फिल्म के किसी दृश्य में एक बड़ा-सा सांप पर्दे पर छा जाता है जो लगातार दर्शकों की ओर बढ़ता चला जा रहा है। लोगों की घिग्घी बंध जाती हैं। भौंचक और भयातुर हो जाते हैं लोग। दादियां-नानियां अपने पैर कुर्सी पर कर लेती हैं, पर जो सयाने हैं , वे हंसते हैं। कहते हैं यह सिनेमा है। सिनेमा इसी तरह एक इंद्रजाल रचता है। समाज का आईना बन झलकता है। हम अपनी सुध-बुध खो पर्दे पर छाये रिश्ते-नातें, तो कभी खुद को ढूंढते हैं। चुपके-चुपके सिनेमा हमारे जीवन में उतर आता है। हम सिनेमाई अंदाज में रहने लगते हैं। सिनेमा वाले गाने गाते हैं। सिनेमा वालों की बातें करते हैं। किसी काले जादू के वशीभूत हो फिल्मी किरदारों संग हंसते हैं, गाते हैं, रोते हैं, सिटियां बजाते हैं----इस तरह सिनेमा मनोरंजन बन जाता है, ज्ञान बन जाता है। औपनिवेशिक भारत में दादा साहब फाल्के सिनेमा रचते हैं जो आज शिखर पर है। उस रचनात्मक सफर का सौंवा साल चल रहा है। भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में दादा साहब फाल्के के प्रयास, जुनून और रचनात्मकता को याद किया जाना इसलिए जरूरी है कि उन्होंने वह चीज हमें दी जो एक तरह से भारतीय पहचान से जुड़ा है। ९९ साल पहले जो उन्होंने शुरुआत की वह इतिहास ही नहीं हमारी भावनाओं से भी जुड़ा है । वह सर्जनात्मक संघर्ष , पहल हमारे लिए भावनात्मक मामला है।
‘‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट की तरह हम राम, कृष्ण, गोकुल और अयोध्या पर फिल्में बनायेंगे। ’’
धुंडीराज गोविंद फाल्के जिन्हें दादा साहब फाल्के के नाम से जानते हैं, भारत में सिनेमा के पर्दे को लेकर आते हैं और धीरे-धीरे यह शहरों, कस्बों और गांवों के ‘सिनेमाघरों’ में टंग जाता है। तब सिनेमा जीवन के सामानांतर चलने लगता है। दादा साहब एक निर्देशक, निर्माता, लेखक, कैमरामैन, मेकअप आर्टिस्ट, संपादक और कला निर्देशक का सम्मिलित नाम है। कह सकते हैं संपूर्ण सर्जनात्मकता। इनका जन्म नासिक से ३० किमी की दूरी पर ३० अपै्रल, १८७० को त्रयम्बकेश्वर में हुआ। १९१३ में उन्होंने भारत की पहली फिल्म बनाई। कुल दो दशकों में उन्होंने कुल 95 फिल्में और 26 लघु फि़ल्में बनाई। 1917 तक वे 23 फि़ल्में बना चुके थे। उन्होंने सिनेमा की शुरुआत कर भारत में क्रांति का सूत्रपात का किया। वह एक समृद्घ परिवार से आते थे और कहते हैं कि पैसे से लदी बैलगाडिय़ां घर आया करती थीं। पिता संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे, एलफिंस्टन कॉलेज के अध्यापक थे। लेकिन दादा साहब की रुचि कला विशेषत: पेंटिंग, थियेटर, जादू आदि में थी। पिता की तरह एक पुजारी बनने की जगह उन्होंने बंबई के प्रसिद्घ सर जे०जे० स्कूल ऑफ आर्ट में १८८५ में प्रवेश लिया। १८९० में जेजे स्कूल से पास होने के बाद कला भवन, बड़ौदा से कला की विधिवत शिक्षा ली। मूर्तिशिल्प, वास्तुशास्त्र (आर्किटेक्चर), पेंटिंग, फोटोग्राफी, ड्राईंग आदि की विधिवत शिक्षा ली। दादा साहब फाल्के सर्वगुण संपन्न व्यक्तित्व के मालिक थे।
