होंने संगोष्ठी की अध्यक्षता की थी । 6 नवम्बर, 2005 को गोदान को फिर से पढ़ते हुए..... अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी (वाराणसी में आयोजित) के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता की थी । कुल्हे के आपरेशन के तथा बीमारी के बावजूद उनकी जिजीविषा अभी अशक्तता में भी बरकरार है। मित्रवत पुत्र (स्व.) डा. प्रमोद कुमार सिंह (बब्बू जी) का एकाएक बिछुड़ जाना रचनात्मक सक्रियता से ही सहय हो पाया। रामविलास जी ने डेढ़ दशक पहले एक पत्र में लिखा भी था कि ’.... तुमने निराशा और मृत्यु का मुंह देख लिया है लेकिन पराजय तुम्हारे लिये नही है, धाराशाई होने पर भी नहीं है। .... (चंद्रबली जी की पत्नी के निधन पर डा. शर्मा का पत्र)। उनकी सृजन-क्षमता व्यक्तिगत जीवन के तमाम झंझावतों के बावजूद उसी जीवन द्रव्य से सिंचित है जिसमें मानव जीवन की बेहतरी की चिंता है । इसलिए वे कहते है लेखक को जिंदगी की पुनर्रचना करनी चाहिए। वाराणसी के विवेकानंद नगर स्थित अपने आवास में शारीरिक लाचारी के बावजूद साहित्य के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जुडी चर्चाऒं में मशगूल रहते हैं। साहित्य और विचार की चेतना और संवेदना में कोई कमी नहीं आयी है . बिस्तर तक सिमटे रहने के बावजूद उनकी जिजीविषा में कमी नहीं आयी . वॆ अपने समय के जीवित इतिहास हैं। उनके जैसी सरलता-सहजता अब दुर्लभ होती जा रही है । काश ! इस पुनर्रचना से सिक्त उनके अधूरे तथा अप्रकाशित काम पूरे हो जाते तो हिन्दी साहित्य की समृद्वि होती। उनका सहज-आत्मीय व्यक्तित्व और कृतित्व हमारे लिये प्रेरणास्रोत है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें