प्रभा खेतान नहीं रही , इस पर सहसा विश्वाश नहीं होता। वे हमारी ऎसी ही जरुरत बन गयी थीं। उनका अचानक यूँ चले जाना बेहद तकलीफदेह है । स्त्री विमर्श को अपनी मेधा और वैचारिक ऊष्मा से समृद्ध करने वाली प्रभा सही मायने में हिन्दी की साइमन दा बौया थीं । उनका लिखना जीवन से अलग नहीं था।
यह कहना नाकाफी है कि हम शोक संतप्त हैं । स्त्री लेखन ही नहीं समूची हिन्दी की जन संपृक्त धारा की क्षति है उनकी अनुपस्थिति ।
फिर डिटेल में कभी और ......