फिल्में बनाने से पहले वह एक सधे हुए चित्रकार, फोटोग्राफर और मेकअप आर्टिस्ट थे। १९०८ में उन्होंने फाल्के आर्ट, प्रिंटिंग और इनगे्रविंग के कार्यों की शुरुआत की। फिल्मों की ओर रुझान इसी वजह से हुआ। अपने स्टूडियो के लिए जब वे कलर प्रिंटिंग का सामान लाने जर्मनी गए तो वहां ‘लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ नाम की फिल्म देखी। फिल्म देखकर वह काफी प्रभावित हुए। इस फिल्म ने उनके अंदर फिल्मों को लेकर संभावनाओं के प्रति हलचल भर दी।
उन्होंने भारतीय दर्शकों के लिए भारतीय थीमों पर फिल्में बनाने की ठानी। फिल्म टेक्नोलॉजी का ज्ञान प्राप्त करने और उससे जुड़े साजो-सामान लाने के लिए लंदन गए। यहां फिल्मकार और ‘बाईस्कोप’ पत्रिका के संपादक सेसिल हेपवर्थ से मिले जो कि ब्रिटिश फिल्म इंडस्ट्री के एक प्रमुख प्रोड्यूसर और संस्थापकों में से एक थे। सेसिल ने दादा साहब की बहुत मदद की। स्वदेश वापस आने पर इन्होंने फाल्के फिल्म्स की स्थापना की और भारत की पहली फूल-लेंथ फिचर फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाई। एक ऐसी राजा की कहानी जो सत्य के पथ पर चलता है । दुख-कष्टï सहकर भी वह सत्य की राह नहीं छोड़ता। यह फिल्म बंबई में ३ मई, १९१३ को मुम्बई के कोरनोनेशन सिनेमा में पहली बार सार्वजनिक रूप से दिखाई गई। फिल्म को अपार सफलता मिली। साथ ही दादा साहब के पास यूरोप से कई ऑफर भी आये। लेकिन उन्होंने भारत में ही रहने का निर्णय लिया।
राजा हरिश्चंद्र की ‘तारामती’ और मूंछ का सवाल
आज सिनेमा बाजार , प्रभाव , प्रसार , तकनीक की दृष्टि से शिखर पर है । सिनेमा के नायक-नायिकाएं आसमान छूते सितारे बन चुके हैं ! कोई भी रचना शुरुआती समय में कितने कंटकों और प्रयासों से परवान चढ़ती है इसे देखना हो तो दादा साहब के संघर्ष को देखें ।
दादा साहेब ने पहली फीचर फि़ल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ के लिए तैयारी की, तो फि़ल्म की नायिका उनके लिए गंभीर समस्या बन गई। राजा हरिश्चंद्र की पत्नी तारामती । दादा की इच्छा थी कि नायिका की भूमिका कोई स्त्री कलाकार ही करे। इसके लिए पहले उन्होंने नाटक मंडली से जुड़ी कुछ कलाकारों से बात की, लेकिन कोई कैमरे के सामने आने को तैयार नहीं । इसके लिए उन्होंने इश्तहार भी बंटवाए, लेकिन उसका भी कोई लाभ नहीं मिला। अंतत: कोठे वालियों के पास पहुंचे। उनसे हीरोइन बनने का आग्रह किया, लेकिन वहां भी कोई तैयार नहीं हुआ।
हारकर तारामती की भूमिका के लिए पुरुष कलाकार की तलाश शुरू हो गई। उस समय पुरुष कलाकार भी सिनेमा के लिए आसानी से मिल नहीं पाते थे । तभी एक दिन उन्हें एक रेस्तरां में एक रसोइया नजर आया। दादा ने उनसे बात की। काफी कहने-सुनने, समझाने के बाद वह काम करने के लिए तैयार हो गया। रिहर्सल के बाद जब शूटिंग का समय आया, तो रसोइये से उन्होंने कहा - कल से शूटिंग करेंगे, आप अपनी मूंछें साफ कराके आना।
दादा की यह बात सुनकर रसोइया, जो हीरोइन का रोल करने वाला था, चौंक गया। उन्होंने जवाब दिया - मैं मूंछें कैसे साफ करा सकता हूं! मूंछें तो मर्द-मराठा की शान हैं! दादा ने समझाया तारामती तो नारी है ..। फिर मूंछ का क्या है, शूटिंग पूरी होते ही रख लेना! काफ़ी समझाने के बाद रसोइया मूंछ साफ कराने के लिए तैयार हुआ। वह रसोइया, जो भारत की पहली फीचर फिल्म की पहली ‘हीरोइन’ का मूकाभिनय कर रहा था, का नाम सालुंके था। देविका रानी , मधुबाला से करीना तक की पूर्वज नायिका सालुंके !
फाल्के ने १९१७ में हिंदुस्तान फिल्म कंपनी की स्थापना की और फिर फिल्मों के प्रोडक्शन का दौर शुरू किया। फाल्के एक मेधावी फिल्म टेक्नीशियन थे। जिन्होंने फिल्मों में स्पेशल इफेक्ट्स के साथ कई प्रयोग किये। धार्मिक थीमों और ट्रीक फोटोग्राफी ने लंका दहन और श्रीकृष्ण जन्म जैसी फिल्मों से दर्शकों का मन मोह लिया। तब जबकि स्त्रियों के लिए ऐक्टिंग करना किसी अभिशाप से कम नहीं था। उस समय दादा साहब मोहिनी भस्मासुर में लीड रोल में किसी नारी चरित्र को लेकर आते हैं। बाल कृष्ण आधारित फिल्म ‘कालिया मर्दन’ में उनकी बेटी ने अभिनय किया था। ‘भस्मासुर मोहिनी’ में पहली बार महिलाओं, दुर्गा गोखले और कमला गोखले ने स्त्री किरदार निभाया। नहीं तो पुरुष ही महिला किरदार निभाते थे। कोई महिला कैमरे के सामने आने को तैयार नहीं होती थी। अंतिम मूक फि़ल्म ‘सेतुबंधन’ थी, जिसे बाद में डब करके आवाज़ दी गई।
दादा साहब ने जो एकमात्र बोलती फि़ल्म बनाई- ‘गंगावतरण’। गंगावतरण (१९३७) उनकी आखिरी फिल्म थी। इसके बाद इन्होंने फिल्में बनानी छोड़ दी। अंतिम दिनों में दादा साहब की आर्थिक स्थिति काफी दुर्बल हो गई थी। वी . शान्ताराम जैसे कुछ हितैषियों ने पहल कर उनके लिए मकान बनवाया। उनकी पत्नी ने अपने सारे गहने बेच दिये थे। दादा साहब नासिक के पास जहां रहते थे उसका नाम दिया गया था हिन्द सिने जनक आश्रण।
१९४४ में दादा साहब इस असार संसार से विदा हो गए। भारत सरकार ने १९६९ में इनके नाम पर दादा साहब फाल्के पुरस्कार देना शुरू किया जो आज भारतीय सिनेमा में किसी कलाकार को दिया जाने वाला सबसे बड़ा पुरस्कार है और हर कलाकार का सपना इस पुरस्कार को पाना है। बीते सालों में फिल्म निर्देशक परेश मोकाशी ने दादा साहब फाल्के पर मराठी फिल्म ‘हरिश्चंदाजी फैक्टरी’ बनाई जो आस्कर पुरस्कार सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म की श्रेणी में नामांकन के लिए भारत की ओर से औपचारिक रूप से भेजी गई। समय के साथ सिनेमा पूरी तरह बदल गया है। लोगों की पसंद और सिनेमा का स्तर दोनों बदल गया है । सिनेमा की भाषा, तकनीक और विषय बदल गए हैं। मूक से सवाक और अत्याधुनिक तकनीकी फिल्म संसार के सुहाने सफर में दादा साहब की प्रासंगिकता और जरूरत बनी रहेगी ।
भारतीय सिनेमा दादा साहब के सृजन सरोकार के बल पर हमेशा-हमेशा चमकता रहेगा। हम जानते हैं वे रहेंगे हमेशा-हमेशा , फिल्मों में ....यादों में ...जीवन में ।
फिल्मोग्राफी
राजा हरिश्चन्द्र (१९१३)
मोहिनी भष्मासूर (१९१३)
सावित्री सत्यवार (१९१४)
श्रीकृष्ण जन्म (१९१८)
कालिया मर्दन (१९१९)
सेतु बंधन (१९३२)
गंगावतरण (१९३७)